दुःख को बना लें भगवद्-स्मरण का बहाना।
संत
विनोबाजी भावे के जीवन के प्रारम्भिक ९ साल गागोदे गाँव (महा.) में बीते थे । कई
वर्षों बाद १९३५ में पुनः उस गाँव में उनका जाना हुआ । एक रात पास के मंदिर में
गाँव के लोग संत तुकारामजी के अभंग गा रहे थे । विनोबाजी भी चुपचाप वहाँ जाकर बैठ
गये । उन्होंने देखा कि ‘ये लोग कितने दरिद्र हैं ! पुरुषों के
शरीर पर लँगोट के सिवाय दूसरा कपड़ा नहीं, हड्डियाँ दिख
रही हैं, फिर भी भगवद्-भजन में रसमय होकर तल्लीन हैं !’
विनोबाजी
का हृदय प्रसन्नता से भर गया और वे सोचने लगे कि ‘इस गाँव में
विद्यालय नहीं, पढ़े-लिखे लोग नहीं, खाने
को भरपेट भोजन, पहनने को कपड़े व सिर पर ऊँची छत नहीं, फिर
भी यहाँ के लोग कितनी निश्चिंतता से भगवद्-भजन व सुमिरन में तल्लीन हैं ! इनके
इतने अभावग्रस्त जीवन में भी संतोष, प्रसन्नता व
शांति कैसे ?’
तब
उनके हृदय-पटल पर संतों का जीवन अंकित हो आया कि ‘तुकारामजी के घर
पर भी अत्यंत दारिद्रय था परंतु फिर भी वे कहते थे : ‘‘हे
भगवान ! दुःख नहीं होता तो तेरा स्मरण भी नहीं होता ।” दुःखों
को भी ऐसे संतों ने भगवान के स्मरण का एक बहाना बना के जीवन को कितना भक्तिमय, आनंदमय
बना लिया था !
संतों
की पावन स्मृति और उनकी अनुभव-वाणी स्वरूप भक्ति-ज्ञानसम्पन्न भजन-सत्संग का ही
प्रभाव है कि आज भी इन गरीबों की बुद्धि भगवान में लगी है और इतनी मुश्किलें होने
पर भी ये उनके बोझ से दबते नहीं और संतों का मधुर चिंतन कर आनंद से जीते हैं । सच
में, यह भक्ति की शक्ति ही है कि भारत के इन लोगों के चेहरों पर आज भी
हास्य-चमक व चित्त में प्रसन्नता टिक पाती है ।’
भारत
केवल कृषि भूमि ही नहीं बल्कि ऋषि भूमि भी है । ऋषि-मुनियों एवं संतों-महापुरुषों
के भक्ति, उपासना व ज्ञान से ओतप्रोत पावन संस्कारों की
धारा आज भी भारत के कण-कण में, जन-जन में प्रवाहित हो रही है । धन्य
है भारतीय संस्कृति ! धन्य हैं भारत के ब्रह्मज्ञानी संत, जिनके
जीवन व ज्ञान का अनुसरण करनेवालों के जीवन में भी हर हाल में प्रसन्न रहने की कला
आ जाती है ।
प्रतिकूलताओं
को हटाने और अनुकूलताओं को पाने में लगे ऐ मानवी मन ! तू अपनी यह डिग्रियाँ पाने, धन
इकट्ठा करने, आलीशान मकान बनाकर बाहर से रस पाने की अंतहीन
दौड़ छोड़ के इस मेहनत-मशक्कत का सौवाँ हिस्सा ही इस ऋषि भूमि की सहज सुलभ, अत्यधिक
मधुर रसधारा के एक चुल्लू का आस्वाद लेने में लगा दे तो तेरा मनमानी भागदौड़ का नशा
उतरने लगेगा । हे मन ! तू फिर-फिर से ये चुल्लू भरता जा ताकि इस अंतहीन दौड़ का अंत
आ जाय ।
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