संत के अपमान से हुआ विनाश
                           काशीनरेश राजा चेतसिंह शिव मंदिर बनवाकर शिवलिंग की प्रतिष्ठा करा रहा था । महल में वेदपाठी ब्राह्मण वेद के चारों अंगों का पाठ कर रहे थे । नगर के गणमान्य नागरिकों के अलावा अनेक साधु-संत उपस्थित थे । चेतसिंह ने आदेश दे रखा था कि ‘‘ऐसे शुभ अवसर पर कोई अवांछनीय व्यक्ति समारोह में न आने पाये । एक बाबा के महल में प्रवेश करते ही चेतसिंह चिल्ला उठा : ‘‘यह नरपिशाच यहाँ कैसे आ गया ? बाहर निकालो इसे !
             सभी दरबारी भयभीत हो उठे, सामने बाबा कीनारामजी खडे थे । पहरेदार बाबा की ओर लपके, तभी बाबा ने राजा से कहा : ‘‘तूने मेरा अपमान किया ! इसका फल तुझे शीघ्र मिलेगा । तुझे भी इस महल से जल्द ही विदा होना पडेगा । राजा आग-बबूला हो गया । उसको क्रुद्ध देख पहरेदारों ने जबरन बाबा को घसीटना प्रारम्भ कर दिया ।
               ठीक उसी समय बाबा कीनाराम के प्रति गहरी आस्था रखनेवाले मुंशी सदानंद महल में प्रवेश कर रहे थे । वे बाबा को आदरपूर्वक उनके आश्रम में पहुँचा आये । मुंशी सदानंद को सारी बातें मालूम हुर्इं तो उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि जो कुछ हुआ, अनुचित हुआ । दूसरे दिन सदानंदजी बाबा के आश्रम में आये और राजा को क्षमा करने की प्रार्थना करने लगे । बाबा ने कहा : ‘‘अब जो बात जबान से निकल गयी है, वह होकर ही रहेगी । उसे अपनी बहादुरी का गर्व हो गया है । लेकिन मैं साफ देख रहा हूँ कि उसका पतन होनेवाला है ।
सदानंद ने कहा : ‘‘तब हम लोगों का क्या होगा ? मेरा अनुरोध है, आप राजा साहब को क्षमा कीजिये ।
बाबा ने कहा : ‘‘साधु का वचन कभी टलता नहीं । मैं तुम्हारे मनोभाव को समझ रहा हूँ । तुम्हारे वंश को कोई हानि न होगी ।
                जो अपनी शक्ति, अहंकार व योग्यता का दुरुपयोग करके महापुरुषों का अपमान करते हैं, वे कितने भी शक्तिशाली, महाप्रतापी क्यों न हों, देर-सवेर उनका पतन तो निश्चित ही है । अहंकारी राजा चेतसिंह का भी गर्व टूटा । शत्रु ने आक्रमण किया, राजा चेतसिंह को शिवाला के किले से भागना पडा । उसे व उसके परिवार को दर-दर की ठोकरें खानी पडीं । दूसरी ओर सदानंद का वंश सुरक्षित रहा । ब्रह्मज्ञानी संत-महापुरुषों का कोई अपमान करता है, उनसे द्वेष या ईष्र्या करता है तो प्रकृति संत-निंदक आदि को देर-सवेर सबक सिखा के ही रहती है । इतिहास इस बात का साक्षी रहा है । अतः ऐसे ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों के ईश्वरीय अनुभव व उनकी करुणा-कृपा को प्राप्त करके मनुष्य अपना जीवन धन्य न कर सके तो उनकी निंदा करके या सुन के खिन्न, अशांत जीवन जीने और मरने के बाद नरकगामी होने व अपने कुल की दुर्गति करने से तो बच ही सकता है ।       

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