ऐसे संतों के पास तीन प्रकार के लोग आते हैं- दर्शक, विद्यार्थी और साधक।
                           दर्शक अर्थात् ऐसे लोग जो केवल दर्शन करने और यह देखने के लिए आते हैं कि संत कैसे हैं, क्या करते हैं, क्या कहते हैं। उपदेश भी सुन तो लेते हैं पर उसके अनुसार कुछ करना है इसके साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। आगे बढ़ने के लिए उनमें कोई उत्साह नहीं होता।
                        विद्यार्थी अर्थात् वे जो शास्त्र एवं उपदेश सम्बन्धी अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए आते हैं। अपने पास जो जानकारी है उसमें और वृद्धि होवे ताकि दूसरों को यह सब सुनाकर अपनी विद्वत्ता की छाप उन पर छोड़ी जा सके। दूसरों से सुना, याद रखा और जाकर दूसरों को सुना दिया। जैसे 'गुड्स ट्रान्सपोर्ट कम्पनी प्राईवेट लिमिटेड'- यहाँ का माल वहाँ और वहाँ का माल यहाँ, लाना और ले जाना। ऐसे लोग भी तत्त्व समझने के मार्ग पर चलने का परिश्रम उठाने को तैयार नहीं।
                         तीसरे प्रकार के लोग होते हैं साधक। ये ऐसे लोग होते हैं कि जो साधनामार्ग पर चलने को तैयार होते हैं। इनको जैसा बताया है वैसा करने को पूर्णरूप से कटिबद्ध होते हैं। अपनी सारी शक्ति उसमें लगाने को तत्पर होते हैं। उसके लिए अपना मान-सम्मान, तन-मन-धन, सब कुछ होम देने को तैयार होते हैं। संत के प्रति और अपने ध्येय के प्रति इनमें पूर्ण निष्ठा होती है। ये लोग फकीर अथवा संत के संकेत के अनुसार लक्ष्य की सिद्धि के लिए साहसपूर्वक चल पड़ते हैं।
                        विद्यार्थी अपने व्यक्तित्व का श्रृंगार करने के लिए आते हैं जबकि साधक व्यक्तित्व का विसर्जन करने के लिए आते हैं। साधक अपने लक्ष्य की तुलना में अपने व्यक्तित्व या अपने अहं का कोई भी मूल्य नहीं समझते। जबकि विद्यार्थी के लिए अपना अहं और व्यक्तित्व का श्रृंगार ही सब कुछ है। अपनी विद्वता में वृद्धि, जानकारी को बढ़ाना, व्यक्तित्व को और आकर्षक बनाना इसी में उसे सार दिखता है। तत्त्वानुभूति की तरफ उसका कोई ध्यान नहीं होता।
                         यही कारण है कि संतों के पास आते तो बहुत लोग हैं, परन्तु साधक बनकर वहीं टिक कर तत्त्व का साक्षात्कार करने वाले कुछ विरले ही होते हैं।
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