ज्ञान, रक्षा, धन एवं श्रम शक्ति सनातनी राष्ट्र के आधार : श्रीभागवतानंद गुरु

                   ज्ञान, रक्षा, धन एवं श्रम शक्ति सनातनी राष्ट्र के आधार : श्रीभागवतानंद गुरु देश की अग्रणी अलुमिनियम कंपनी हिंडाल्को के मुरी इकाई में चल रहे पंचदिवसीय समारोह में पधारे हुए धार्मिक प्रवक्ता एवं जाने माने लेखक सह धर्मगुरु श्रीभागवतानंद गुरु ने अपने व्याख्यान में सर्वहितकारी सनातनी राष्ट्र की स्थापना पर जोर दिया। हिन्दू धर्म के चारों वर्णों की महत्वपूर्ण कर्तव्यपरायणता पर बोलते हुए श्रीभागवतानंद ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के कर्तव्य एवं अधिकारों के विषय में लोगों को अवगत कराया।

                   अपने व्यक्तव्य में महामहिम ने ज्ञानशक्ति, रक्षाशक्ति, धनशक्ति एवं श्रमशक्ति के विषय में बोलते हुए कहा कि ज्ञान को ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति माना गया है। वास्तविक वस्तु वह है जो सदैव रहने वाली हो संसार में हर वस्तु काल पाकर नष्ट हो जाती है। धन नष्ट हो जाता है, तन जर्जर हो जाता है, साथी और सहयोगी छूट जाते हैं। केवल ज्ञान ही एक ऐसा अक्षय तत्व है, जो कहीं भी किसी अवस्था और किसी काल में मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता।
                   नियम पालनकर्ता, सत्य के अनुसार चलने वाला, , कुशलप्रशासक, दृढसंकल्पशरणागत की रक्षा करने वाला, दूरदर्शी, चरित्रवान, शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्व में से न भागना, दान देना और स्वामिभाव- ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं।
                   वेदों में क्षत्रियों के लिए लिखा है उसमें ''क्षतात्च ते इति क्षत्रिय'' अर्थात् जो वर्ग कमजोरों की सहायता करे और रक्षा करें वो क्षत्रिय है। उस काल में क्षत्रियों के नियम थे असहाय की रक्षा करना, देशद्रोहियों को दण्ड देना, इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना, बूढ़ों और विद्वानों की सेवा करना, धैर्यवान होना, युद्व से नहीं डरना, यज्ञ करना और दान देना क्षत्रियों के गुण है।
                   धन की आवश्यकता हमारे सभी कार्यों के मूल में है। धन का महत्त्व इसी बात से सिद्ध होता है कि धन के बगैर हम तकरीबन सभी धार्मिक कार्यों को नहीं कर सकते। (मीठी वाणी बोलने आदि के कार्यों के द्वारा हम बिना धन के व्यय के दूसरों को सुख पहुँचा सकते हैं।) इसीलिए हमारी संस्कृति में धन के अभाव को बहुत बड़़ा अभिशाप माना जाता है। जहाँ यह सत्य है कि तकरीबन सभी दूसरों की भलार्इ के कार्यों के लिए धन की आवश्यकता होती है वहां यह भी सत्य है कि धन की बुरार्इयों को अपनी ओर खींचने की क्षमता अकथनीय है।
                   इस दुविधा को दूर करने के लिए हमारी संस्कृति ने एक मार्ग सुझाया है। यह मार्ग है 'त्याग' का। अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए, दूसरों की भलार्इ के लिए व ध्यान के लिए धन की सहायता से उचित साधन जुटाये जाए परन्तु उनका उपभोग त्याग की भावना से किया जाए।
                   श्रम अपने आप में ही एक लक्ष्य है । श्रम करके चित्त प्रसन्न होता है । देह तंदरूस्त रहती है । व्यक्ति उन्नति करे अथवा न करे परिवार अथवा समाज में सम्मान मिलता है । किन्तु यह होता नहीं है कि व्यक्ति श्रम करे और वह उन्नति न करे । श्रम करने वाला व्यक्ति सदैव उन्नति करता है । मनुष्य के पास श्रम के अतिरिक्त कोई वास्तविक सम्पत्ति नहीं है । यदि यह कहा जाये कि, श्रम ही जीवन है तो यह गलत न होगा।
                   सेवा धर्म अपनाये बिना किसी श्रेयार्थी का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। इसलिए उसका समावेश जीवन क्रम में निश्चित रूप में करना चाहिए पर साथ ही यह भी परख लेना चाहिए कि अपना प्रयत्न संसार में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए- विश्व-मानव की भावनात्मक सेवा की कसौटी पर खरा उतर रहा है या नहीं?
                   सेवा धर्म ही अध्यात्म का प्रतिफल है। परमार्थ पथ पर अग्रसर होने वाले को सेवा-धर्म अपनाना होता है। जिसके हृदय में दया, करुणा, प्रेम और उदारता है वही सच्चा अध्यात्मवादी है। इन सद्गुणों को- दिव्य विभूतियों को- जीवन क्रम में समाविष्ट करने के लिए सेवा धर्म अपनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं।
                   यह दुःख की बात है कि हमारी वर्तमान शिक्षा-नीति हमें श्रम से दूर ले जा रही हैम् आज का युवा-वर्ग कम से कम श्रम कर अधिक से अधिक धन कमाना चाहता है। भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए यह प्रवृत्ति चिंताजनक है। सचमुच परिश्रम वह मणि है , जिसके स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है, इसलिए श्रम से दूर भागना स्वस्थ मनोवृत्ति का सूचक नहीं है।
                   धन, जन को भी मनुष्य की एक शक्ति माना गया है। किन्तु यह उसकी वास्तविक शक्तियाँ नहीं है। इनका भी मूल स्रोत ज्ञान ही है। ज्ञान के आधार पर ही धन की उपलब्धि होती है और ज्ञान के बल पर ही समाज में लोगों को अपना सहायक तथा सहयोगी बनाया जाता है। अज्ञानी व्यक्ति के लिये संसार की कोई वस्तु सम्भव नहीं।
                   धन के लिये व्यापार किया जाता है, नौकरी और शिल्पों का अवलंबन किया जाता है, कला-कौशल की सिद्धि की जाती है। किन्तु इनकी उपलब्धि से पूर्व मनुष्य को इनके योग्य ज्ञान का अर्जन करना पड़ता है। यदि वह इन उपायों के विषय में अज्ञानी बना रहे तो किसी भी प्रकार इन विशेषताओं की सिद्धि नहीं कर सकता और तब फलस्वरूप धन से सर्वथा वंचित ही रह जायेगा। अतः सनातनी राष्ट्र की स्थापना के लिए धर्मानुसार ज्ञान, रक्षा, धन एवं श्रम शक्ति की मर्यादित आवश्यकता वर्तमान समाज को है।