इस्लामिक काल में भारत के राजाओं की पराजयों का मूल कारण।
सदियों
से ऋषि भूमि भारत की शौर्यगाथा का डंका सम्पूर्ण विश्व में बजता रहा, एक
समय था जब भारत की सीमाओं में कोई झाँकने का प्रयास भी नहीं करता था, और
जो करता था वो सिकंदर जैसा भी अपने मुंह में प्राण दबा कर भागता था।
भारत
की इतिहास की पुस्तकों में ऐसा पढाया जाता है कि वहां से लेकर वहां तक उस मुगल, तुगलक, खिलजी
या किसी मुस्लिम राजा का साम्राज्य था, ये सब उन
इतिहासकारों द्वारा लिखा गया है जो सलीमशाही जूतियाँ चाट चाट कर अपनी जीभ को ही
कालीन बना चुके हैं... इतनी जूतियाँ चाटी हैं इन्होने कि चाट चाट कर विदेशियों का
इतिहास चमका डाला है।
इस्लामिक
काल में जो आक्रमण हुए, उनका सामना करने में किसी भी शूरवीर ने
शौर्य और पराक्रम में कोई कमी नही छोडी, परन्तु कई कई
जगहों पर भयंकर मारकाट मचाई गई, केवल इस्लाम के जिहादियों द्वारा।
मुहम्मद
बिन कासिम भी इरान और अफगानिस्तान के मार्ग से भारत में घुस नही पाया था, लगातार
कई युद्धों में पराजयों का स्वाद चखने के बाद वो अरब के समुद्री रस्ते से आया था, जहां
पर बुद्ध के अनुयायियों ने इन्हें सुगम मार्ग बताये, आगे बढने में
सहायता की और अपनी नावें तक दीं उनको उफनती नदियों को पार करने हेतु जिससे कि वो
इस्लामी जेहादी आगे बढ़ कर हिन्दू साम्राज्यों को समाप्त करें। और
जब गया तो 1700 हिन्दू लडकियों को नग्नावस्था में घोड़े की
पूंछ से बाँध कर बग़दाद लेकर गया।
यहाँ
पर ये भी गर्व का विषय है कि उसी सिंध के राजा दाहिर की दो बेटियों सूर्यकुमारी और
परिमल देवी ने मुहम्मद बिन कासिम को भी उसके अंजाम तक पहुंचवा दिया।
(सलीमशाही
जूतियाँ चाटने वाले इतिहासकार यह नहीं बताते।)
महाराणा प्रताप के पूर्वज बाप्पा रावल ने
मुसलमानों को बग़दाद तक जाकर मारा, सैकड़ों मुसलमानियों से विवाह किया, गंधार
के पाल वंश ने 350 वर्षों तक इस्लामी जिहादियों को रोके रखा
जिसमे भीमपाल, अनंतपाल, त्रिलोचनपाल आदि
का शौर्य एवं पराक्रम भुलाने योग्य नही है। (सलीमशाही
जूतियाँ चाटने वाले इतिहासकार यह नहीं बताते।)
अन्य राजाओं के शौर्य के बारे में आगे जाकर
विस्तार से बात करेंगे परन्तु आज बात यह करेंगे कि इतने अद्वितीय शौर्यों और
पराक्रमो के बाद भी हम इतना दयनीय स्थिति में क्यों चले जाते थे ?
मेरा
स्पष्ट मानना है कि भले भारत भूमि पर गद्दारों, देशद्रोही, लालची
और स्वार्थी राजाओं ने बुद्ध, इस्लामी, अंग्रेजी
लुटेरों या शासकों को कितनी ही सहायता दी हो, परन्तु उनकी
संख्या इतनी भी नही हो सकती कि वे भारतीय शौर्य और पराक्रम को वो पीछे छोड़ सकें, दूसरे
शब्दों में कहें तो ऐसे लोगों की संख्या भले ही कितनी भी हो परन्तु शूरवीर और
पराक्रमियों से किसी भी परिस्थिति में बढ़कर नहीं हो सकते।
यदि
विस्तार से इस बात को समझाया जाए तो हम गद्दारी, देशद्रोही, स्वार्थसिद्धि
से इतना नहीं परास्त हुए, जितना युद्ध में बरती गई शालीनता और
नियमों से हम परास्त हुए जैसे कि सूर्यास्त के बाद युद्ध विराम, तथा
निहत्थे, भागते हुए पर वार न करना, महिलाओं
और बच्चों पर शस्त्र न उठाना। यहाँ मेरा ऐसा
भी कोई आशय नही है कि महापुरुषों, आचार्यों द्वारा बनाये गये नियमो और
अचार-संहिताओं का युद्ध में पालन करना नहीं चाहिए थे, अपितु
मैं यह पूर्ण रूपेण यह कहना अवश्य चाहूँगा कि युद्ध की नीति का पालन धर्मानुसार
...धर्म का अनुसरण करने वालों के साथ ही किया जाए।
यहाँ
यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि चूक कहाँ हुई ...?
श्री श्रंगेरी शारदा पीठम के जगद्गुरु स्वामी विद्यारण्य
उपनाम माधवाचार्य।
ये
मायन आचार्य और श्रीमती देवी के पुत्र थे के पुत्र थे। इनके
दो भाई थे जिनमे से एक सायण आचार्य हुए जिन्होंने वेदों पर भाष्य के साथ अनेक
ग्रन्थों की रचना की।
शंकराचार्यों
में माधवाचार्य जी ऐसे संत हुए जिन्हें शैव और वैष्णव दोनों सम्प्रदायों ने
निर्विवाद रूप से अपना-अपना गुरु माना है, माधवाचार्य जी
अत्यंत मेधावी थे, माधवाचार्य जी के गुरु ने जब उन्हें कहा कि सभी
मत-सम्प्रदायों पर शोध करके उन पर कुछ कार्य करो। माधवाचार्य
जी कई वर्षों तक अनेकों जगह घुमते हुए बोद्ध, जैन, पारसी
के अलावा छोटे – छोटे मत-सम्प्रदायों का अध्ययन करते हुए जब
उन्होंने इस्लाम का अध्ययन करना आरम्भ किया तो उन्होंने सर्व-प्रथम जाना कि चूक
कहाँ हुई है ?
माधवाचार्य
जी के सम्पर्क में एक ऐसा ईसाई आया जिसे इस्लाम में धर्मान्तरित कर दिया गया था, उसने
माधवाचार्य जी को इस्लाम, ईसाईयत और इन दोनों के जनक यहूदियों के
बारे में भी सम्पूर्ण ज्ञान दिया, जिसके अंतर्गत उन्हें ज्ञात हुआ कि जिस
प्रकार सनातन धर्म से ही जिस प्रकार वेद-विरोधी जैन, बुद्ध, सिख
आदि सब ये छोटे छोटे मत-सम्प्रदाय आरम्भ हुए ठीक उसी प्रकार यहूदियों में से भी
ईसाईयत, इस्लाम, बहाई आदि
मत-सम्प्रदाय भी आरम्भ हुए। सब एक से एक
खतरनाक है तथा मानव एवं सृष्टि दोनों के प्रति कितना भयावश, हानिकारक
एवं निर्दयी है ये उन्हें उसी समय ज्ञात हुआ।
माधवाचार्य
के समय में ईसाईयत दक्षिण भारत, ओडिशा तथा महाराष्ट्र के तटवर्ती
इलाकों में पुर्तगाली नाविकों की सहायता से धर्मांतरण कर रहे थे, परन्तु
उस समय जो उन्हें मुख्य समस्या दिखाई दी वह थी इस्लाम।
इस्लाम
के बारे में उन्होंने जाना कि इस्लाम में पैगम्बर (Se।f Made Saint/।ord/Prophet ) द्वारा चार
मुख्य मानव निर्मित पुस्तकों की रचना की गई है 1. कुरान, 2. हदीस, 3. शूरा, 4. बुखारी।
इन
चारों पुस्तकों के अनुसार मुक्ति सबकी मुक्ति का केवल एक ही मार्ग है, जिसके
अनुसार जिस दिन दुनिया का अंतिम मनुष्य भी इस्लाम में धर्मान्तरित कर दिया जायेगा, उस
दिन अल्ला जो कि कभी पैगम्बर को भी दिखाई नही दिया और सातवें आसमान में रहता है...
वो अल्ला उस दिन इस पूरी सृष्टि को समाप्त कर देगा और सभी इस्लाम मत के अनुयायियों
को जन्नत (स्वर्ग) में भेज दिया जायेगा।
यहाँ
यह उल्लेखनीय है कि इस्लाम के अनुयायियों को यहाँ पर भांति-भांति के प्रलोभन दिए
गये हैं जन्नत रुपी स्वर्ग को पाने हेतु, जैसे कि कुरआन
में शराब हराम है, परन्तु जन्नत में शराब की नदियाँ बहेंगी, वहां
पर शारीरिक तृप्ति (वासना) हेतु 72 हूरें और 27
लोंडे (Gay) मिलेंगे
भोगने हेतु। ऐसा बहुत लम्बा परिचय है जो कि किसी और
लेख में दिया जायेगा।
वस्तुतः
इसी जन्नत को पाने हेतु इस्लाम के अनुयायी सम्पूर्ण विश्व में कत्लेआम, जघन्यता-पूर्वक
आक्रमण कर रहे हैं।
माधवाचार्य
ने अनुमान लगाया कि युद्ध तो हमारे यहाँ भी होते ही रहते हैं, परन्तु
उनमे एक नियम होता है, मात्र साम्राज्य-विस्तार या सीमा
विस्तार, परन्तु उन युद्धों में भी एक प्रकार की शालीनता
बरती जाती है, जबकि इसके विपरीत इस्लाम के अनुयायियों द्वारा
ऐसी कोई शालीनता नहीं बरती क्योंकि उन्हें तो धन लूटना है और दुनिया के सभी लोगों
को धर्मान्तरित करना है।
इस्लाम
स्वीकार न करने वालों को विभिन्न प्रकार की भयंकार यातनाओं का भी उल्लेख है इन
चारों पुस्तकों में, जिसमे कि बच्चों, औरतों, आदमियों
को गुलामों की तरह बेचना, औरतों के साथ पाशविकता, गुलामों
और बच्चों के साथ भी व्याभिचार आदि यह सब इन पुस्तकों में लिखे गये हैं, जिससे
प्रतीत होता है कि यह कोई धर्म नहीं अपितु अमानुषता का एक कबीला जैसा है, जिसमे
कोई नियम, आचार-संहिता, मानवीय मूल्य या
संवेदना मानव या सृष्टि के प्रति नहीं दिखाई गई है।
माधवाचार्य
उसी समझ गये कि 712 ई. से अब तक जो पराजय हुई हैं, उनका
कारण क्या है ?
हमारे
यहाँ पर जो युद्ध होते हैं उनमे नियम होते हैं, दोनों पक्ष बैठ
कर परस्पर आचार-संहिता का निर्माण करते हैं, जिनका की पालन
भी किया जाता है।
परन्तु
इसके विपरीत इस्लाम में तो तो केवल हारे हुए लोगों को भी ले जाकर बेच देना है, धन
की वसूली करनी है, औरतों से अपनी जनसंख्या बढानी है, और
गैर-इस्लामी मत-सम्प्रदायों की जनसंख्या कम करनी है, तो फिर वे किसी
आचार-संहिता का पालन क्यों करने लगे ?
उन्हें तो केवल जीतना है... किसी भी
हाल में... जन्नत को पाने हेतु।
ये
और बात है कि उस जन्नत से ... जो आज तक उनके पैगम्बर को भी नहीं मिली है, और
कुरान के अनुसार पैगम्बर के माता-पिता को भी जन्नत से वंचित / मरहूम रखा गया है।
माधवाचार्य
ने उसी पल अपने "सर्व-दर्शन संग्रह" नामक दर्शन-साहित्य पुस्तक का कार्य
समाप्त किया
और उन्होंने इस्लाम के विरुद्ध संघर्ष
करने हेतु सभी राजाओं को एकजुट करना आरम्भ किया।
"सर्व-दर्शन
संग्रह" नामक पुस्तक में भारत में ही प्रचलित विभिन्न दर्शनों पर तो वे अपना
कार्य पूर्ण कर ही चुके थे, अत: उन्होंने उस कार्य को वहीं पर
विराम देकर ...पूरा कर दिया क्योंकि अब उनका
लक्ष्य केवल समस्त हिन्दू-शक्तियों को केन्द्रित करके इस्लाम की पैशाचिकता और
पाशविकता के विरुद्ध बिगुल बजाना था।
इस
कार्य में सर्वप्रथम उन्होंने मलिक काफूर द्वारा मुस्लिम बनाये गये दो हिन्दू
युवकों का महर्षि देवल्य 'देवल' द्वारा रचित
"देवल्य-स्मृति" द्वारा शुद्धिकरण करके पुन: उनको वैदिक धर्म में वापिस
लाये।
ये
दोनों युवक आगे चल कर हिन्दू राष्ट्र के निर्माण और इस्लाम के विरुद्ध संघर्ष के
सबसे प्रबल योद्धाओं के रूप में विख्यात हुए, जिनका नाम था
हक्का – बुक्का
स्वामी
विद्यारण्य "माधवाचार्य" जी एक बार भ्रमण करते हुए ऐसी जगह पर पहुंचे
जहां पर उन्होंने एक खरगोश को कुत्ते के ऊपर झपटते और फिर उसका पीछा करते हुए पाया, ध्यान
लगा कर उन्होंने पाया कि यह जगह एक शक्तिपीठ है, एक सीमित परिधि
से पहले कुत्ता खरगोश के पीछे भाग रहा था परन्तु, एक परिधि के
अंदर आते ही खरगोश ने पलट कर कुत्ते पर वार किया।
स्वामी
विद्यारण्य "माधवाचार्य" जी ने इसी स्थल पर नया साम्राज्य स्थापित करने
का संकल्प लिया एवं हक्काराय उर्फ़ हरिहर राय प्रथम को यहाँ का राजा बना कर विजयनगर
साम्राज्य की स्थापना की। हरिहर राय और
उसके भाई बुक्कराय ने मिल कर विजयनगर साम्राज्य को एक समृद्धशाली हिन्दू राज्य
बनाया। 1356 में हरिहर राय प्रथम के स्वर्गवास के बाद
बुक्क राय प्रथम विजयनगर साम्राज्य के राजा बने, इन्होने भी 20
वर्ष शासन किया और विजयनगर साम्राज्य को स्वामी विद्यारण्य "माधवाचार्य"
जी के आशीर्वाद से समृद्ध बनाने में कोई कमी नही छोड़ी।
स्वामी
विद्यारण्य "माधवाचार्य" जी ने 1339 में महातीर्थ
प्रयाग में आयोजित कुम्भ के मेले में पूरे भारत से समस्त हिन्दू राजाओं को
आमंत्रित किया, जहां पर उन्होंने हिन्दू महासभा की स्थापना की।
हरिहर
राय प्रथम और बुक्क राय प्रथम के बाद देवराय प्रथम, देवराय द्वितीय
और वीरुपाक्ष द्वितीय ने विजयनगर साम्राज्य को एक नयी दिशा दी और इस्लामी
आक्रान्ताओं से दक्षिण प्रदेश को बचाए रखा।
विजयनगर
साम्राज्य में आगे जाकर एक महानायक का जन्म हुआ जिसका नाम था महाराजा कृष्णदेव राय, जो 1509
में विजयनगर के राजा बने, अपने अद्भुत रण-कौशल, न्यायप्रिय, प्रजाप्रिय
आदि गुणों से वे अपनी जनता में बहुत लोकप्रिय हुए। विजयनगर
साम्राज्य में एक सूर्य बन कर उभरे महाराजा कृष्णदेव राय ने 1509 से
लेकर 1530 तक का अपना सम्पूर्ण कार्यकाल विजयनगर साम्राज्य को सुदृढ़ बनाने में
ही लगाया, सम्पूर्ण जीवन युद्धों में ही व्यस्त रहे।कोंकण
से लेकर आंध्रा के तटों तक पूरे दक्षिण के तीनो और के समुद्र तटों तक का राज्य
इनके शासन के अधीन था। इसी कारण महाराजा कृष्णदेव राय को
"त्रि-समुद्राधिपती" की उपाधि प्रदान की गई।
विजयनगर
साम्राज्य का दक्षिण भारत के इतिहास में एक अप्रतिम योगदान है, एक
अलग ही पहचान है, परन्तु फिर भी नेहरूवादी तथा सलीमशाही जूतियाँ
चाटने वाले अभारतीय इतिहासकारों ने विजयनगर साम्राज्य और महाराजा कृष्णदेव राय को
वो सम्मान नहीं दिया जो उन्हें मिलना चाहिए था। महाराजा
कृष्णदेव राय को भारत की जनता के सामने अधिकांशत: तेनाली राम के साथ किससे
कहानियों में ही पेश करके दिखलाया गया।
लेख
की मूल शिक्षा :- किसी भी मत-सम्प्रदाय के विचारों, मानसिकताओं, आचरण
एवं गतिविधियों का आकलन एवं विश्लेषण उस मत-सम्प्रदाय की पंथिक-साम्प्रदायिक
पुस्तकों का अध्ययन करके ही हो सकता है, विडम्बना यह है
कि आज हिन्दू अपने ही ग्रन्थ नही पढ़ रहा तो Anti-vedic एवं Non-Vedic पैशाचिक पंथों के बारे में वो क्या जान
पायेगा ?
इस्लाम
के आक्रमण के आरम्भ के 400-500 वर्षों तक यही कारण रहा जिससे कि
हिन्दू राजा भ्रमित रहे, क्योंकि वो इस्लामी आक्रान्ताओं को भी
केवल सम्राज्या विस्तार हेतु ही समझते थे, जबकि इस्लामी
आक्रान्ताओं के लक्ष्य उससे भी कहीं
भयावह, पैशाचिक और पाशविक थे।
उन्हें सर्वप्रथम तो ये ज्ञात ही नहीं
था कि मुसलमान ... किस जानवर का नाम है ?
उनका
लक्ष्य क्या है ? वो आक्रमण क्यों कर रहे हैं ?
आक्रमण
के बाद वो क्या करेंगे ? हिन्दू जनता के पुरुषों और नारियों के
साथ किस प्रकार की पाश्विकता और पशुता, जघन्यता का
प्रयोग किया जायेगा ?
यदि
ये सब ज्ञात होता... तो शायद और भी बड़े स्तर पर मुकाबला कर के उन्हें घर के बाहर
ही रखा जा सकता था, बोद्धों और यवनों की भांति।
इसमें
बोद्धों के राष्ट्र-द्रोह को भी नजर-अंदाज करके देखना एक बहुत बड़ी भूल होगी...
आचार्य चाणक्य ने बोद्धों को नजर अंदाज करके यह गलती की, जिसका
खामियाजा कई वर्षों तक हिन्दुओं को भुगतना पड़ा था।
आर्य
चाणक्य की महानता पर कोई प्रश्न चिन्ह भी नही लगा सकता... ऐसा विश्व में किसी का
सामर्थ्य नही।
इस्लामी
आक्रान्ताओं द्वारा जन्नत पाने हेतु आरम्भ किये गए धर्मांतरणों के कारण ही आगे चल
कर छुआ-छूत, बाल-विवाह एवं हिन्दू नारियों द्वारा जौहर की
प्रथाएं आरम्भ हो गयीं, जिन पर आगे के
लेखों में विस्तार से चर्चा करेंगे।
इस्लाम
का लक्ष्य मात्र पूरे विश्व को
दार-अल-हर्ब से दार-अल-इस्लाम में परिवर्तित करना है...कैसे भी।
क्योंकि ...इसके सिवाय कोई और रास्ता
नही है... जन्नत पाने का।
समय
के साथ अनेक परिवर्तन होते हैं, पोशाकों में बदलाव आया, घरों
की रचना, रहन-सहन में बदलाव आया, खानपान
के तरीके भी बदले…..परन्तु जीवन मूल्य तथा आदर्श जब तक कायम रहेंगे
तब तक संस्कृति भी कायम कहेगी।
यही
संस्कृति राष्ट्रीयता का आधार होती है। राष्ट्रीयता का
पोषण यानि संस्कृति का पोषण होता है… इसे ही
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहा जाता है।
सीमाएं
उसी राष्ट्र की विकसित और सुरक्षित रहेंगी... जो सदैव संघर्ष संघर्षरत रहेंगे...
जो लड़ना ही भूल जाएँ वो न स्वयं सुरक्षित रहेंगे, और न ही अपने
राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा ही कर पाएंगे।
आगे
के लेखों में भारत के इतिहास में शूरवीर राजाओं का इतिहास आपके समक्ष रखने का
प्रयास करूँगा।
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