भगवान को सौंपकर निर्भार हो जाओ !
एक साधु भिक्षा
लेने एक घर में गये। उस घर में माई भोजन बना रही थी और पास में बैठी उसकी लगभग 8
वर्ष की पुत्री बिलख-बिलख कर रो रही थी। साधु का हृदय करुणा से भर गया, वे
बोलेः “माता ! यह बच्ची क्यों रो रही है ?”
माँ भी रोने लगी, बोलीः
“महाराज जी ! आज रक्षाबंधन है। मुझे कोई पुत्र नहीं है। मेरी बिटिया
मुझसे पूछ रही है कि ‘मैं किसके हाथ पर राखी बाँधूँ ?’ समझ
में नहीं आता कि मैं क्या उत्तर दूँ, इसके पिता जी भी
नहीं हैं।”
साधु ऊँची स्थिति के धनी थे, बोलेः
“हे भगवान ! मैं साधु बन गया तो क्या मैं किसी का भाई नहीं बन सकता !” बालिका
की तरफ हाथ बढ़ाया और बोलेः “बहन ! मैं तुम्हारा भाई हूँ, मेरे
हाथ पर राखी बाँधो।”
साधु ने राखी बँधवायी और लीला नामक उस
बालिका के भाई बन गये। लीला बड़ी हुई, उसका विवाह हो गया। कुछ वर्षों बाद उसके पेट में
कैंसर हो गया। अस्पताल में लीला अंतिम श्वास गिन रही थी। घर वालों ने उसकी अंतिम
इच्छा पूछी।
लीला ने कहाः “मेरे
भाई साहब को बुलवा दीजिए।”
साधु महाराज ने अस्पताल में ज्यों ही
लीला के कमरे में प्रवेश किया, त्यों ही लीला जोर-जोर से बोलने लगीः “भाई
साहब ! कहाँ है भगवान ? कह दो उसे कि या तो लीला की पीड़ा हर
ले या प्राण हर ले, अब मुझसे कैंसर की पीड़ा सही नहीं जाती।”
लीला लगातार अपनी प्रार्थना दोहराये जा
रही थी। साधु महाराज लीला के पास पहुँचे और उन्होंने शांत भाव से कुछ क्षणों के
लिए आँखें बंद कीं, फिर अपने कंधे पर रखा वस्त्र लीला की तरफ फेंका
और बोलेः “जाओ बहन ! या तो प्रभु तुम्हारी पीड़ा हर लेंगे
या प्राण हर लेंगे।”
उनका बोलना, वस्त्र
का गिरना और लीला का उठकर खड़े हो जाना – सब एक साथ हो
गया। लीला बोल उठीः “कहाँ है कैंसर ! मैं एकदम ठीक हूँ, घर
चलो।”
लीला की जाँच की गयी, कैंसर
का नामोनिशान नहीं मिला। घर आकर साधु ने हँसकर पूछाः “लीला
! अभी मर जाती तो ?”
लीला बोलीः “मुझे
अपने दोनों छोटे बच्चों की याद आ रही थी, उनकी चिंता हो
रही थी।”
“इसलिए प्रभु ने तुम्हें प्राणशक्ति दी
है, बच्चों की सेवा करो, बंधन तोड़ दो, मरने
के लिए तैयार हो जाओ।” ऐसा कहकर साधु चले गये।
लीला सेवा करने लगी, बच्चे
अब चाचा, चाची के पास अधिक रहने लगे। ठीक एक वर्ष बाद
पुनः लीला के पेट में पहले से जबरदस्त कैंसर हुआ, वही अस्पताल, वही
वार्ड, संयोग से वही पलंग ! लीला ने अंतिम इच्छा बतायीः “मेरे
भाई साहब को बुलाइये।”
साधु बहन के पास पहुँचे, पूछाः
“क्या हाल है ?”
लीला एकदम शांत थी, उसने
अपने भाई का हाथ अपने सिर पर रखा, वंदना की और बोलीः “भाई
साहब ! मैं शरीर नहीं हूँ, मैं अमर आत्मा हूँ, मैं
प्रभु की हूँ, मैं मुक्त हूँ….” कहते-कहते ॐकार
का उच्चारण करके लीला ने शरीर त्याग दिया।
लीला के पति दुःखी होकर रोने लगे। साधु
महाराज उन्हें समझाते हुए बोलेः “भैया ! क्यों रोते हो ? अब
लीला का जन्म नहीं होगा, लीला मुक्त हो गयी।” फिर
वे हँसे और दुबारा बोलेः “हम जिसका हाथ पकड़ लेते हैं, उसे
मुक्त करके ही छोड़ते हैं।”
पति का दुःख कम हुआ। उन्होंने पूछाः “महाराज
! गत वर्ष लीला तत्काल ठीक कैसे हो गयी थी, आपने क्या किया
था ?”
“गत वर्ष लीला ने बार-बार मुझसे पीड़ा
या प्राण हर लेने के लिए प्रभु से प्रार्थना करने को कहा। मैंने प्रभु से कहाः ‘हे
भगवान ! अब तक लीला मेरी बहन थी, इस क्षण के बाद वह आपकी बहन है, अब
आप ही सँभालिये।’ प्रभु पर छोड़ते ही प्रभु ने अपनी बहन को ठीक
कर दिया। यह है प्रभु पर छोड़ने की महिमा !”
ऐसे ही जब आपके जीवन में कोई ऐसी
समस्या, दुःख, मुसीबत आये
जिसका आपके हल न हो तो आप भी घबराना नहीं बल्कि किसी एकांत कमरे में चले जाना और
भगवान, सदगुरु के चरणों में प्रार्थना करके सब कुछ उनको सौंप देना और शांत
निर्भार हो जाना। फिर जिसमें आपका परम मंगल होगा, परम हितैषी
परमात्मा वही करेंगे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2016, पृष्ठ संख्या 24,25
अंक 281
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