सेवा का सिद्धान्त

                संत महापुरुष आत्मसाक्षात्कार जैसी पराकाष्ठा पर पहुँचने के बाद भी सर्वमांगल्य के भाव से समाज की सेवा में स्वयं भी रत रहते हैं और अपने सम्पर्क में आने वालों को भी लगाते हैं। जीवन्मुक्त महापुरुषों के लिए सेवा-सत्कर्म करने का कोई कर्तव्य या बंधन नहीं होता फिर भी समाज को उनके द्वारा सत्कर्म स्वाभाविक रूप से होते रहते हैं।
                एक दिन कुछ अतिथि संत टेऊँरामजी के दर्शनार्थ उऩके आश्रम में आये। आश्रम के सेवाधारी उस समय वहाँ नहीं थे। टेऊँराम जी ने किसी भी सेवाधारी को न बुलाकर स्वयं उन अतिथियों को आसन दिया, पानी पिलाया, भोजन कराया।
अतिथि बोलेः श्री गुरु महाराज जी अभी कहाँ होंगे ? हम उनके सत्संग-दर्शन हेतु ही आये हैं।
अभी आप विश्राम करें, शाम को दर्शन कर लेना।
                अतिथियों ने दर्शन की उत्कंठा से किसी से महाराज जी के बारे में पूछा तो वे उन्हें टेऊँरामजी के पास ले गये। टेऊँराम जी को देखकर अतिथिगण आश्चर्य से विस्मित हो उठे, बोलेः अरे, यह क्या ! इन्होंने ही तो दोपहर में हमारी सेवा की थी। हमसे तो बड़ी भूल हो गयी।
                अतिथिगण क्षमायाचना करने लगे। टेऊँराम जी बड़े स्नेहभाव से कहाः बाबा ! आप चिंता न करें, हम भी सेवाधारी हैं।
                संत टेऊँराम जी कहते थेः सेवा भी एक प्रकार की भक्ति है। इससे अंतःकरण शुद्ध और पवित्र होता है। शुद्ध अंतःकरण वाला ही परमात्मा की शीघ्र प्राप्ति करता है। सेवा से तन स्वस्थ एवं निरोगी रहता है, मन के विकार अर्थात् अभिमान भी चूर होता है। सेवा से निश्छलता आती है।
श्रद्धा से सत्संग कर सेवा करो निष्काम।
कह टेऊँ तेरे सभी होवहिं पूरण काम।।
यजुर्वेद में भी आता हैः
एष ते योनिर्विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः।
हे जीवात्मन् ! तुझे यह मानव-जीवन मानवों की सेवा और दिव्यताओं का विस्तार करने के लिए मिला है।
                जीवन को उन्नत बनाने हेतु, अपने आत्म-कल्याण के लिए ब्रह्मज्ञानी संतों-महापुरुषों व उनके दैवी कार्यों की सेवा बहुत ऊँचा साधन है। सेवा की महिमा संत-महापुरुष न केवल हमें बताते हैं बल्कि अपने आचरण द्वारा भी समझाते हैं।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2017, पृष्ठ संख्या 7, अंक 294

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