चित्रकूट धाम: एक दर्शन।
चित्रकूट धाम मंदाकिनी नदी के किनारे पर बसा भारत के
सबसे प्राचीन तीर्थस्थलों में एक है।सदियों से हिंदुओं की आस्था का केंद्र
चित्रकूट वही स्थान है, जहाँ कभी भगवान श्रीराम ने देवी सीता और लक्ष्मणजी के
साथ अपने वनवास के साढ़े ग्यारह वर्ष बिताए थे।
असल में कर्वी, सीतापुर, कामता, खोही और नया गांव के आस-पास का वनक्षेत्र चित्रकूट नाम
से विख्यात है। चित्रकूट, चित्र और कूट शब्दों के मेल से बना है। संस्कृत में
चित्र का अर्थ है अशोक और कूट का अर्थ है शिखर या चोटी। चूंकि इस वनक्षेत्र में
कभी अशोक के वृक्ष बहुतायत में मिलते थे, इसलिए इसका नाम चित्रकूट पड़ा। उत्तरप्रदेश में 38.2 वर्ग
किलोमीटर के क्षेत्र में फैला शांत और सुन्दर चित्रकूट प्रकृति और ईश्वर की अनुपम
देन है। चारों ओर से विन्ध्य पर्वत श्रृंखलाओं और वनों से घिरे चित्रकूट को अनेक
आश्चर्यो की पहाड़ी कहा जाता है। मंदाकिनी नदी के किनार बने अनेक घाट और मंदिर में
पूरे साल श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है। माना जाता है कि भगवान राम ने सीता
और लक्ष्मण के साथ अपने वनवास के चौदह वर्षो में ग्यारह वर्ष चित्रकूट में ही
बिताए थे। इसी स्थान पर ऋषि अत्रि और सती अनसुइया ने ध्यान लगाया था। ब्रह्मा, विष्णु और
महेश चित्रकूट में ही सती अनसुइया के घर बालक रूप में प्रगट हुए।
वर्तमान में यह स्थान उत्तर प्रदेश के कर्वी तथा मध्य
प्रदेश के सतना जिले की सीमा पर झाँसी-मानिकपुर रेलवे मार्ग पर स्थित है। चित्रकूट
का मुख्य स्थल सीतापुर है जो कर्वी से आठ किलोमीटर की दूरी पर है। चित्रकूट के
प्रमुख दर्शनीय स्थल मध्य प्रदेश के सतना जिले में ही स्थित हैं। दो राज्यों में
विभाजित इस पवित्र धाम का जैसा विकास होना चाहिए था , वैसा नहीं हो सका है तो इसकी एक बड़ी वजह
इसका दो राज्यों में बंटा होना भी है।
चित्रकूट की
महत्ता का वर्णन पुराणों के प्रणेता वेद व्यास, आदिकवि कालिदास, संत तुलसीदास तथा कविवर रहीम ने भी अपनी
कृतियों में किया है-
जेहि पर विपदा
परत है, सो आवत एहि देसचित्रकूट में रमि रहे रहिमन अवध नरेस।
ओरछा में राम राजा मध्य युग में लाए गए किंतु इस
बुंदेलखंड के चित्रकूट में वनवास की विपत्ति काटने के लिए वे स्वयं पधारे। उनके
वहाँ निवास से इस तीर्थ राज की महिमा और भी बढ़ी। अपने समस्त वांग्मय की रचना करने
के उपरांत संत तुलसीदास की दृष्टि फिर फिर चित्रकूट की ओर जाती है। विनय पत्रिका
में वे लिखते हैं -
अब चित चेति चित्रकूट ही चलु भूमि
बिलोकु राम पद अंकित बन बिलोकु रघुवर विहार थलु
कामदगिरि
इस पवित्र पर्वत का काफी धार्मिक महत्व है। चित्रकूट के
मुख्य देव कामतानाथ हैं जो कामदगिरि पर्वत पर विराजमान हैं, जिनकी
परिक्रमा और दर्शन करने से माना जाता है कि व्यक्ति के सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते
हैं। इस पर्वत के चारों ओर पक्का परिक्रमा मार्ग बना हुआ है। मार्ग के
किनारे-किनारे राम मुहल्ला, मुखारबिंद, साक्षी गोपाल, भरत-मिलाप आदि कई देवालय बने हुए हैं। इसके दक्षिणी ओर
एक छोटी पहाड़ी पर लक्ष्मणजी का एक मंदिर भी है। कहा जाता है कि वनवास में लक्ष्मण
जी यहीं रहा करते थे। परिक्रमा मार्ग में ही भरत मिलाप स्थित है। कहा जाता है कि
यहीं भरत भगवान श्री राम से मिलने आए थे।
श्रद्धालु कामदगिरि पर्वत की 5 किलोमीटर की परिक्रमा कर अपनी मनोकामनाएं
पूर्ण होने की कामना करते हैं। जंगलों से घिरे इस पर्वत के तल पर अनेक मंदिर बने
हुए हैं। चित्रकूट के लोकप्रिय कामतानाथ और भरत मिलाप मंदिर भी यहीं स्थित
है।मनौती के बाद अपनी कामनाओं की पूर्ति होने पर जब लोग पाँच किलोमीटर की
प्रदक्षिणा लेटकर करते हैं तब माताएँ मंगल गीत गाती हैं। कोल भील लोकगीत गाते हैं
एवं लोक नृत्य करते हैं। दीपावली के मेले में पैर में घुँघरू बाँध मोर के पंख लगाए
ढोलक मँजीरे की ताल पर अहिर नृत्य देखते ही बनता है। अहिरों की सैकड़ों टोलियाँ
अपने अपने गाँव से नाच करती हुई आती हैं। चित्रकूट के मेले में इस क्षेत्र की लोक
कला एवं लोकगीत खुलकर मुखरित होते हैं।
रामघाट
राम घाट वह घाट है जहाँ प्रभु राम नित्य स्नान किया करते
थे l इसी घाट पर राम भारत मिलाप मंदिर है और इसी घाट पर गोस्वामी तुलसीदास जी की
प्रतिमा भी है l मंदाकिनी नदी के तट पर बने रामघाट में अनेक धार्मिक क्रियाकलाप चलते रहते
हैं। घाट में गेरूआ वस्त्र धारण किए साधु-सन्तों को भजन और कीर्तन करते देख बहुत
अच्छा महसूस होता है। शाम को होने वाली यहां की आरती मन को काफी सुकून पहुंचाती
है।
जानकी कुण्ड ,सीता
रसोई
रामघाट से 2 किलोमीटर की दूरी पर मंदाकिनी नदी के किनार जानकी कुण्ड
स्थित है। जनक पुत्री होने के कारण सीता को जानकी कहा जाता था। माना जाता है कि
जानकी यहां स्नान करती थीं। जानकी कुण्ड के समीप ही राम जानकी रघुवीर मंदिर और
संकट मोचन मंदिर है।
स्फटिक शिला
जानकी कुण्ड से कुछ दूरी पर मंदाकिनी नदी के किनार ही यह
शिला स्थित है। माना जाता है कि इस शिला पर सीता के पैरों के निशान मुद्रित हैं।
कहा जाता है कि जब वह इस शिला पर खड़ी थीं तो जयंत ने काक रूप धारण कर उन्हें चोंच
मारी थी। इस शिला पर राम और सीता बैठकर चित्रकूट की सुन्दरता निहारते थे।
अनसुइया अत्रि आश्रम
स्फटिक शिला से लगभग 4 किलोमीटर की दूरी पर घने वनों से घिरा यह
एकान्त आश्रम स्थित है। यहीं सती अनुसुइया और महर्षि अत्रि के साथ-साथ दत्तात्रेय
व दुर्वासा व चंद्रमा आदि की मूर्तियाँ स्थापित हैं। कहा जाता है कि यहीं सती
अनुसुइया ने देवी सीता को पतिव्रत धर्म का उपदेश दिया था।
गुप्त गोदावरी
नगर से 18 किलोमीटर की दूरी पर गुप्त गोदावरी स्थित हैं। यहां दो
गुफाएं हैं। एक गुफा चौड़ी और ऊंची है। प्रवेश द्वार संकरा होने के कारण इसमें
आसानी से नहीं घुसा जा सकता। गुफा के अंत में एक छोटा तालाब है जिसे गोदावरी नदी
कहा जाता है। दूसरी गुफा लंबी और संकरी है जिससे हमेशा पानी बहता रहता है। यही पर
गुफा से जलधारा कुंड में गिरती है और वहीं लुप्त हो जाती है। इसलिए इसे गुप्त
गोदावरी कहा जाता है। कहा जाता है कि इस गुफा के अंत में राम और लक्ष्मण ने दरबार
लगाया था।
हनुमान धारा
पहाड़ी के शिखर पर स्थित हनुमान धारा में हनुमान की एक
विशाल मूर्ति है। मूर्ति के सामने तालाब में झरने से पानी गिरता है। कहा जाता है
कि यह धारा श्रीराम ने लंका दहन से आए हनुमान के आराम के लिए बनवाई थी। पहाड़ी के
शिखर पर ही 'सीता रसोई' है। यहां से चित्रकूट का सुन्दर दृष्य देखा जा सकता है। कहते हैं चित्रकूट
में आज भी हनुमान जी वास करते हैं जहां भक्तों को दैहिक और भौतिक ताप से मुक्ति
मिलती है। कारण यह है कि यहीं पर भगवान राम की कृपा से हनुमान जी को उस ताप से
मुक्ति मिली थी जो लंका दहन के बाद हनुमान जी को कष्ट दे रहा था। इस विषय में एक
रोचक कथा है कि, हनुमान जी ने प्रभु राम से कहा, लंका जलाने के के बाद शरीर में तीव्र अग्नि बहुत कष्ट दे
रही है। तब श्रीराम ने मुस्कराते हुए कहा कि-चिंता मत करो। चित्रकूट पर्वत पर जाओ।
वहां अमृत तुल्य शीतल जलधारा बहती है। उसी से कष्ट दूर होगा।
हनुमान धारा मंदिर इस घटना की याद दिलाती है। यहां भगवान
श्रीराम का एक छोटा सा मंदिर भी है। हनुमान जी के दर्शन से पहले नीचे बने कुंड में
भरे पानी से हाथ मुंह धोना कोई भी भक्तगण नहीं भूलता है। यहां पंचमुखी हनुमान जी
भी प्रगट हुए हैं। यहां सीढ़ियां कहीं सीधी हैं तो कहीं घुमावदार। कुछ ऊपर सीता
रसोई है। जहां माता सीता ने भगवान श्रीराम और देवर लक्ष्मण के लिए कंदमूल से रसोई
बनाई थी। माता सीता ने जिन चीजों से यहां रसोई बनाई थी उसके चिन्ह आज भी यहां देखे
जा सकते हैं। यहां मंगलवार, शनिवार के अलावा नवरात्रों और हनुमान जी के जन्मदिन पर
श्रद्वालुओं की बड़ी भीड़ होती है। वैसे आप जब चाहें यहां आकर हनुमान धारा मंदिर
के दर्शन कर सकते हैं।
भरतकूप
कहा जाता है कि भगवान राम के राज्याभिषेक के लिए भरत ने
भारत की सभी नदियों से जल एकत्रित कर यहां रखा था। अत्रि मुनि के परामर्श पर भरत
ने जल एक कूप में रख दिया था। इसी कूप को भरत कूप के नाम से जाना जाता है। भगवान
राम को समर्पित यहां एक मंदिर भी है।
चित्रकूट की
तपोभूमि इतनी मनोहारी है कि यहाँ के पर्वतों की चोटियाँ कामद्गिरि एवं मंदाकिनी का
प्रवाह, सुंदर एवं आकर्षक वन गुफ़ाएँ एवं कंदराएँ ऋषिमुनि कोल किरात सभी दर्शक का
ध्यान बरबस खींच लेते हैं। यह उल्लेखनीय है कि वनवासी राम को महर्षि वाल्मीकि ने चित्रकूट
निवास का परामर्ष दिया था। उनके अवतार कार्य के लिए उपयुक्त क्षेत्र होने के
अतिरिक्त चित्रकूट की जलवायु एवं प्राकृतिक सौदर्य भी कुछ ऐसे हैं कि राम लक्ष्मण
और सीता वनवास की लंबी अवधि वहाँ काट सके। सती अनुसूया आश्रम विशालकाय पर्वत के
नीचे मंदाकिनी का शांत अविरल प्रवाह, एवं नाचते हुए मोरों के झुंड चित्त को अनायास हर लेते
हैं। प्राकृतिक सुषमा से भरपूर हनुमान धारा, देवांगना एवं कोट तीर्थ सुरम्य दर्शनीय स्थल
है। गुप्त गोदावरी में विशाल पर्वत मालाओं के नीचे मीलों अंदर पोल है तथा बहुत ही
सुंदर प्राकृतिक रेखांकन है। अंदर के जल प्रपात में राम लक्ष्मण व जानकी के स्नान
कुंड हैं। वाल्मीकि रामायण से पता चलता है कि उस समय मंदाकिनी में कमल के पुष्प भी
खिलते थे और नदी के दोनों तटों पर घने वृक्ष थे। उस समय भी मंदाकिनी में स्नान
करना पुण्यदायक माना जाता है और चित्रकूट वास को शोक और विपत्तिनाशक कहा जाता था।
वाल्मीकि रामायण में स्वयं भगवान राम कहते हैं कि चित्रकूट में वास करने के कारण
उन्हें जरा भी वनवास का कष्ट नहीं हुआ।
ऐसा लगता है कि गोस्वामी तुलसीदास के समय तक यहाँ केवल
ऋषि-मुनि या कुछ वन्य जातियाँ ही बसी थीं। तुलसी के बाद ही यहाँ मठों और मंदिरों
का विकास हुआ। रामघाट के पास मंदाकिनी नदी पर पक्के घाटों का निर्माण व परिक्रमा
पथ बनवाने में पन्ना नरेश अमान सिंह व श्रीहिंदूपत का काफी योगदान रहा। बाद में कई
और रियासतें भी इस काम के लिए आगे आईं। सैकड़ों मठ-मंदिर व धर्मशालाएँ बनवाई गईं।
यहाँ की रमणीयता और पवित्रता के कारण ही महर्षि वाल्मीकि और मुनि भारद्वाज ने
श्रीराम को अपना वनवास काल यहीं बिताने की सलाह दी थी। वाल्मीकि के समय में
चित्रकूट आध्यात्मिक साधना का केंद्र और ऋषियों का तपोवन था। उन्होंने स्वयं
चित्रकूट पर्वत को शुभ एवं कल्याणकारी माना और लिखा है। उस समय यहाँ पर्याप्त
मात्रा में कंदमूल, विभिन्न फल और शहद आदि उपलब्ध था। तरह-तरह के पक्षियों के कलरव से यह
वन-क्षेत्र गूंजता रहता था। हरिण, शेर और हाथियों के झुंड स्वच्छंद विचरण करते थे। जगह-जगह
ऋषियों के आश्रम थे, जहाँ वे तपस्या में लीन रहते थे। चित्रकूट के लिए यही सच है -
चित्रकूट
के घाट पर , भई
संतन की भीड़ ,तुलसीदास चन्दन घिसै ,
तिलक करें रघुवीर।
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