संवत्सर पूजन एवं संवत्सरारंभपर ध्वजा खडी करनेका शास्त्र
देखिये : हिन्दू नववर्षारंभ मनाने की पद्धति
१. वर्षारंभके दिन ब्रह्मांडसे प्रक्षेपित तरंगें ग्रहण करनेके लिए आवश्यक कृत्य
         सतत ईश्वरका स्मरण करना, गुरु तथा ईश्वरके प्रति दृढ श्रद्धा रखना, प्रत्येक कृत्य भाव सहित करना ।
२. नववर्षदिन मनाने हेतु पूर्वायोजन करना
         किसी भी शुभकार्यके समय, धार्मिक विधि करना हो, तो प्रत्येक उत्सव, त्यौहार एवं व्रतके दिन घर-आंगनकी स्वच्छता करना, रंग-रोगन करना, घरके प्रवेशद्वारको सजाना, बंदनवार लगाना, प्रवेशद्वारकी चौखटपर स्वस्तिकादि शुभचिह्नकी रचना करना, आंगनमें रंगोली बनाना आदि कृत्य सनातन हिंदु धर्मके अनुसार अत्यावश्यक हैं । इन कृत्योंद्वारा घरके सर्व ओरके वातावरणको सात्त्विक एवं चैतन्यमय बनाया जाता है, जिससे वह विशेष पर्व मनानेसे आध्यात्मिक स्तरपर सभीको उचित लाभ मिलता है । सनातन हिंदु धर्मशास्त्रमें संवत्सरारंभ, वसंतोत्सवका प्रारंभ दिन, दीपावलीके ३ दिन अर्थात नरकचतुर्दशी, लक्ष्मीपूजनका दिन एवं बलिप्रतिपदाका दिन, इन पांच दिनोंपर विशेष रूपसे साभ्यंगस्नान अर्थात अभ्यंगस्नान करनेका महत्त्व बताया है ।
३. अभ्यंगस्नान एवं उसके लाभ


         अभ्यंगस्नान अर्थात शरीरको तेल लगाकर, अंगमर्दन कर, उसे त्वचामें सोखने देकर तदुपरांत गुनगुने जलसे स्नान करना । अभ्यंगस्नानके कारण रज-तम गुण एक लक्षांश कम होता है एवं सत्त्वगुण उसी मात्रामें बढता है । नित्यके स्नानका प्रभाव तीन घंटोंतक रहता है, जबकि अभ्यंगस्नानका प्रभाव चारसे पांच घंटोंतक रहता है । त्वचामें सदैव स्निग्धता बनाए रखनेके लिए तेल लगाना चाहिए । तेल लगाकर स्नान करनेसे त्वचा एवं केशमें जितनी आवश्यक है, उतनी ही चिकनाहट बनी रहती है । इसलिए स्नानसे पूर्व तेल लगाना आवश्यक है । स्नानोपरांत तेल लगाना उचित नहीं । गुनगुना जल मंगलकारी एवं शरीरके लिए सुखदायक होता है । इसलिए गुनगुने जलसे स्नान बताया गया है । अभ्यंगस्नान करते समय देशकालकथन किया जाता है ।
४. देशकालकथन करनेका महत्त्व
         देशकालकथन करते समय ब्रह्मदेवके जन्मसे लेकर अबतक ब्रह्मदेवके कितने वर्ष हुए, किस वर्षका कौनसा एवं कितना मन्वंतर चल रहा है, इस मन्वंतरके कितने महायुग तथा उस महायुगका कौनसा उपयुग चल रहा है, इन सबका उल्लेख रहता है । इस प्रकार देशकालकथन करनेसे इसके पूर्व कितना दीर्घ काल बीत चुका है एवं शेष काल भी कितना दीर्घ है, यह बोध होता है । इससे विश्वके प्रचंड कालका एवं उसकी तुलनामें अपनी लघुताका हमें भान होता है । तथा हमारा अहं नष्ट होनेमें सहायता मिलती है । वर्षप्रतिपदाके दिन संवत्सरपूजन करनेका शास्त्र है ।

५. संवत्सर पूजन
         वर्षप्रतिपदाके दिन प्रथम नित्यकर्म देवपूजा करते हैं । उसके उपरांत महाशांति करते हैं । शांतिके प्रारंभमें विश्वकी निर्मिति करनेवाले ब्रह्मदेवकी पूजा की जाती है । पूजामें उन्हें तेज सुगंधके पत्तोंवाला दौना चढाते हैं । दौना शीतलता प्रदान करता है । चंदन एवं दौनेमें शीतलता प्रदान करनेकी समान क्षमता होती है; परंतु चंदन जबतक नम अर्थात् गीला हो, तबतकही शीतलता दे सकता है, जबकि दौना दिनभर शीतलता प्रदान करता है । पूजाके उपरांत होमहवन तथा यथासंभव ब्राह्मणोंको भोजन, दान एवं दक्षिणा दी जाती है । इसके उपरांत अनंत रूपोंमें अवतरित होनेवाले भगवान श्रीविष्णुकी पूजा करते हैं । तत्पश्चात् ब्राह्मणोंको दक्षिणा देते हैं । संभव हो, तो ब्राह्मणको ऐतिहासिक अथवा पौराणिक ग्रंथोंका दान देते हैं । संवत्सरारंभपर देवताके आशीर्वाद प्राप्त होने हेतु एवं ब्रह्मांडसे प्रक्षेपित तरंगें ग्रहण होने हेतु प्रार्थना करनेका विशेष महत्त्व है ।  हे ईश्वर, आज आपसे प्रक्षेपित शुभाशीर्वाद एवं ब्रह्मांडसे प्रक्षेपित सात्त्विक तरंगें मैं अधिकाधिक ग्रहण कर पाऊं । आप ही मुझे इन सात्त्विक तरंगोंको ग्रहण करना सिखाएं, यही आपसे प्रार्थना है ।
५.१ चैत्र शुक्ल प्रतिपदाके दिन संवत्सरपूजन करनेसे होनेवाले लाभ
अ. सर्व पापोंका नाश होता है,
आ. आयुमें वृद्धि होती है,
इ. विवाहित स्त्रियोंके सौभाग्यकी वृद्धि होती है,
ई. धन-धान्यकी समृद्धि होती है,
उ. शांतिकी अनुभूति होती है ।
इस प्रकार ब्रह्मदेवके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए, सभीकी मंगलकामना एवं सुरक्षाके लिए संवत्सरपूजन किया जाता है । इस तिथिको जो दिन होता है, उस दिनके देवताका भी पूजन करते हैं ।
५.२ चैत्र शुक्ल प्रतिपदाको जो दिन होता है, उस दिनके देवताका भी पूजन करते हैं ।
अ. सोमवार, सोम का अर्थ है, चंद्र । इनके देवता हैं, शंकर
आ. मंगलवारके देवी-देवता हैं, पार्वती, लक्ष्मी, श्री गणपति एवं हनुमान
इ. बुधवार के पांडुरंग
ई. गुरुवारके दत्तात्रेय देवता
उ. शुक्रवारके पार्वती एवं लक्ष्मी
ऊ. शनिवारके हनुमान
ए. रविवारके रवि अर्थात सूर्य
संवत्सरपूजनके उपरांत गुडी खडी करते हैं । धर्मशास्त्रमें इसे ब्रह्मध्वजकहा गया है । कुछ लोग इसे इंद्रध्वजभी कहते हैं ।
६. संवत्सरारंभपर ध्वजा खडी करनेका शास्त्र
        देवासुर संग्राममें श्रीविष्णुने देवसैनिकोंको युद्धके प्रत्येक स्तरपर लाभान्वित करनेके लिए युद्धमें जानेसे पूर्व, युद्धके समय एवं युद्धसमाप्तिपर विविध प्रकारकी ध्वजा ले जानेके लिए बताया । देवताओंके विजयी होनेपर देवसैनिकोंने सोनेकी लाठीपर रेशमी वस्त्र लगाकर उसपर सोनेका कलश रखा । इस प्रकार ध्वजा खडी करनेसे ध्वजाद्वारा संपूर्ण वातावरणमें चैतन्य प्रक्षेपित होता है । इस चैतन्यका उस वातावरणमें विद्यमान जीवोंपर भी प्रभाव पडता है । स्वर्गलोकका वातावरण सात्त्विक एवं चैतन्यमय होता है । इस कारण धर्मध्वजाको केवल वस्त्र लगानेसेही धर्मध्वजामें उच्च लोकोंसे प्रक्षेपित तरंगें आकृष्ट होती हैं । इनका देवताओंको लाभ होता है । धर्मध्वजामें विद्यमान देवतातत्त्वका सम्मान करनेके लिए कभी-कभी उसे पुष्पमाला अर्पण करते हैं । पृथ्वीका वातावरण रज-तमात्मक होता है । साथही पृथ्वीवासियोंमें ईश्वरके प्रति भाव भी अल्प होता है । उन्हें धर्मध्वजाका लाभ मिले, इसलिए धर्मध्वजाको नीमके पत्ते एवं शक्करके पदकोंकी माला लगाई जाती हैं । स्वर्गलोककी धर्मध्वजामें पृथ्वीकी गुडीकी अपेक्षा २० प्रतिशत अधिक मात्रामें चैतन्य ग्रहण होता है । उसके प्रक्षेपणकी मात्रा भी १० से १५ प्रतिशत अधिक होती है ।
(संदर्भ सनातनका ग्रंथ त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत)