संत एकनाथजी महाराज
                       एकनाथजी महाराजएकनिष्ठ गुरुभक्त थे । एकनाथजी का जन्म चैत्र कृष्ण षष्ठी वि.सं. १५९० (सन् १५३३) में हुआ था। उनके जन्म के कुछ समय पश्चात् ही उनके माता-पिता का देहावसान हो गया । तब उनके दादा चक्रपाणिजी ने उनका पालन-पोषण किया। एकनाथजी बाल्यकाल से ही बडे बुद्धिमान और श्रद्धावान थे। संध्या, हरि-भजन, पुराण-श्रवण, ईश्वर-पूजन आदि में उनकी बडी प्रीति थी। आनन्दमग्न होकर कभी-कभी हाथ में करताल लेकर अथवा कन्धे पर करछुल (भोजन परोसने के काम आनेवाला बर्तन) या ऐसी ही कोई चीज वीणा की भाँति रखकर वे भजन करते। कभी पत्थर सामने रखकर उस पर फूल चढाते व भगवन्नाम-संकीर्तन करते हुए नृत्य करते । जब गाँव में भागवत की कथा होती तब पूरी तन्मयता के साथ उसे सुनते । इतनी छोटी उम्र में भी वे त्रिकाल संध्या-वन्दन करना कभी चूकते नहीं थे। स्तोत्र-पाठ, प्रातः-सायं भगवान एवं गुरुजनों का वन्दन आदि नियम-निष्ठा में भी वे तत्पर रहते थे।
                    इन सबका परिणाम यह हुआ कि भगवत्प्रेम के रस से सराबोर उनके जीवन में भगवान के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान पाने की जिज्ञासा पैदा हुई। उनके बाल मन में बार-बार यह विचार आने लगा कि जैसे धु्रव और प्रह्लाद को भगवान की प्राप्ति करानेवाले सद्गुरु नारदजी मिले, वैसे समर्थ सद्गुरु मुझे कब मिलेंगे ?
                     एक दिन १२ वर्षीय एकनाथ शिवालय में हरिगुण गाते हुए बैठे थे। रात्रि का चौथा पहर शुरू होने पर उनके हृदय में आकाशवाणी हुई कि देवगढ में जनार्दन पंत नामक एक सत्पुरुष रहते हैं। उनके पास जाओ वे तुम्हें कृतार्थ करेंगे। एकनाथ देवगढ गये, वहाँ उन्हें श्री जनार्दन पंत के दर्शन हुए। गद्गद होकर एकनाथजी ने अपना शरीर गुरुचरणों में अर्पण किया। वे घिडयाँ संसार की सुवर्णतम घिडयाँ होती हैं जब सद्गुरु का सत्शिष्य से मिलन होता है क्योंकि इसी संगम से जनहित की पावन गंगा का उदय होता है।
                   गुरुद्वार पर रहकर एकनाथजी गुरुसेवा में लग गये। गुरु सोकर उठें इससे पहले वे जग जाते। जो सेवा सामने दिख जाती उसे आज्ञा की बाट जोहे बिना कर डालते । रात को गुरुजी के चरण दबाते, कभी पंखा झलते । गुरुजी जब समाधि लगाते तब वे द्वार पर खडे हो जाते । गुरुदेव की समाधि में किसी प्रकार का विक्षेप न हो इसका ध्यान रखते। गुरु-गृह में और भी कई सेवक थे पर एकनाथजी किसीकी राह न देखकर स्वयं ही बडे प्रेम, उत्साह व तत्परता से सेवाकार्यों में लगे रहते। उनके लिए गुरुजी का संतोष ही स्वसंतोष था, गुरुजी के शब्द ही शास्त्र थे, गुरुद्वार ही नंदनवन था तथा गुरुजी की मूर्ति ही परमेश्वर-विग्रह था। गुरुर्साक्षात् परब्रह्म में उनकी दृढ निष्ठा थी । लगातार छः वर्षों तक की अविराम सेवा से प्रसन्न होकर एक दिन गुरुजी ने उन्हें अनुष्ठान करने की आज्ञा दी। उसे शिरोधार्य कर एकनाथजी अनुष्ठान में लग गये।
                     एक दिन वे समाधि लगाये हुए थे। एक भयंकर काला सर्प फुफकारता हुआ उनके बदन से लिपट गया। एकनाथजी के स्पर्श से वह हिंसक भाव भूल गया व उनके मस्तक पर फन फैलाकर झूमने लगा। जिनका चित्त सम हो गया है, उनके आगे साँप, बिच्छू, चीता, शेर आदि qहसक प्राणी भी क्रूरता भूलकर आनन्दमग्न होने लगते हैं। स्वामी रामतीर्थजी का जीवन भी इस बात की गवाही देता है।
                    वह साँप फिर एकनाथजी का संगी ही बन गया। वह नित्य एकनाथजी के पास आने लगा। जब वे समाधि लगाते तब वह उनके शरीर से लिपटकर मस्तक पर फन फैलाकर झूमने लगता तथा उनके समाधि से जगने के संकेत मिलते ही चला जाता। एकनाथजी को इसकी कोई खबर नहीं थी। उनके लिए दूध लेकर आनेवाले किसान ने एक दिन एकनाथजी से लिपटे साँप को देख लिया और चीख पडा। शीघ्र ही एकनाथजी समाधि से उठे तथा साँप को जाते हुए देखा।
                      इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए एकनाथजी ने एक अभंग लिखा : हमें दंश करने को काल आया पर आते ही कृपालु हो गया। यह अच्छी जान-पहचान हो गयी। इससे चित्त अच्युत में जा मिला। देह में जो सन्देह था वह दूर हो गया और काल से अवकाश हो गया। एका (एकनाथजी) की जनार्दन से जो भेंट हुई उससे आने-जाने के चक्कर से ही छुट्टी मिल गयी।
                अनुष्ठान पूरा करके सब हाल गुरु को कह सुनाया। खूब प्रसन्न होकर गुरुजी ने उन पर आशीर्वाद के पुष्प बरसाये। उन्हें यह समझते देर न लगी कि अब मेरा एका निद्र्वन्द्व नारायण में पूर्णतया प्रतिष्ठित हो चुका है। इसके बाद एकनाथजी एकनाथजी महाराज के रूप में पूजित हुए । उन्होंने एकनाथी भागवत जैसे ग्रंथ द्वारा समाज में परमात्म-रस की धारा प्रवाहित की। वे कहते हैं :
गुरु ही माता, पिता, स्वामी और कुलदेवता हैं। गुरु बिना और किसी देवता का स्मरण नहीं होता।
              शरीर, मन, वाणी और प्राण से गुरु का ही अनन्य ध्यान हो, यही गुरुभक्ति है। प्यास जल को भूल जाय, भूख मिष्टान्न को भूल जाय और गुरु-चरण-संवाहन करते हुए निद्रा भी भूल जाय। मुख में सद्गुरु का नाम हो, हृदय में सद्गुरु का प्रेम हो, देह में सद्गुरु का ही अहर्निश अविश्रान्त कर्म हो। गुरु-सेवा में ऐसा मन लगे कि स्त्री, पुत्र, धन भी भूल जाय, अपना मन भी भूल जाय, यह भी ध्यान न हो कि मैं कौन हूँ ?
सद्गुरु का सामथ्र्य और सत्सेवा का सुख कैसा है, इस विषय में एकनाथजी महाराज ने कहा :
                      ‘सद्गुरु जहाँ वास करते हैं वहीं सुख की सृष्टि होती है। वे जहाँ कहते हैं वहीं महाबोध (ब्रह्मज्ञान) स्वानन्द से रहता है। उन सद्गुरु के चरण-दर्शन होने से उसी क्षण भूख-प्यास चली जाती है । फिर कोई कल्पना ही नहीं उठती । अपना वास्तविक सुख गुरुचरणों में ही है ।
                      गुरुसेवा की महिमा गाते हुए वे अपना अनुभव बताते हैं : सेवा में ऐसी प्रीति हो गयी कि उससे आधी घडी भी अवकाश नहीं मिलता। सेवा में आलस्य तो रह ही नहीं गया क्योंकि इस सेवा से विश्रान्ति का स्थान ही चला गया। प्यास जल भूल गयी, भूख मिष्टान्न भूल गयी। जम्हाई लेने की भी फुरसत नहीं रही। सेवा में मन ऐसे रम गया कि एका जनार्दन की शरण में लीन हो गया ।

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