कपट का फल
दक्ष प्रजापति की कद्रू (सर्पों की माता) और विनता (गरुड़  की माता) नामक पुत्रियाँ थीं । समुद्र-मंथन से उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला था । कद्रू ने विनता से पूछा : ‘‘भद्रे ! वह घोड़ा किस रंग का है ?”
विनता : ‘‘वह श्वेत वर्ण का है । तुम भी उसका रंग बताओ ?”
कद्रू : ‘‘(रंग तो सफेद है पर) उसकी पूँछ काली है ।
दोनों ने शर्त रखी कि जो हारेगा उसे जीतनेवाले की दासता स्वीकार करनी होगी ।
कद्रू कुटिलता और कपट से काम लेना चाहती थी । उसने पुत्रों (सर्पों) को आज्ञा दी कि ‘‘तुम काले रंग के बाल बनकर उस घोड़े की पूँछ में लग जाओ ।कुछ नागों ने वैसा ही किया ।
सुबह दोनों बहनें घोड़े को देखने निकट गयीं । पूँछ को काली देख विनता हार गयी और कद्रू ने उसे अपनी दासी के काम में लगा दिया ।
एक दिन गरुड़ ने पूछा : ‘‘हे सर्पो !तुम्हें क्या लाकर दूँ जिससे मुझे तथा मेरी माता को तुम्हारी दासता से छुटकारा मिल जाय ?”
सर्प : ‘‘अमृत ला दो तो तुम्हें दासता से मुक्ति मिल जायेगी ।
माता का आशीर्वाद ले गरुड़ स्वर्गलोक पहुँचे । वहाँ उन्होंने बहुत पराक्रम करके देवताओं से अमृत ले लिया पर स्वयं नहीं पिया । जब वे लौट रहे थे तो भगवान विष्णु से भेंट हुई । गरुड़ के लोलुपतारहित पराक्रम से भगवान बहुत प्रसन्न हुए और बोले : ‘‘मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ ।
गरुड़: ‘‘प्रभो ! मैं आपके ऊपर (ध्वज में) स्थित होऊँ और बिना अमृत पिये ही अजर-अमर हो जाऊँ ।
‘‘एवमस्तु । (ऐसा ही हो ।)
‘‘देव ! मैं भी आपको वर देना चाहता हूँ ।
श्रीहरि ने गरुड़ को अपना वाहन बनने का वर माँगा ।
गरुड़ ने एवमस्तुकहकर उड़ान भरी ।
इन्द्र ने गरुड़ के बल को देखकर उनसे मित्रता कर ली और कहा : ‘‘यदि तुम्हें अमृत की आवश्यकता नहीं है तो मुझे वापस दे दो ।
गरुड़: ‘‘किसी कारणवश मैं अमृत ले तो जा रहा हूँ पर किसीको पीने नहीं दूँगा । मैं इसे जहाँ रख दूँ, वहाँ से आप तुरंत उठा ले जा सकते हो ।
इन्द्र : ‘‘मैं तुम्हारी बात से बहुत संतुष्ट हूँ । जो चाहो वर माँग लो ।
‘‘सर्प मेरे भोजन की सामग्री हो जायें ।
‘‘तथास्तु ।
गरुड़जी ने सर्पों से कहा : ‘‘पन्नगो ! मैंने अमृत ला दिया है और कुश के आसन पर रखा है । तुम लोग स्नानादि करके इसका पान करो । अब मेरी माता दासित्व से मुक्त हो जायें ।
सर्पगण तथास्तुकहकर स्नान के लिए गये । इसी बीच इन्द्र आकर अमृत उठा ले गये ।
सर्पों ने लौटकर देखा तो मन मारकर रह गये । यह हमारे कपटपूर्ण बर्ताव का बदला है । जहाँ अमृत रखा था, सम्भव है कुछ अंश वहाँ लगा हो’, यह सोच के सर्पों ने कुशों को चाटा तो उनकी जीभ के दो भाग हो गये । तभी से अमृत के स्पर्श से कुशों की पवित्रीसंज्ञा हो गयी ।
गरुड़ प्रसन्न हो माता के साथ रहने लगे और पक्षियों से सम्मान पाने लगे । छल-कपट से कार्य करनेवाले का मूल तो जाता ही है, साथ में ब्याज भी देना पड़ता है । सर्पों को अमृत तो नहीं मिला, उलटा अपनी जीभ कटवानी पड़ी, मुँह की खानी पड़ी, अपमानित होना पड़ा और गरुड़ से हमेशा के लिए दुश्मनी मोल ले ली ।
कपट गाँठ मन में नहीं सब सों सरल सुभाव ।

नारायण वा भगत की लगी किनारे नाव ।।