वेदांगों में शिक्षा वेदांग का स्थान महत्त्वपूर्ण है ।

अंगों में शिक्षा को घ्राण (नासिका) कहा गया है :
--- "शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य ।" आचार्य सायण ने शिक्षा की परिभाषा की है---"स्वरवर्णाद्युच्चारणप्रकारो यत्रोपदिश्यते सा शिक्षा ।" अर्थ---जिस वेदांग में स्वर और वर्ण आदि के उच्चारण की रीति का उपदेश दिया जाता है, वह शिक्षा है । 
                शिक्षा वेदांग में मुख्यतः उच्चारण प्रकार ही है । तैत्तिरीयोपनिषद् (1.1) में इसे और भी स्पष्ट किया गया है---"शिक्षां व्याख्यास्यामः--वर्णः, स्वरः, मात्रा, बलम्, साम, सन्तानः--इत्युक्तः शिक्षाध्यायः ।"

शिक्षा ग्रन्थ में इन छः अंगों का विवेचन किया जाता है---
(1.) वर्णः---अ, इ, उ, क्, ख् आदि वर्णों का उच्चारण ।
(2.) स्वरः--वेदपाठ में प्रयुक्त उदात्त, अनुदात्त और स्वरित का उच्चारण ।
(3.) मात्रा---ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत का उच्चारण ।
(4.) बल---स्थान, प्रयत्न के अनुसार वर्णों का उच्चारण ।
(5.) साम---दोषरहित और माधुर्य आदि गुण सहित उच्चारण ।
(6.) सन्तान---संहिता (सन्धि) के नियमों के अनुसार उच्चारण ।

शिक्षा में तीन प्रकार की रचनाएँ---
(1.) प्रातिशाख्य, (2.) शिक्षा-ग्रन्थ (3.) शिक्षा-सूत्र ।

(1.) प्रातिशाख्य-ग्रन्थ :----
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ये सबसे प्राचीान ग्रन्थ हैं । वेद की प्रत्येक संहिता का, शाखा का अपना प्रातिशाख्य-ग्रन्थ हैं । "प्रतिशाखा" से सम्बन्धित होने के कारण ही इन्हें प्रातिशाख्य कहा जाता है । प्रत्येक शाखा में वेदमन्त्रों के उच्चारण के प्रकार भिन्न-भिन्न है । 
प्रातिशाख्य-ग्रन्थों के विषय---
(1.) वर्ण समाम्नाय---स्वर और व्यञ्जन आदि वर्णों की गणना करना और उनके उच्चारण के नियमों को स्पष्ट करना ।
(2.) सन्धि--दो वर्णों के मिलने पर होने वाले परिवर्तनों का विवेचन ।
(3.) प्रगृह्य सञ्ज्ञा---पदों के विभाग के नियमों को स्पष्ट करना तथा अपवाद नियमों को बतलाना ।
(4.) उदात्त-अनुदात्त शब्दों की गणना, स्वरित के भेद बतलाना और आख्यात स्वर को स्पष्ट करना ।
(5.) संहितापाठ और पदपाठ में भेद दिखलाने वाले नियमों की व्याख्या और सत्व, षत्व और दीर्घ का विवरण ।
(6.) विभिन्न प्रातिशाख्य में विभिन्न पाठ ।
(7.) साम-प्रातिशाख्य में विभिन्न रीतियों का वर्णन, जैसे--प्रश्लेष, विश्लेष, कृष्ट, अकृष्ट संकृष्ट आदि उच्चारण में होने वाले भेदों का वर्णन ।

सम्प्रति उपलब्ध प्रातिशाख्य-ग्रन्थः---
(क) ऋग्वेद---(1.) ऋक्प्रातिशाख्य,
(ख) शुक्लयजुर्वेदः--(2.) वाजसनेयिप्रातिशाख्य,
(ग) कृष्णयजुर्वेदः--(3.) तैत्तिरीय-प्रातिशाख्य,
(घ) सामवेद---(4.) पुष्पसूत्र प्रातिशाख्य, (5.) ऋक्तन्त्र प्रातिशाख्य,
(ङ) अथर्ववेद---(6.) अथर्ववेद-प्रातिशाख्य सूत्र, (7.) अथर्व प्रातिशाख्य, (8.) चतुरध्यायिका ।

संहितापाठ और पदपाठ के द्वारा वैदिक संहिताओं के स्वरूप को सुरक्षित रखा गया है ।
प्रातिशाख्य की विषय-सामग्री---(1.) मन्त्रों का उच्चारण, (2.) मन्त्रों में स्वर-विधान, (3.) सन्धि, (4.) आवश्यकतानुसार छन्द के कारण ह्रस्व के स्थान में दीर्घ का विधान, (5.) संहितापाठ को पदपाठ में बदलने के नियम ।
प्रातिशाख्य व्याकरण के आदि ग्रन्थ माने जाते हैं । यद्यपि प्रातिशाख्य स्वयं व्याकरण-ग्रन्थ नहीं है, तथापि इनमें व्याकरण के मूलभूत सिद्धान्त स्थापित है ।

(2.) शिक्षा-ग्रन्थ :---
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          प्रातिशाख्य-ग्रन्थों के आधार पर शिक्षा-ग्रन्थों की रचना हुई है । ये कारिकाओं में उपलब्ध है । इनकी संख्या अनिश्चित है । सम्प्रति 11 शिक्षा-ग्रन्थ उपलब्ध हैं--
(1.) पाणिनीय शिक्षा, (2.) याज्ञवल्क्य-शिक्षा, (3.) वाशिष्ठी शिक्षा, (4.) कात्यायनी, (5.) पाराशरी, (6.) माण्डव्यी, (7.) अमोघानन्दिनी, (8.) माध्यन्दिनी, (9.) केशवी, (10.) नारदीया, (11.) माण्डूकी शिक्षा ।
शिक्षा-ग्रन्थों के विषयः--
(1.) शुद्ध-उच्चारण का महत्त्व,
(2.) शुद्ध-उच्चारण के नियम,
(3.) पाठक के गुण,
(4.) पाठक के दोष ।

(3.) शिक्षा-सूत्र :---
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               इन शिक्षाओं के अतिरिक्त अन्य प्राचीन शिक्षासूत्र भी उपलब्ध होते हैं, जैसे--आपिशली, पाणिनि और चन्द्रगोमी । शिक्षासूत्रों में वर्णों की उत्पत्ति के स्थान और वर्णों के उच्चारण में होने वाले प्रयत्न आदि पर प्रकाश डाला गया है ।
               सृष्टि के आदि में ऋषियों, मनीषियों ने भाषा का बहुत ही सूक्ष्म विवेचन किया था । भारत में भाषाशास्त्र (आधुनिक भाषाविज्ञान) के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से शिक्षा-वेदाङ्ग का बहुत महत्त्व है ।।