यजमान और कथावाचक मिल कर नष्ट कर रहे धर्म को : श्रीभागवतानंद गुरु
                                 झारखण्ड की राजधानी रांची में स्थित आदित्य बिड़ला समूह की हिंडाल्को कंपनी की मुरी औद्योगिक इकाई में चल रहे श्रीमद्भगवद्गीता विवेचना समारोह के तीसरे दिन पधारे हुए आर्यावर्त सनातन वाहिनी "धर्मराज" के राष्ट्रीय महानिदेशक एवं सनातनी व्याख्याता श्रीभागवतानंद गुरु ने कंपनी के प्रबंधकों को संबोधित करते हुए श्रोता एवं वक्ता के लक्षणों पर चर्चा की।
                  उन्होंने आधुनिक कथावाचकों के ऊपर कटाक्ष करके हुए कहा कि वर्तमान में सनातन धर्म के पतन का सबसे बड़ा कारण कथावाचक जन ही हैं। पद्मपुराण का उदाहरण देते हुए श्रीगुरु ने कहा :-

विप्रैर्भागवती वार्ता गेहे गेहे जने जने।
कारिता कणलोभेन कथासारस्ततो गतः॥

                 अर्थात् धन के लोभ से अधिकारी एवं अनधिकारी का विचार किये बिना ही, पात्र और कुपात्र का विचार किये बिना ही आधुनिक कथावाचकों ने सर्वत्र ही श्रीमद्भागवत की कथा कहनी प्रारम्भ कर दी है। जिसके कारण उसका मूल स्वरूप और उद्देश्य नष्ट होता जा रहा है।

                यजमानों के ऊपर आक्रोश व्यक्त करते हुए महामहिम ने श्रीमद्भगवद्गीता का उद्धरण देते हुए कहा :-

आढ्योभिजनवानोऽस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञान विमोहिताः॥

                अर्थात् धन और पद के अहंकार से ग्रस्त यजमानगण इस प्रकार से देवताओं का पूजन करते हैं, मानो उन पर एहसान कर रहे हों। कर्तापन के अहंकार के कारण यज्ञ, दान, इत्यादि में स्वयं के समान किसी और को न समझते हुए ये लोग बाह्य आडम्बर के अज्ञान से मोहित हुए चित्त के कारण धर्मलाभ से वंचित रह जाते हैं। श्रीभागवतानंद गुरु जी ने बताया कि व्यास का अर्थ है, विस्तार और उचित विभाजनीय वर्गीकरण। जिस स्थान से शास्त्रों के गूढ़ भाव, तत्वोपासक ज्ञानार्थ का विभाजन, विस्तार हो वह व्यास पीठ है।

भाति यः सर्ववेदेषु गतिः त्रैलोक्यगामिनी।
वदन्ति सज्जनाः सर्वे तरन्ति तु भवार्णवात्॥

                 जो समस्त वेदों में व्याप्त है, जिसकी त्रैलोक्य गामिनी गति है, जिसे सन्त जन बोलकर संसार सागर से तरते हैं, वह भागवत है।
               श्रीभागवतानंद गुरु जी ने कथावाचकों की शास्त्रनिष्ठा एवं गूढार्थ मनन पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए यह कहा कि पूर्वकाल में श्रोता और वक्ता के मध्य प्रश्नोत्तर सत्र होते थे। लोगों की जिज्ञासाओं का शमन व्यासमंच से होता था। परंतु अब वह परम्परा लुप्तप्राय हो गयी है। अभिनेत्रियों की भांति बाह्य आडम्बर एवं भौतिक सजावट से युक्त होकर रटी रटाई कथावाचन करके एवं भजन प्रधान मनोरंजन करके लोग अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं एवं स्वयं को ब्रह्मवेत्ता बताते हुए मोक्ष का मार्गदर्शक मान बैठते हैं।

              पद्मपुराण में वर्णित श्रीमद्भागवत कथा के माहात्म्य में  हरिकीर्तन का वर्णन है। नवधा भक्ति उपाख्यान में भी गानयोग का आश्रय लेकर कथा की बात आती है, जिसके आचार्य देवर्षि नारद एवं कृष्णानुरागिणी सत्यभामा आदि देवियां हैं।
                   परंतु यह ध्यान रहे कि कथा में संगीत का समावेश व्यंजनलवणवत् हो। अर्थात् अधिक तो न हो, लेकिन बिल्कुल भी रहित न हो। अधिक होने से गूढार्थ का लोप होगा और न होने से रस का लोप। अतः कथावाचक को चाहिए कि प्रसंगानुसार और करुण, श्रृंगार, गाम्भीर्य, विरह आदि रसानुसार शास्त्रोक्त छंदबद्ध गानयोग सम्मत संगीत का आश्रय लेते हुए कथा का उपक्रम करे।
                      सम्प्रति सर्वत्र ही धनलोभ से अधिकारी एवं अनधिकारी का विचार किये बिना ही केवल सात्विक मनोरंजन प्रधान कथा होने से सारभूत भगवत्प्राप्ति का लोप हो रहा है। अतः संगीत, ज्ञान एवं विरक्ति के मध्य सन्तुलन आवश्यक है।
                   श्रीभागवतानंद गुरु ने अपने व्याख्यान में आगे कहा कि पूर्वकाल में कथावाचकों में निःस्वार्थता एवं शास्त्रनिष्ठा थी। वे धन की अपेक्षा पात्र की भावना को प्रधानता देते थे। अतएव जब देवराज इंद्र इत्यादि उनके पास श्रीमद्भागवत की कथा सुनने के लिए आये तो शुकदेव जी ने उन्हें धर्म का सौदागर बताते हुए उपहास किया एवं कथा नहीं सुनाई। परंतु श्रापदग्ध जीवन वाले राजा परीक्षित् को निःस्वार्थ भाव से कथालाभ दिया।