फिर इन्द्र का पद भी नन्हा लगेगा
              रजो-तमोगुण पापराशि हैं, ये संसार की तरफ खींचते हैं । आलस्य तमोगुण है, प्रमाद में खींचता है । रजोगुण काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य में खींचता है । सत्त्वगुण शांति देता है । भगवान ने कहा : स्वभावविजयः शौर्यम् ।
             नीचा स्वभाव होता है तो नीच कर्म करता है, नीच योनियों में जाता है और नीच फल भुगतता है । मध्यम स्वभाव है तो मध्यम योनियों में जाता है और सुख-दुःख के झपेटों में जूझता रहता है । उत्तम स्वभाव है तो देव योनि को प्राप्त होता है । अगर सद्गुरु मिल जायें और उनकी आज्ञा में चलकर अपने प्राकृत स्वभाव पर विजय पा ले तो इन तीनों से पार सोऽहंस्वभाव में जगकर पूर्ण हो जाता है । तामसी, राजसी, सात्त्विक स्वभाव - ये प्रकृति के अंतर्गत हैं । प्रकृति और स्वभाव बदलते रहते हैं फिर भी जो नहीं बदलता है, उस परमात्मा में विश्रांति मिल जाय । जो ब्रह्माजी को आनंद है, जो शिवजी को समाधि में शांति, आनंद है, भगवान पुंडरीकाक्ष ४-४ महीने योगनिद्रा में जिस परब्रह्म-परमात्मा में विश्रांति पाते हैं, उस परमेश्वर में विश्रांति पाना ऊँचे-में-ऊँची उपलब्धि है । उसके आगे यह जगत तो क्या स्वर्ग भी कोई मायना नहीं रखता है, ऐसी परमात्म-विश्रांति की महिमा है ! परमात्म-विश्रांति फिर परमात्मा से अलग नहीं होने देगी ।
               जैसे परमात्मा अनंत ब्रह्मांडों में व्याप रहे हैं, ऐसे ही आप भी अनंत ब्रह्मांडों में व्याप रहे हैं । परमात्मा में और आपमें कोई फर्क नहीं । जैसे तरंग कितनी भी बडी हो जाय फिर भी समुद्र नहीं हो सकती लेकिन तरंग अपने को पानी मान ले, जान ले तो वह अभी समुद्र है । ऐसे ही जीव कितना भी बडा हो जाय, ईश्वर नहीं हो सकता है लेकिन जीव अपने को सच्चिदानंद-स्वरूप मान ले, अपनी असलियत पहचान ले तो ईश्वर का जहाँ से ईश्वरत्व होता है, जीव का जहाँ से जीवत्व होता है, वही ब्रह्म स्वयं अभी है ।
                  ब्राह्मी स्थिति ऐसी ऊँची है कि इन्द्र का पद भी हमारे को नन्हा लगेगा । तुच्छ होता है जीव का पद लेकिन ईश्वर का पद भी सामान्य लगेगा । जीव और ईश्वर में फर्क क्या है ? प्रकृति के आकर्षणों से आकर्षित होकर जीने की इच्छा रखता है वह चैतन्य जीव कहलाता है और जो अपनी महिमा को जानता है तथा माया को वश करता है, वह चैतन्य ईश्वर कहलाता है लेकिन मूल चैतन्य दोनों का ब्रह्म है ।
                  जैसे मिट्टी के घडे में आया हुआ आकाश घटाकाशकहलाता है, मठ में आया हुआ आकाश मठाकाशकहलाता है । घडे में कोई बैठा है तो अंदर के आकाश को ही जानेगा, बाहर का पता नहीं चलेगा लेकिन काँच की केबिन में बैठे हैं तो अंदर का आकाश भी दिखता है और बाहर का आकाश काँच में से आर-पार दिखता है । ऐसे ही जो माया-विशिष्ट चैतन्य है, उस ईश्वर को भूत, भविष्य, वर्तमान आर-पार दिखता है और जीव बेचारे को पता नहीं कि अभी के संकल्प के बाद कौन-सा संकल्प आयेगा । जीने की इच्छा, अविद्या और कर्म के प्रभाव से जिसका जन्म होता है वह जीवात्मा; माया को वश करके सृष्टि की लीला करता है तो वह परमात्मा लेकिन चैतन्य दोनों एक । दूध बेचनेवाले अथवा दातुन बेचनेवाले के घर के बाथरूम में जो बल्ब जल रहा है और राष्ट्रपति के पूजाघर में जो सुंदर लाइटिंग है, बिजली-घर (पावर हाउस) की बिजली दोनों घरों के उपकरणों में वही-की-वही है । झोंपडे और राष्ट्रपति भवन की उपाधि हटा दो तो आकाश झोंपडे में और उस भवन में वही-का-वही । ऐसे ही बाह्य उपाधि हटा लो तो ब्रह्म-परमात्मा सबमें वही-का-वही । जैसे आकाश सबमें वही-का-वही, ऐसे ही चित्ताकाश से परे चिदाकाश परमात्मा सबमें वही-का-वही, ऐसा जिसको साक्षात्कार हो जाता है वह पुरुष जीवन्मुक्त हो जाता है ।       

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