अष्टावक्र
गीता - श्री अष्टावक्र गीता पर पूज्य श्री के अमृतवचन।
राजदरबार में एक
सम्राट बैठा था सिंहासन पर। पास में एक दीया जल रहा था। नर्तकी आयी, खूब
नाची। सम्राट कहने लगाः “वाह-वाह !…. क्या
मजा है !” सभासदों ने तालियाँ बजायीं। नर्तकी को इनाम
मिला। इतने में तबलची साज बजाने में गड़बड़ी करते हैं और नर्तकी के चेहरे पर बारह
बज जाते हैं और सम्राट को मजा नहीं आता। नर्तकी को ताड़न मिलता है।
अब
जब नर्तकी अच्छा नाचती है, सम्राट को मजा आता है, सभासद
तालियाँ बजाते हैं और नर्तकी को इनाम मिलता है तब भी दीया ज्यों-का-त्यों प्रकाशित
है। और नर्तकी अच्छा नहीं नाचती, उसको ताड़न मिलता है तब दीया
ज्यों-का-त्यों प्रकाशित है। सभा के लोग चले जाते हैं तब भी दीया ज्यों का त्यों
है।
इस
शरीररूपी महल में भी ऐसा ही है। नर्तकी क्या है ? बुद्धि है। सभा
के लोग जो हैं वे इन्द्रियाँ हैं। राजा मनीराम (मन), अहंकार है। यह
जब खुश होता है तब भी तुम दीये की नाईं उसकी खुशी के साक्षी हो। तुम्हारी बुद्धि
नाचती है…. ‘तक धिना धिन धिन धिन धा धिन धिन तक तक धिन धा….’ करती
है, उस समय भी तुम देखते हो और तुम्हारी बुद्धि उलटे निर्णय करती है तब
भी तुम देखते हो। तुम सबके प्रकाशक, एक, असंग….. असंग
आत्मा, प्रकाशस्वरूप हो।
बुल्लेशाह
ने इसी बात को कहाः ‘चांदणा कुल जहान का तू….’ तेरी
आँखों का, तेरी बुद्धि का, तेरे मन का, तेरे
अहंकार का प्रकाशक तू है।
अहंकार
कभी तो धन को मेरा मानकर गर्व करता है, कभी मित्रों को
मेरा मान के गर्व करता है तो कभी विद्या, मकान, बैंके
के पैसों को मेरा मान के गर्व करता है। तो यह अहंकाररूपी राजा कभी मूँछों पर ताव
देता है, कभी मूँछें नीची करता है। यह सब कुछ तुम देख
रहे हो कि नहीं ? देख रहे हो। ईमानदारी से कहो जरा….. हाँ
!
तुम्हारा
अहंकार धन का गर्व करता है। धन तो बैंक में है, अहंकार कहता हैः
‘मेरा धन।’ जेवर तो तिजोरी में पड़े हैं, अहंकार
कहता हैः ‘जेवर मेरे, मैं जेवरवाली।’ जेवरों
को तो पता नहीं कि ‘मैं उसका हूँ।’ लेकिन तुम्हारा
अहंकार गर्व करता है कि ‘जेवर हमारे, धन
हमारा, अँगूठी हमारी, कपड़े हमारे….।’ इन
सबकी याद आती है तो जरा अकड़ आ जाती है। गरीबी की याद आती है तो सिकुड़न आ जाती
है। गरीबी की याद आती है तो सिकुड़न आ जाती है। अकड़ और सिकुड़न जिसको आती है वह
अहंकार है। उन दोनों को तुम जानते हो कि नहीं जानते हो ? सच
बताना।
अष्टावक्र
जी यही कह रहे हैं, तुम्हारे घर की बात कह रहे हैं। बुद्ध पैदा हुए, 7
कदम चले उसके बाद उन्होंने सनातन सत्य कहा लेकिन अष्टावक्र जी एक भी कदम नहीं चले, माता
के गर्भ में ही घोषणा कर दीः ‘मैं शुद्ध हूँ, मैं
बुद्ध हूँ, मैं अजन्मा हूँ, मैं निर्विकारी
हूँ, मैं चैतन्य हूँ।’ मदालसा के पुत्रों से मदालसा ने पयपान
कराते हुए ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की घोषणा करा दी
और हम 50-50, 40-40, 30-30 साल के बैल हो गये और अपने को आत्मा
मानने में डरते हैं। अपने को ब्राह्मण मानते हैं, क्षत्रिय मानते
हैं ! अष्टावक्र जी इस सब कल्पित मान्यताओं को उड़ा देते हैं- “तू
ब्राह्मण नहीं, तू क्षत्रिय नहीं। तू किसी मत पंथवाला नहीं…. तू
देह ही नहीं है तो ब्राह्मण कहाँ से हुआ ?” आद्य शंकराचार्य
जी कहते हैं-
चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्।
तो
जैसे दीया बाह्य पदार्थों को प्रकाशित करता है, ऐसे ही तुम्हारा
साक्षी आत्मा सबको प्रकाशित करता है।
बुल्लेशाह ने कहाः
चांदणा कुल जहान का तू, तेरे
आसरे होय व्यवहार सारा।
तू सब दी आँख में चमकदा है, हाय
चांदणा तुझे सूझता अँधियारा।।
जागना सोना नित ख्वाब तीनों, होवे
तेरे आगे कई बारह।
बुल्लाशाह प्रकाश स्वरूप है, इक
तेरा घट वध न होवे यारा।।
रोज
जाग्रत अवस्था बदल जाती है, स्वप्न बदल जाते हैं, सुषुप्ति
बदल जाती है लेकिन उन सबका द्रष्टा कभी नहीं बदला। वह तेरा प्रकाशस्वरूप आत्मा एक
ही है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून
2017, पृष्ठ संख्या 23,24 अंक 294
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