अखंड सौभाग्य देने वाला वटसावित्री व्रत।

             वटसावित्री पर्व नारी-सशक्तिकरण का पर्व है, जो को अपने सामर्थ्य की याद दिलाता है। यह आत्मविश्वास व दृढ़ता को बनाये रखने की प्रेरणा देता है, साथ ही ऊँचा दार्शनिक सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि हमें अपने मूल आत्म-तत्त्व की ओर, आत्म-सामर्थ्य की ओर लौटना चाहिए।
वटवृक्ष की महत्ता
भारत के महान वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र बसु न क्रेस्कोग्राफ संयंत्र की खोज कर यह सिद्ध कर दिखाया कि वृक्षों में भी हमारी तरह चैतन्य सत्ता का वास होता है। इस  खोज से भारतीय संस्कृति की वृक्षोपासना के आगे सारा विश्व नतमस्तक हो गया।
                            वटवृक्ष विशाल एवं अचल होता है। हमारे अनेक ऋषि-मुनियों ने इसकी छाया में बैठकर दीर्घकाल तक तपस्याएँ की हैं। यह मन में स्थिरता लाने में मदद करता है एवं संकल्प को अडिग बना देता है। इस व्रत की नींव रखने के पीछे ऋषियों का यह उद्देश्य प्रतीत होता है कि अचल सौभाग्य एवं पति की दीर्घायु चाहने वाली महिलाओं को वटवृक्ष की पूजा उपासना के द्वारा उसकी इसी विशेषता का लाभ मिले और पर्यावरण सुरक्षा भी हो जाय। हमारे शास्त्रों के अनुसार वटवृक्ष के दर्शन, स्पर्श, परिक्रमा तथा सेवा से पाप दूर होते हैं तथा दुःख, समस्याएँ एवं रोग नष्ट होते हैं। 'भावप्रकाश निघंटु' ग्रंथ में वटवृक्ष को शीतलता-प्रदायक, सभी रोगों को दूर करने वाला तथा विष-दोष निवारक बताया गया है।
                            महान पतिव्रता सावित्री के दृढ़ संकल्प व ज्ञानसम्पन्न प्रश्नोत्तर की वजह से यमराज ने विवश होकर वटवृक्ष के नीचे ही उनके पति सत्यवान को जीवनदान दिया था। इसीलिए इस दिन विवाहित महिलाएँ अपने सुहाग की रक्षा, पति की दीर्घायु और आत्मोन्नति हेतु वटवृक्ष की १०८ परिक्रमा करते हुए कच्चा सूत लपेट कर संकल्प करती हैं। साथ में अपने पुत्रों की दीर्घायु  और उत्तम स्वास्थ्य के लिए भी संकल्प किया जाता है। वटवृक्ष की व्याख्या इस प्रकार की गयी है।
वटानि वेष्टयति मूलेन वृक्षांतरमिति वटे।
'जो वृक्ष स्वयं को अपनी ही जड़ों से घेर ले, उसे वट कहते हैं।'
                           वटवृक्ष हमें इस परम हितकारी चिंतनधारा की ओर ले जाता है कि किसी भी परिस्थिति में हमें अपने मूल की ओर लौटना चाहिए और अपना संकल्पबल, आत्म-सामर्थ्य जगाना चाहिए। इसी से हम मौलिक रह सकते हैं। मूलतः हम सभी एक ही परमात्मा के अभिन्न अंग हैं। हमें अपनी मूल प्रवृत्तियों को, दैवी गुणों को महत्त्व देना चाहिए। यही सुखी जीवन का  सर्वश्रेष्ठ उपाय है। वटसावित्री पर्व पर सावित्री की तरह स्वयं को दृढ़प्रतिज्ञ बनायें।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल

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