सेवा करने की स्वाधीनता मनुष्यमात्र को प्राप्त है। अगर वह करना ही न चाहे तो अलग बात है। सेवा का अर्थ है : मन-वाणी-कर्म से बुराईरहित हो जाना यह विश्व की सेवा हो गई। यथाशक्ति भलाई कर दो यह समाज की सेवा हो गई। भलाई का फल छोड़ दो यह अपनी सेवा हो गई। प्रभु को अपना मानकर स्मृति और प्रेम जगा लो यह प्रभु की सेवा हो गई। इस प्रकार मनुष्य अपनी सेवा भी कर सकता है, समाज की सेवा भी कर सकता है, विश्व की सेवा भी कर सकता है और विश्वेश्वर की सेवा भी कर सकता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अगर तुम सर्वांगपूर्ण जीवन का आनन्द लेना चाहते हो, तो कल की चिन्ता को छोड़ो। कल तुम्हारा अत्यन्त आनन्दमय होगा, यह दृढ़ निश्चय रखो। जो अपने से अतिरक्त किसी वस्तु को नहीं जानता, वह ब्रह्म है। अपने ख्यालों का विस्तार जगत है। निश्चय ही सम्पूर्ण जगत तुमसे अभिन्न है, इसलिए मत डरो। संसार को आत्मदृष्टि से देखने लग जाओ फिर देखो, विरोध कहाँ रहता है, कलह कहाँ रहता है, द्वेष कहाँ रहता है। जिसका मन अन्तर्मुख हो जाता है, वह चित्त थकान को त्याग कर आत्मविश्रान्ति का स्वाद लेता है। तुम जितना समाहितचित्त होते जाओगे, उतना अमृत तुम्हारे चरणों के नीचे आता जायेगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ क्षमा आपको सच्ची शांति प्रदान करती है। शांति व सुख का आधार सांसारिक व्यक्ति और वस्तुएँ नहीं हैं क्योंकि संसार के व्यक्तियों व वस्तुओं के संयोग से आपको जो लौकिक सुख मिलता है वह उन व्यक्तियों व वस्तुओं के बिछुड़ने पर समाप्त होकर भयंकर दुःख व अशांति में बदल जाता है। शांति तो मिलती है सेवा, त्याग, प्रेम, विश्वास, क्षमा व विवेक के आदर से। जिसके जीवन में ये सब अलौकिक तत्त्व हैं, उसका विवेक जागता है, वैराग्य जगता है। ʹदुःख और सुख मन की वृत्ति है, राग-द्वेष बुद्धि में है। दोनों को जानने वाला मैं कौन हूँ ?ʹ - सदगुरु की कृपा से इसकी खोज कर आत्मा परमात्मा की एकता का अनुपम अनुभव करके वह जीवन्मुक्त हो जाता है। जो आनंद भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश को प्राप्त है, उसी आत्मा के आनंद को वह भक्त पा लेता है। विवेक से मनुष्य जब इतनी ऊँचाई को छू सकता है तो नाहक परेशानी, पाप और विकारों में पतित जीवन क्यों गुजारना! ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अपने प्यारे भगवान को अपने से दूर मानना, किसी अन्य देश में, किसी अन्य काल में मानना यह मूर्खता है। जैसे 50 साल का बूढ़ा बालमंदिर की पढ़ाई करने की बेवकूफी करे, ऐसे ही मानव तन पाकर बीस-पच्चीस साल की उम्र में भी भगवान को कहीं के कहीं माने, सुख के लिए विकारों की आग में अपने को तपाता रहे यह मूर्खता है। ऐसे लोगों के लिए तुलसीदासजी कहते हैं- सो परत दुःख पावहिं। सिर धुनि धुनि पछतावहिं।। कालहिं कर्महिं ईस्वरहिं। मिथ्या दोष लगावहिं।। 'क्या करें ? जमाना खराब है... जमाना ऐसा है.. जमाना वैसा है... जमाना बदल गया....' जमाना तो बदल गया लेकिन बदले हुए जमाने को अबदल आत्मा देखता है। उस आत्मा में आजा मेरे भैया ! हिमालय के जंगलों से गंगा बहती है। जंगल के बाँसों की आपस में रगड़ होने से या किसी कारण से जंगल में आग लगती है तो जंगल के हाथी भागकर गंगा में आ जाते हैं। उनका कुछ नहीं बिगड़ता। ऐसे ही तुम्हारे चित्त में जब अशांति की आग लगे तब तुम ज्ञान की गंगा में आ जाओ। नारायण के ध्यान में डूब जाओ। चिदघन चैतन्य के स्वरूप में विश्रान्ति पा लो। सब समस्याएँ हल हो जाएँगी। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ‘सम्पूर्ण विश्व मेरा शरीर है’ ऐसा जो कह सकता है वही आवागमन के चक्कर से मुक्त है। वह तो अनन्त है। फ़िर कहाँ से आयेगा और कहाँ जायेगा? सारा ब्रह्माण्ड़ उसी में है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ यदि हमारा मन ईर्ष्या-द्वेष से रहित बिल्कुल शुद्ध हो तो जगत की कोई वस्तु हमें नुक्सान नहीं पहुँचा सकती। आनंद और शांति से भरपूर ऐसे महात्माओं के पास क्रोध की मूर्ति जैसा मनुष्य भी पानी के समान तरल हो जाता है। ऐसे महात्माओं को देख कर जंगल के सिंह और भेड़ भी प्रेमविह्वल हो जाते हैं। सांप-बिच्छू भी अपना दुष्ट स्वभाव भूल जाते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ यदि हमारा मन ईर्ष्या-द्वेष से रहित बिल्कुल शुद्ध हो तो जगत की कोई वस्तु हमें नुक्सान नहीं पहुँचा सकती। आनंद और शांति से भरपूर ऐसे महात्माओं के पास क्रोध की मूर्ति जैसा मनुष्य भी पानी के समान तरल हो जाता है। ऐसे महात्माओं को देख कर जंगल के सिंह और भेड़ भी प्रेमविह्वल हो जाते हैं। सांप-बिच्छू भी अपना दुष्ट स्वभाव भूल जाते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अविश्वास और धोखे से भरा संसार, वास्तव में सदाचारी और सत्यनिष्ठ साधक का कुछ बिगाड़ नहीं सकता। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ईश्वर को आवश्यकता है तुम्हारे प्यार की, जगत को आवश्यकता है तुम्हारी सेवा की और तुम्हें आवश्यकता है अपने आपको जानने की। शरीर को जगत की सेवा में लगा दो, दिल में परमात्मा का प्यार भर दो और बुद्धि को अपना स्वरूप जानने में लगा दो। आपका बेड़ा पार हो जायगा। यह सीधा गणित है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ कहीं आप अपने को अवयवयुक्त पञ्चभौतिक शरीर तो नहीं मान बैठे हैं? यदि ऐसा है तो आप सुखी जीवन कैसे बिता सकते हैं? शरीर के साथ जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधि, संयोग-वियोग, ह्रास-विकास लगे ही रहते हैं। अपने को शरीर मानकर कभी कोई भयमुक्त नहीं हो सकता। निर्भयता की प्राप्ति के लिए आत्मा की शाश्वत सत्ता पर आस्था होना आवश्यक है। यह आस्था ही धर्म का स्वरूप है। जितने धार्मिक मत मजहब हैं उनका मूल आधार देहातिरिक्त आत्मा पर आस्था है। आप बुद्धि के द्वारा न समझ सकें तब भी आत्मा के नित्य आत्मा में स्थित रहिये और कार्य कीजिये। आपके जीवन में धर्म प्रवेश करेगा और प्रतिष्ठित होगा। बुद्धि की निर्मलता और विवेक का प्रकाश आने पर आपका अन्तःकरण मुस्करायेगा और बाह्य जीवन भी सुखी हो जायगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ यह पक्की गाँठ बाँध लो कि जो कुछ हो रहा है, चाहे अभी तुम्हारी समझ में न आवे और बुद्धि स्वीकार न करे तो भी परमात्मा का वह मंगलमय विधान है। वह तुम्हारे मंगल के लिए ही सब करता है। परम मंगल करने वाले परमात्मा को बार-बार धन्यवाद देते जाओ.... प्यार करते जाओ... और अपनी जीवन-नैया जीवनदाता की ओर बढ़ाते जाओ। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ