वेद को छोड़ने के विनाशकारी दुष्परिणाम।
1. मनमानी पूजा पद्धतियां- पिछले 10-15
वर्षों में हिंदुत्व को लेकर व्यावसायिक संतों, ज्योतिषियों और
धर्म के तथाकथित संगठनों और राजनीतिज्ञों ने हिंदू धर्म के लोगों को पूरी तरह से
गफलत में डालने का जाने-अनजाने भरपूर प्रयास किया, जो आज भी जारी
है। हिंदू धर्म की मनमानी व्याख्या और मनमाने नीति-नियमों के चलते खुद को व्यक्ति
एक चौराहे पर खड़ा पाता है। समझ में नहीं आता कि इधर जाऊँ या उधर। भ्रमित
समाज लक्ष्यहीन हो जाता है। लक्ष्यहीन समाज में मनमाने तरीके से परम्परा का जन्म और
विकास होता है, जोकि होता आया है। मनमाने मंदिर बनते हैं, मनमाने
देवता जन्म लेते हैं और पूजे जाते हैं। मनमानी पूजा पद्धति, चालीसाएँ, प्रार्थनाएँ
विकसित होती है। व्यक्ति पूजा का प्रचलन जोरों से पनपता है। भगवान को छोड़कर संत, कथावाचक
या पोंगा पंडितों को पूजने का प्रचलन बढ़ता है।
2. धर्म का अपमान : आए दिन धर्म का मजाक उड़ाया जाता है, मसलन
कि किसी ने लिख दी लालू चालीसा, किसी ने बना दिया अमिताभ का मंदिर।
रामलीला करते हैं और राम के साथ हनुमानजी का भी मजाक उड़ाया जाता है। राम के बारे
में कुतर्क किया है, कृष्ण पर चुटकुले बनते हैं। दुर्गोत्सव के
दौरान दुर्गा की मूर्ति के पीछे बैठकर शराब पी जाती हैं आदि अनेकों ऐसे उदाहरण है
तो रोज देखने को मिलते हैं। भगवत गीता को पढ़ने के अपने नियम और समय हैं किंतु अब
तो कथावाचक चौराहों पर हर माह भागवत कथा का आयोजन करते हैं। यज्ञ के महत्व को समझे
बगैर वेद विरुद्ध यज्ञ किए जाते हैं और अब तमाम वह सारे उपक्रम नजर आने लगे हैं
जिनका सनातन हिंदू धर्म से कोई वास्ता नहीं है।
3 . बाबाओं के चमचे : अनुयायी होना दूसरी आत्महत्या है।'- वेद
,रुद्राक्ष या ॐ को छोड़कर आज का युवा अपने-अपने बाबाओं के लॉकेट को
गले में लटकाकर घुमते रहते हैं। उसे लटकाकर वे क्या घोषित करना चाहते हैं यह तो हम
नहीं जानते। हो सकता है कि वे किसी कथित महान हस्ती से जुड़कर खुद को भी
महान-बुद्धिमान घोषित करने की जुगत में हो। लेकिन कुछ युवा तो नौकरी या व्यावसायिक
हितों के चलते उक्त संत या बाबाओं से जुड़ते हैं तो कुछ के जीवन में इतने दुख और
भय हैं कि हाथ में चार-चार अँगूठी, गले में लॉकेट, ताबीज
और न जाने क्या-क्या। गुरु को भी पूजो, भगवान को भी
पूजो और ज्योतिष जो कहे उसको भी, सब तरह के उपक्रम कर लो...धर्म के
विरुद्ध जाकर भी कोई कार्य करना पड़े तो वह भी कर लो।
4. धर्म या जीवन पद्धति : हिन्दुत्व कोई धर्म नहीं, बल्कि
जीवन पद्धति है- ये वाक्य बहुत सालों से बहुत से लोग और संगठन प्रचारित करते रहे
हैं। उक्त वाक्य से यह प्रतिध्वनित होता है कि इस्लाम, ईसाई, बौद्ध
और जैन सभी धर्म है। धर्म अर्थात आध्यात्मिक मार्ग, मोक्ष मार्ग।
धर्म अर्थात जो सबको धारण किए हुए हो, अस्तित्व और
ईश्वर है, लेकिन हिंदुत्व तो धर्म नहीं है। जब धर्म नहीं
है तो उसके कोई पैगंबर और अवतारी भी नहीं हो सकते। उसके धर्मग्रंथों को फिर
धर्मग्रंथ कहना छोड़ो, उन्हें जीवन ग्रंथ कहो। गीता को
धर्मग्रंथ मानना छोड़ दें? भगवान कृष्ण ने धर्म के लिए युद्ध लड़ा
था कि जीवन के लिए? जहाँ तक हम सभी धर्मों के धर्मग्रंथों को पढ़ते
हैं तो पता चलता है कि सभी धर्म जीवन जीने की पद्धति बताते हैं। यह बात अलग है कि
वह पद्धति अलग-अलग है। फिर हिंदू धर्म कैसे धर्म नहीं हुआ? धर्म
ही लोगों को जीवन जीने की पद्धति बताता है, अधर्म नहीं।
क्यों संत-महात्मा गीताभवन में लोगों के समक्ष कहते हैं कि 'धर्म
की जय हो-अधर्म का नाश हो'?
5. मनमानी व्याख्या के संगठन : पहले ही भ्रम
का जाल था कुछ संगठनों ने और भ्रम फैला रखा है उनके अनुसार ब्रह्म सत्य नहीं है
शिव सत्य है और शंकर अलग है। आज आप जहाँ खड़े हैं अगले कलयुग में भी इसी स्थान पर
इसी नाम और वेशभूषा में खड़े रहेंगे- यही तो सांसारिक चक्र है। इनके अनुसार समय
सीधा नहीं चलता गोलगोल ही चलता है। इन लोगों ने वैदिक विकासवाद के सारे सिद्धांत
और समय व गणित की धारणा को ताक में रख दिया है। एक संत या संगठन गीता के बारे में
कुछ कहता है, तो दूसरा कुछ ओर। एक राम को भगवान मानता है तो
दूसरा साधारण इंसान। हालाँकि राम और कृष्ण को छोड़कर अब लोग शनि की शरण में रहने
लगे हैं।वेद, पुराण और गीता की मनमानी व्याख्याओं के दौर से
मनमाने रीति-रिवाज और पूजा-पाठ विकसित होते गए। लोग अनेकों संप्रदाय में बँटते गए
और बँटते जा रहे हैं। संत निरंकारी संप्रदाय, ब्रह्माकुमारी
संगठन, जय गुरुदेव, गायत्री परिवार, कबिर
पंथ, साँई पंथ, राधास्वामी मत आदि अनेकों संगठन और
सम्प्रदाय में बँटा हिंदू समाज वेद को छोड़कर भ्रम की स्थिति में नहीं है तो क्या
है?संप्रदाय तो सिर्फ दो ही थे- शैव और वैष्णव। फिर इतने सारे संप्रदाय
कैसे और क्यूँ हो गए। प्रत्येक संत अपना नया संप्रदाय बनाना क्यूँ चाहता है? क्या
भ्रमित नहीं है आज का हिंदू?
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