मगध
सम्राट श्रेणिक के युवा पुत्र राजकुमार मेघ को भगवान महावीर के धर्मोपदेश
आत्मप्रकाश की ओर ले जानेवाले प्रतीत हुए । मेघ ने अनुभव किया कि ‘तृष्णा,
वासना
और अहंकार के जाल में जकडा जीवन नष्ट होता चला जा रहा है, परंतु इच्छाएँ
हैं कि शांत होने का नाम ही नहीं लेतीं बल्कि और बढती ही जाती हैं । उनकी पूर्ति
हेतु और अधिक अनैतिक कृत्य करने पडते हैं जिससे पापों की गठरी बढ रही है । काल
दौडा चला आ रहा है । इसके मुख में पहुँचते ही सारे भोगों का अन्त हो जायेगा ।
क्षणभंगुर जीवन में शरीर का नाश करनेवाला क्षण कब उपस्थित हो जाय कोई पता नहीं ।
इसके बाद पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ हाथ आनेवाला नहीं है । विषय-वासनाओं के कीचड
में फँसे जीवन को विवेक-दृष्टि से देखने पर मेघ को अपना जीवन बहुत घृणास्पद लगा।
‘कामादिक विकार,
द्वेष,
घृणा,
तिरस्कार,
अनैतिकता,
अवांछनीयताएँ
यदि यही संसार है तो इसमें और नरक में अन्तर ही क्या ? कलुषित कल्पनाओं
में झुलसते मायावी जीवन में भी भला किसीको शांति मिल सकती है ? तीर्थंकर
महावीर और सभी महापुरुष यही तो कहते हैं कि मनुष्य को आत्मानुसंधान करके परमात्मा
में स्थित हो जाना चाहिए । उसके बिना न आत्मकल्याण सम्भव है और न ही लोक कल्याण बन
पडेगा । अतः मुझे तपस्वी जीवन जीना चाहिए - ऐसा दृढ निश्चय करके राजकुमार मेघ ने
भगवान महावीर से अध्यात्म मार्ग की दीक्षा ली और उनके सान्निध्य में रहकर साधना
में लग गये।
विरक्त
मन को उपासना से असीम शांति मिलती है । नीरस जीवन में आत्मज्योति प्रकट होने लगती
है । मन, बुद्धि अलौकिक स्फूर्ति से भर जाते हैं । मेघ की निष्ठा को और अधिक
सुदृढ करने हेतुतीर्थंकर ने अब उसे विविध कसौटियों में कसना प्रारम्भ कर दिया । मेघ
ने कभी रूखा भोजन नहीं किया था । अब उसे रूखा भोजन दिया जाने लगा, कोमल
शय्या के स्थान पर भूमिशयन, आकर्षक वेशभूषा की जगह मोटे वल्कल और
सुखद सामाजिक सम्पर्क के स्थान पर बन्द कुटीर व आश्रम के आस-पास की स्वच्छता,
सेवा-व्यवस्था
करना आदि । मेघ को एक-एक कर इन सबमें जितना अधिक लगाया जाता, उसका
मन उतना ही उत्तेजित होता, महत्त्वाकांक्षाएँ सिर पीटतीं और
अहंकार बार-बार खडा होकर कहता : ‘अरे, मूर्ख मेघ !
जीवन के सुख-भोग छोडकर कहाँ आ फँसा ? मेघ को उसका मन लगातार निरुत्साहित
करता। मन में उठते विचारों के ज्वार-भाटे उससे पूछते, ‘क्या यही साधना
है जिसके लिए तुमने समस्त राजवैभव का त्याग किया ? आश्रम में सफाई
करना, झाडू लगाना, यहाँ की सेवा-व्यवस्था में सामान्य
सेवक की तरह जुटे रहना, क्या इसीसे आत्मोपलब्धि हो जायेगी ? इस
प्रकार मन में छिडे अन्र्तद्वन्द्व से मेघ दिग्भ्रमित-सा हो गया ।
राजकुमार होने
का गौरव, राजमहलों की सुख-सुविधा, यश, ऐश्वर्य से
भरपूर जीवन भी छूट गया और अध्यात्मपथ की ओर भी गति नहीं । कहाँ तो उसने कल्पना
संजोयी थी कि महावीर के सान्निध्य में रहकर वह भी लोकपूज्य बनेगा । उसने महावीर के
श्रीचरणों में सम्राटों तथा धनकुबेरों को दण्डवत् और विनीत भाव में देखा था। भगवान
महावीर की दीर्घ दृष्टि ने, अमोघ वाणी ने उसे इस ओर आकर्षित किया
था । उसने सोचा था कि वह भी तप करके यही सब पायेगा और उसके प्रभाव से एक दिन
समाज-संसार चकाचौंध हो जायेगा । इन सब सोच-विचारों के चलते एक दिन उसने तीर्थंकर
के चरणों में प्रणाम करके कहा : ‘‘भगवन् ! आपने मुझे कहाँ इन छोटे-छोटे
कामों में फँसा रखा है ? मुझसे तो साधना कराइये, तप
कराइये, जिससे मेरा अन्तःकरण पवित्र बने ।
भगवान
महावीर मुस्कराये और बोले : ‘‘वत्स ! यही तो तप है । विपरीत
परिस्थितियों में मानसिक स्थिरता और एकाग्रता, तन्मयता तथा
समता का भाव जिसमें आ गया, वही सच्चा तपस्वी है । तप का उद्देश्य ‘अहं
का मूलोच्छेद है । जिन साधकों ने सत्शिष्यों की तरह अपने अन्दर सामान्य सेवक की
शर्त स्वीकार कर ली है, जो हर छोटे-बडे काम को सद्गुरु की सेवा और
ईश्वर की उपासना मानकर करने लगा, फिर उसका ‘अहं कहाँ रह
जायेगा ? यह गुण जिसमें आ गया उसका अन्तःकरण स्वतः पवित्र और निर्मल बनता
जायेगा ।
मेघ
की आँखें खुल गयीं और वह एक सच्चे योद्धा की भाँति मन को जीतने के लिए तत्पर हो
गया । उलझे हुए को सुलझा दें, हारे हुए को हिम्मत से भर दें, मनमुख
को मधुर मुस्कान से ईश्वरोन्मुख बना दें, हताश में आशा-उत्साह का संचार कर दें
तथा जन्म-मरण के चक्कर में फँसे मानव को मुक्ति का अनुभव करा दें - ऐसे केवल
सद्गुरु ही होते हैं । वे उँगली पकडकर, अंधकारमय गलियों से बाहर निकालकर
खेल-खेल में, हास्य-विनोद में शिष्य को परमात्म-प्राप्तिरूपी
यात्रा पूर्ण करा देते हैं ।
(लोक
कल्याण सेतु : अप्रैल २००२)
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