सद्गुरु के उपकारो का बदला चुकाना असम्भव

            भगवान श्रीकृष्ण की कृपा हुई और उद्धवजी आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए । उस समय उद्धवजी की जो मनोदशा हुई उसका वर्णन करते हुए संत एकनाथजी कहते हैं :
            ‘‘उद्धव के मन में विचार उठा कि श्रीकृष्ण ने मेरा उद्धार किया, यह बहुत बड़ा उपकार किया । अब किस तरह उसका बदला चुकाया जाय ?’ वे सोचने लगे कि गुरु को चिंतामणि दिया जाय, लेकिन वह तो मनोवांछित वस्तु देते-देते चिंता ही बढ़ाता है । गुरुभगवान ने तो अचिंत्य वस्तु दी है, इससे तो उसका बदला चुकाया नहीं जा सकता । गुरु को कल्पतरु दिया जाय, लेकिन वह भी मनोवांछित देते-देते कल्पनाओं का ही विस्तार करता है । गुरु ने तो निर्विकल्पता प्रदान की है अतः उसका बदला इससे भी नहीं चुकाया जा सकता । गुरु को पारस दिया जाय, लेकिन उसका धातु (लोहे) से स्पर्श होते ही वह उसे सुवर्ण बनाता है । गुरुदेव के चरणस्पर्श (उनके स्वरूप में विश्रांति) मात्र से ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति होती है अतः पारस देने से भी उसका बदला चुकाया नहीं जा सकता । गुरु को यदि कामधेनु लाकर दें तो वह धन आदि दे के कामनाएँ ही बढ़ाती है और गुरु तो निष्कामतापूर्वक निर्गुण (तत्त्व) का दान देते हैं, अतः उसका बदला चुकाने के लिए कामधेनु भी उपयुक्त नहीं है । त्रिभुवन की सारी उत्तम सम्पत्ति गुरु को दी जाय, लेकिन वह भी मायिक (माया से उत्पन्न) है । जिन्होंने अमायिक (मायारहित) वस्तु का दान दिया है उनके ऋण से लोग किस प्रकार मुक्त हो पायेंगे ?
            देह से गुरु के उपकार का बदला चुकाने जायें, लेकिन वह तो नश्वर है । नश्वर देकर अनश्वर की प्राप्ति का बदला चुकाया नहीं जा सकता । गुरु को प्राण देकर उनके उपकार का बदला चुकाने जायें लेकिन वे तो मिथ्या हैं । जिन्होंने हमें सत्य ब्रह्म का दान दिया है, उन्हें मिथ्या देते समय लज्जा नहीं आयेगी ? यह तो ऐसी बात हो जायेगी जैसे जिन्होंने हमें अनमोल रत्न दिया है उन्हें हम वंध्या-पुत्र (जो तीनों कालों में सम्भव नहीं) दें । ऐसे ही जीवभाव मिथ्या होने के कारण उससे उनके उपकार का बदला चुकाया नहीं जा सकता ।
            इस प्रकार विचार करके उद्धव ने अच्छी तरह यह जान लिया कि तन, मन, धन, वाणी और प्राण अर्पण करने से भी गुरु के उपकार का बदला चुकाया नहीं जा सकता । जिसमें अणुमात्र भी दुःख नहीं है ऐसा आत्मसुख का खजाना जिन्होंने दिया है, उन गुरु के उपकार का बदला चुकाने का शिष्य के पास कोई उपाय नहीं है । इसलिए उद्धव ने मौन रहना ही उचित समझकर भगवान को दंडवत् प्रणाम किया और उनके चरणों में अपना मैंपूर्णतः अर्पित कर दिया ।’’ 


(श्रीमद् एकनाथी भागवत, अध्याय 29 से)