सच्चे सुख का मार्ग।
संयम ही सुख का मार्ग से ही हम अपने मन को साधना चाहते हैं, तो मात्र
विकारों के उन्मूलन से ही इस लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता। मान लिया जाए कि
निरंतर प्रयास करते रहने से हमारे अंदर सुसंस्कार की प्रतिस्थापना हो जाती है।
लेकिन हमारे अंदर जो अच्छे संस्कार पहले से मौजूद हैं, वे
किसी भी हालत में खिसकने नहीं चाहिए। संभव है कि उनके स्थान पर गलत संस्कार या
विचार आकर डेरा डाल लें और हमारी साधना बेकार हो जाए! संक्षेप में कहें, तो
नकारात्मक के स्थान पर सकारात्मक विचारों का प्रतिस्थापन तथा उनका संचयन ही साधना
है। सच तो यह है कि साधना के लिए हमें स्वयं से ही लगातार संघर्ष करना पड़ता है, लेकिन
यह केवल बाहरी संघर्ष नहीं, बल्कि आंतरिक संघर्ष होना चाहिए। मन से
निकले विचार हम जैसा व्यवहार करते हैं, उसके मूल में
हमारे विचार ही होते हैं, क्योंकि विचारों का उद्गम स्थल है
हमारा मन। इसीलिए मन की साधना ही वास्तविक साधना है।
दरअसल, जब
हम संयम की बात करते हैं, तो मन के संयम की ही बात होती है, मन
के दमन की नहीं। सच तो यह है कि दमन इंद्रियों का किया जा सकता है, मन
का नहीं। मन तो इंद्रियों का स्वामी होता है। इसलिए उसका दमन कोई नहीं कर सकता।
लेकिन मन को संयम में कर लें, तो इंद्रियों को वश में करने का रास्ता
मिल जाएगा। और यदि हमारा मन वश में नहीं है, तो इंद्रियों को
बेकाबू होने से रोकना असंभव है।
बिना मन को साधे इंद्रियों पर लगाम लगाना ही दमन कहलाता
है।
संयम से सुख यह
सच है कि यदि हम अपनी किसी इच्छा का दमन करते हैं, तो यह पीड़ादायक
होता है। वहीं दूसरी ओर, संयम से दुख की अनुभूति नहीं होती है, इसलिए
संयम ही श्रेयस्कर है। यदि हम दमन का विश्लेषण करते हैं, तो
पाते हैं कि यह कभी भी स्थायी प्रक्रिया नहीं होती है। दमन के साथ ही उसके विरोध
की प्रक्रिया भी आरंभ हो जाता है। दमन उस स्पि्रंग की तरह है, जिसे
आप ताकत का इस्तेमाल करके दबा तो देते हैं, लेकिन जैसे ही
दबाव कम करते हैं, वह पूरी ताकत से पलटकर आप पर ही वार कर देती
है।
उदाहरण के लिए, यदि
कोई व्यक्ति आम खाना चाहता है और वह अपनी इच्छा का दमन कर देता है, तो
ऐसी स्थिति में उसे निश्चित ही बेचैनी हो जाएगी। यही बेचैनी आगे चलकर उसके दुख का
कारण भी बन सकती है। दूसरी ओर, यदि वह आम खाने की इच्छा का दमन करने
के बजाय अपनी इच्छा ही समाप्त कर दे, तो उसे दुख नहीं
होगा।
आप पूछेंगे, ऐसा
कैसे होगा? तो वास्तव में यह संभव हो पाएगा मन के संयम से
ही। संयम आंतरिक भाव इच्छाओं की पूर्ति के अभाव में मन को दुख होता है, इसलिए
मन में इच्छाओं को पनपने ही न दें। कैसे? यह संभव है मन
के निग्रह यानी संयम द्वारा। जहां संयम मानसिक होता है, वहीं
दमन भौतिक। संयम पूर्णत: आंतरिक भाव है, जबकि दमन बाह्य
प्रक्रिया। दमन से हिंसा तथा अन्य विकारों की उत्पत्ति होती है, जबकि
संयम से अनुशासन और अहिंसा का उदय होता है। अब सवाल यह है कि संयम कैसे करें? जीवन
में संयम का प्रादुर्भाव साधना की सहायता से ही हो सकता है। यह सच है कि साधना सरल
नहीं होती है, लेकिन यह उपाय स्थायी होता है। साधना को हम तप
भी कहते हैं। उदाहरण के लिए लोहे या अन्य धातुओं को अपेक्षित तापमान पर गर्म करके
पिघला लिया जाता है और फिर उसे अपेक्षित सांचे में ढालकर मनचाहा आकार दे दिया जाता
है। ठीक उसी प्रकार, साधना में इच्छाओं को मनचाहा आकार दे दिया जाता
है। इच्छाओं का त्याग अथवा सात्विक इच्छाओं की उत्पत्ति साधना से ही संभव है। इससे
मन और इंद्रियों में द्वंद्व समाप्त हो जाता है। द्वंद्व की समाप्ति ही वास्तविक
उपचार है। यही साधना है। मन की साधना मन की साधना कोई सरल कार्य नहीं है। कृष्ण
अर्जुन से कहते हैं कि मन के निग्रह से सब संभव है, तो अर्जुन इस पर
शंका व्यक्त करते हैं। लेकिन कृष्ण कहते हैं कि यह मुश्किल अवश्य है, पर
असंभव नहीं। अभ्यास और वैराग्य से इसका निग्रह संभव है। संक्षेप में कहें, तो
कहीं भी किसी भी समय अवसर मिलने पर शांत स्थिर होकर बैठ जाएं। ध्यान दें कि आपकी
आंखें बंद होनी चाहिए। इसके साथ ही हम शरीर को निरंतर शिथिल करते चले जाएं।
धीरे-धीरे हमारा मन निर्विकार होना प्रारंभ हो जाता है। जितनी गहन अवस्था में हम
पहुंचते हैं, उतना ही हमें अधिक लाभ होता है। जीवन में हम जो
चाहते हैं, मन की इसी अवस्था में दोहराएं या वह भाव अपने
मन में लाएं। वह भाव जीवन की वास्तविकता में परिवर्तित हो सकता है। ध्यानावस्था के
बाद न केवल मन की चंचलता कम हो जाती है, बल्कि इंद्रियों
की तीव्रता भी कमजोर पड़ जाती है। इसलिए दमन या वाह्य उपचार नहीं, मन
की आंतरिक अवस्था या भाव ही पर्याप्त है। यदि हम अपने भावों को उचित आकार प्रदान
कर दें, तो सारी समस्याओं से निपटा जा सकता है। भाव
प्रदूषण से मुक्त होना ही संयम है और यही वास्तविक साधना है।
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