गऊमाँ से होगा निरोगी भारत का पुन:निर्माण
            इस पृथ्वी पर ८४ लाख प्रकार के जीव-जन्तु हुए हैं, परन्तु वनस्पतियों की संख्या का वास्तविक गणित नहीं है। इन सभी के शरीर में केवल पांच यौगिक तत्व हैं।
१) भूमि,
२) जल,
३) वायु,
४) अग्नि और
५) आकाश।
                 इतना ही नहीं ; हमारी आंखों से दिखलाई देने वाला कोई भी वस्तु इन्हीं पांच तत्वों के संयोग से बना होता है। पुराणों ने स्पष्ट कहा है। क्षिती, जल, पावक, गगन, समीर पंच रत्न यह बना शरीर। अत: इस शरीर में इन पांच को छोड़कर कुछ और खोजना गोबर के कंडे में घृत सुखाना जैसा है।

                        हमारे शरीर में जब कोई बिमारी होती है उससे पहले इन्हीं पांच तत्वों का आपसी संतुलन बिगड़ता है। इस संतुलन को फिर से बनाना ही चिकित्सा है। आयुर्वेद में सदियों से यही होते आया है। वनस्पितियों को आधार मानकर शरीर में पंचमहाभूत के संतुलन को बनाया जाता है। यही कारण है कि आयुर्वेद जब तक अपने रास्ते पर था सभी रोग साध्य होते थे। अब, जब से एलोपैथी के रास्ते पर गया है, अपनी गरिमा और शक्ति को खोया है।

                      पंचगव्य चिकित्सा विज्ञान में यही कार्य गौमाता के गव्यों से किया जाता है। गऊमाता का गोबर इस सृष्टि का शुद्ध मिट्टी तत्व है। अत: जब भूमि तत्व का संतुलन शरीर में बिगड़ता है तब गौमाता हमें गोबर के रूप में औषधी प्रदान करती है। जब हमारे शरीर के जल तत्व का संतुलन बिगड़ जाए तब गोमाता के दूध को औषध के रूप में सेवन हैं। इसी प्रकार जब वायु तत्व का असंतुलन हो तब गौमूत्र पिया जाता है। इस प्रकार गौमाता हमारे शरीर के पांच में से तीन तत्वों के असंतुलन को सीधे सीधे अपने गव्यों से संतुलित करती है। इसके अलावा शरीर में दो और तत्व और हैं। १) अग्नि २) आकाश। दूध में अग्नि की खोज हमारे महर्षियों ने आदि काल में ही कर लिया था। दूध से दही बनाना और दही को मथकर उसमें से मक्खन निकालना। फिर मक्खन से जल को वाष्पिकृत कर घृत निकालने की कला खोजी गई थी। प्रकृति की यह सबसे बड़ी खोज थी। जिसे हमारे पुराणों में क्षीर सागर के मंथन से दर्शाया गया है। घृत ही इस सृष्टि का शुद्ध अग्नि तत्व है। आकाश तत्व जिसे विज्ञान नहीं मानता, इसका संतुलन गऊमाँ द्वारा उत्पन्न ध्वनि (माँ ), दही मंथन प्रक्रिया से निकले हुए ध्वनि आदि से होता है। यह आकाशीय संतुलन ही हमारे मन की चेतना को संतुलित रखती है।

                 अंगरेजों के समय तक के भारत में सभी लोगों का जीवन गाय और उनके गव्यों पर आधारित था। दूध, घृत और छाछ का सेवन सीधे सीधे करते थे। गोबर और गौमूत्र का सेवन कृषि कर्म से उगे अनाज, फल, फूल और सब्जियों के माध्यम से करते थे। इस प्रकार शरीर में पाये जाने वाले पांचों महाभूतों में कोई कमी नहीं होती थी। लोग कभी बिमार नहीं पड़ते थे।

                       अब ; जैसे जैसे हमारा जीवन इन पांच महाभूत से हटकर कार्बन आधारित भोजन और अप्राकृत्य (अन्टीबायोटिक) ड्रग्स से जुड़ता जा रहा है वैसे वैसे शरीर के पांचों महाभूतों का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। यही कारण है कि आजकल छोटी उम्र में ही मधुमेह जैसी बिमारियां हो रही है। ऐसे किसी भी प्रकार के असंतुलन को गाय के गव्यों से सही किया जा रहा है।

                   इसकी जांच की क्रिया में भारत का पौराणिक नाड़ी नाभी विज्ञान सहायक सिद्ध हो रहा है। नाड़ी ज्ञान वेâ माध्यम से शरीर के असंतुलन की जानकारी लेकर यदि गव्य आधारित चिकित्सा की जाए तो निश्चित रूप से मनुष्य शरीर के सभी असंतुलन मिट रहे हैं। इसकी आधिकारित पढ़ाई कांचीपुरम (तमिलनाडु) स्थित पंचगव्य गुरुकुलम ने वर्ष २०१२ में शुरु किया था। पंचगव्य चिकित्सा विज्ञान में जांच की क्रिया नाड़ी और नाभी विज्ञान आधारित है जिसके कारण चिकित्सा का खर्च बहुत कम होता है।

                       पंचगव्य चिकित्सा विज्ञान की मुख्य उपलब्धियों में थैलिसिमिया के रोगी का पूर्ण रूप में साध्य होना। दो वर्षों तक पंचगव्य के सेवन से मधुमेह रोग का जड़ से समाप्त होना, केनसर जिसे अभी तक असाध्य माना जाता रहा इस क्षेत्र में भी उपलब्धियां प्राप्त हो रही है। अभी तक के प्रयासों से लगभग सभी असाध्य कहे जाने वाले रोग साध्य हुए हैं।


                           इसलिए यदि हमने अपने जिले की गोमाता की जाति को बचा लिया तो आने वाले समय में उनके गव्यों से सभी रोगों की चिकित्सा हो पाएगी। पंचगव्य चिकित्सा विज्ञान में गऊमाता का स्थानीय होना जरुरी होता है।
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