सत्त्व,
रजो एवं तमों गुण का प्रभाव।
भारत देश के
ऋषियों ने जो अदभुत खोजें की हैं, वैसी खोजें
विश्व में कहीं भी नहीं हुई हैं। मनुष्य का स्वभाव तीन गुणों के प्रभाव से संचालित
होता है। उनमें से रजो-तमोगुण मनुष्य को अत्यंत दुःखद अनुभव करवाकर उसके वर्तमान
जीवन को निकृष्ट बना देता है और फिर वृक्ष, पशु, पक्षी जैसी तुच्छ योनियों में ले जाता है। सत्त्वगुण वर्तमान जीवन को
दिव्य बनाता है और स्वर्ग एवं ब्रह्मलोक आदि उच्च लोकों में पहुँचाता है। इसमें भी
यदि ब्रह्मवेत्ताओं का प्रत्यक्ष सान्निध्य एवं सत्संग मिले तो तीनो गुणों से पार
अपने असली आनंदधन आत्मा को जानकर जीव जीवन्मुक्त हो सकता है।
चलो,
अब रजो-तमोगुण के कुप्रभाव एवं सत्त्वगुण के सुप्रभाव को निहारें।
तमोगुण : तमोगुणी
मानव वर्ग आलसी-प्रमादी होकर, गंदे विषय-विकारों का मन में संग्रह करके
बैठे-बैठे या सोते-सोते भी इन्द्रियभोग के स्वप्न देखता रहता है। यदि कभी
कर्मपरायण हों तो भी यह वर्ग हिंसा, द्वेष, मोह
जैसे देहधर्म के कर्म में ही प्रवृत्त रहकर बंधनों में बँधता जाता है। मलिन आहार, अशुद्ध
विचार और दुष्ट आचार का सेवन करते-करते तमोगुणी मानव पुतले को आलसी-प्रमादी रहते
हुए ही देहभोग की भूख मिटाने की जितनी आवश्यकता होती है उतना ही कर्मपरायण रहने का
उसका मन होता है।
रजोगुण : रजोगुणी
मनुष्य प्रमादी नहीं, प्रवृत्तिपरायण होता है। उसकी
कर्मपरंपरा की पृष्ठभूमि में आंतरिक हेतु रूप से काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, दंभ
आदि सब भरा हुआ होता है। सत्ताधिकार की तीव्र लालसा और देहरक्षा के ही
कर्म-विकर्मों के कंटकवृक्ष उसकी मनोभूमि में उगकर फूलते-फलते हैं। उसके लोभ की
सीमा बढ़-बढ़कर रक्त-संबंधियों तक पहुँचती हैं। कभी उससे आगे बढ़कर जहाँ मान मिलता
हो, वाहवाही या धन्यवाद की वर्षा होती है, ऐसे प्रसंगों
में वह थोड़ा खर्च कर लेता है। ऐसे रजोगुणी मनुष्य का मन भी बहिर्मुख ही कहलाता
है। ऐसा मन बड़प्पन के पीछे पागल होता है। उसका मन विषय-विलास की वस्तुओं को
एकत्रित करने में लिप्त होकर अर्थ-संचय एवं विषय-संचय करने के खेल ही खेलता रहता
है।
सत्त्वगुण : इन
दोनों ही वर्गों के मनुष्यों का मन स्वच्छंदी, स्वार्थी, सत्ताप्रिय, अर्थप्रिय
और मान चाहने वाला होता है और कभी-कभार छल-प्रपंच के समक्ष उसके अनुसार टक्कर लेने
में भी सक्षम होने की योग्यता रखता है। ऐसे मन की दिशा इन्द्रियों के प्रति, इन्द्रियों
के विषयों के प्रति और विषय भोगों के प्रति निवृत्त न होने पर भोगप्राप्ति के
नित्य नवीन कर्मों को करने की योजना में प्रवृत्त हो जाती है। ऐसा मन विचार करके
बुद्धि को शुद्ध नहीं करता अपितु बुद्धि को रजोगुण से रँगकर, अपनी
वासनानुसार उसकी स्वीकृति लेकर – ‘मैं जो करता हूँ वह ठीक ही करता हूँ‘ ऐसी
दंभयुक्त मान्यता खड़ी कर देता है।
ऐसे आसुरी भाव
से आक्रान्त लोगों का अनुकरण आप मत करना। राजसी व्यक्तियों के रजोगुण से अनेक
प्रकार की वासनाएँ उत्पन्न होती हैं अतः हे भाई ! सावधान रहना। रजो-तमोगुण की
प्रधानता से ही समस्त पाप पनपते हैं। जैसे हँसिया, चाकू, छुरी, तलवार
आदि भिन्न-भिन्न होते हुए भी उनकी धातु लोहा एक ही है ऐसे ही पाप के नाम
भिन्न-भिन्न होने पर भी पाप की जड़ रजो-तमोगुण ही है।
संसार में बहुमत ऐसे वर्ग का ही है।
ऐसा वर्ग प्रवृत्तिपरायण कहलाता है। इसके कर्म में मोक्षबुद्धि नहीं होती। अतः यदि
इस वर्ग को स्वतंत्र रूप से व्यवहार करने दें तो समाज में ऐसी अव्यवस्था उठ खड़ी
होती है जिसके फलस्वरूप सर्वत्र स्वार्थ और दंभरूपी बादल छा जाते हैं, कपट
एवं प्रपंच की आँधी चलने लगती है तथा सर्वत्र दुःख और विपत्तियों के प्रहार होने
से प्रजा त्राहि-त्राहि पुकार उठती है। ये दो वर्ग ही यदि परस्पर टकराने लगे तो
हिंसा, द्वेष, स्वार्थ और भोगबुद्धि के कर्मों में ही प्रजा
लिप्त रहने लगती है और युद्ध की नौबत आ जाती है। प्रत्येक युग एवं प्रत्येक देश
में ऐसे ही संहार होता रहता है।
यह उन्नति का
मार्ग नहीं है। अवनति की ओर जाते मानव के लिए आत्मोन्नति के आनंद की ओर चलने के
लिए बुद्धि के शोधन की, उसकी विचार शक्ति में विवेक के सूर्य
का उदय करने की आवश्यकता है। मन एवं इन्द्रियों को विषयों के स्मरण, चिन्तन, प्राप्ति
एवं भोग की जन्म-जन्मांतरों की जो आदत पड़ी हुई है, उनमें असारता का
दर्शन होने पर मन उनसे विमुख होता है तब बुद्धि को अपने से भी परे आत्मा की ओर
अभिमुख होने की रूचि एवं जिज्ञासा होती है, आत्सरस पीने का
सौभाग्य प्राप्त होता है, संसार की मायाजाल से बचने का बल मिलता
है।
जब बुद्धि को
आत्मनिरीक्षण के लिए विचार करने की भोगमुक्त दशा प्राप्त होती है तब वह प्रत्येक
कर्म में विवेक का उपयोग करती है। उस वक्त उसके अन्तःकरण में आत्मा का कुछ प्रकाश
पड़ता है, जिससे विषयों का अंधकार कुछ अंश में क्षीण होता
है। यह है नीचे से ऊपर जाने वाला तीसरा, आंतर में से
प्रकट होने वाला स्वयंभू सुख की लालसावाला, बुद्धि के स्वयं
के प्रकाश का भोक्ता – सत्त्वगुण। इस सत्त्वगुण की प्रकाशमय
स्थिति के कारण बुद्धि का शोधन होता है। कर्म-अकर्म, धर्म अधर्म, नीति-अनीति, सार-असार, नित्य-अनित्य
वगैरह को समझकर अलग करने एवं धर्म, नीति, सदाचार
तथा नित्य वस्तु के प्रति चित्त की सहज स्वाभाविक अभिरूचि करने की शक्ति इसी से
संप्राप्त होती है।
एक ओर मानवीय
जीवन के आंतर प्रदेश में आत्मा (आनंदमय कोष) एवं बुद्धि (विज्ञानमय कोष) है तो
दूसरी ओर प्राण (प्राणमय कोष) तथा शरीर (अन्नमय कोष) है। इन दोनों के बीच मन
(मनोमय कोष) है। वह जब बहिर्मुख बनता है तब प्राण तथा शरीर द्वारा इन्द्रियाँ
विषय-भोगों में लिप्त होकर वैसे ही धर्म-कर्म में प्रवृत्त रहती हैं। यही है
मानवीय जीवन की तामसिक एवं राजसिक अवस्था की चक्राकार गति।
परंतु उसी मन
(मनोमय कोष) को ऊर्ध्वमुख, अंतर्मुख अथवा आत्माभिमुख करना – यही
है मानव जीवन का परम कल्याणकारी लक्ष्य। ऋषियों में परम आनंदमय आत्मा को ही लक्ष्य
माना है क्योंकि मनुष्य के जीवनकाल की मीमांसाकरने पर यह बात स्पष्ट होती है कि
उसकी सब भाग दौड़ होती है सुख के लिए, नित्य सुख के
लिए। नित्य एवं निरावधि सुख की निरंतर आकांक्षा होने के बावजूद भी वह रजो-तमोगुण
एवं इन्द्रियलोलुपता के अधीन होकर हमेशा बहिर्मुख ही रहता है। उसकी समस्त क्रियाएँ
विषयप्राप्ति के लिए ही होती हैं। उसकी जीवन-संपदा, शारीरिक बल, संकल्पशक्ति
आदि का जो भी उसका सर्वस्व माना जाता है वह सब जन्म मृत्यु के बीच में ही व्यर्थ
नष्ट हो जाता है।
परंतु उसी
मन(अंतःकरण) पर यदि सत्त्वगुण का प्रकाश पड़े तो उसे स्वधर्म-स्वर्म की, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य
की सूक्ष्म छानबीन करने का सूझता है। सुख-दुःख के द्वन्द्व में उसे नित्य सुख की
दिशा सूझती है। दुराचार के तूफानी भँवर में से उसे शांत, गंभीर
सत्त्वगुणी गंगा के प्रवाह में अवगाहन करने की समझ आने लगती है। विचार-सदविचार की
कुशलता आती है। विचार, इच्छा, कर्म आदि में
शुभ को पहचानने की सूझबूझ बढ़ती है। जिससे शुभेच्छा, शुभ विचार एवं
शुभकर्म होने लगते हैं।
जन्म मरण जैसे
द्वन्द्वों के स्वरूप अर्थात् संसार-चक्र एवं कर्म के रहस्य को समझाते हुए एवं उसी
को अशुभ बताते हुए गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं।
तरो कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा
मोक्ष्यसेऽशुभात्।
‘वह कर्मतत्त्व
मैं तुझे भलीभांति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभ से अर्थात्
कर्मबन्धन से मुक्त हो जाएगा।’
(गीताः 4.16)
धर्म के, पुण्य
के नाम अलग-अलग हैं किन्तु उनका मूल है सत्त्व। सत्त्वगुणरूपी जड़ का सिंचन होने
से जो विशाल वृक्ष होता है उसमें मीठे फल लगते हैं। वे ही फल आंतरिक सुख, स्वतंत्र
सुख, मुक्तिदायी सुख का मार्ग खोल देते हैं। यह जीव गुणों के थपेड़े से
बचकर ही अपने गुणातीत स्वरूप में स्थिर हो सकता है एवं आत्म-साक्षात्कार कर सकता
है। जिसके ध्यान से ब्रह्माजी, भगवान विष्णु एवं साम्बसदाशिव भी
सामर्थ्य एवं अनोखा आनंद पाते हैं उसी चैतन्यस्वरूप का साक्षात्कार करने के लिए
आपका जन्म हुआ है इसका निरंतर स्मरण रखना।
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