भागवत की मत्स्यावतार की कथा। अवतार-धारण का कार्य दुष्टों के विनाश और साधू-पुरुषों की रक्षा के लिए होता है। बीते हुए कल्प के अंत में 'ब्राह्म' नामक नैमित्तिक प्रलय हुआ था। प्रलय के पहले की बात है। राजा सत्यव्रत था। भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए तपस्या कर रहे थे। एक दिन जब वे कृतमाला नदी में जल से पितरों का तर्र्पण कर रहे थे, उनकी अंजलि के जल में एक बहुत छोटा- सा मत्स्य आ गया। उसने देखा तो सोचा वापस सागर में डाल दूं लेकिन तब उस मत्स्य ने कहा-'महाराज! मुझे जल में न फेंको। यहाँ ग्राह आदि जल-जंतुओं से मुझे भय है।' यह सुनकर राजा ने उसे अपने कमंडल में रखा। मत्स्य उस में पड़ते ही बड़ा हो गया और पुनः बोला 'राजन! मुझे इससे बड़ा स्थान दो।' उसकी यह बात सुनकर राजा ने उसे एक बड़े जलपात्र (नाद या कुंडा) में डाल दिया। उसमें भी बड़ा होकर मत्स्य राजा से बोला - 'मनो! मुझे कोई विस्तृत स्थान दो।' तब उन्होंने पुनः उसे सरोवर के जल में डाला; किन्तु वहां भी बढ़कर वह सरोवर के बराबर हो गया और बोला 'मुझे इससे बड़ा स्थान दो।' तब उसे फिर समुद्र में ही ले जाकर डाल दिया। वहां वह मत्स्य क्षण भर में एक लाख योजन बड़ा हो गया। उस अद्भुत मत्स्य को देखकर राजा को बड़ा विस्मय हुआ। वे बोले 'आप कौन हैं? निश्चय ही आप भगवान श्रीविष्णु जान पड़ते हैं। नारायण! आपको नमस्कार है। जनार्धन! आप किसलिए अपनी माया से मुझे मोहित कर रहे हैं? राजा ने मछली से वास्तविक स्वरूप में आने की प्रार्थना की। साक्षात चारभुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हो गए और कहा कि ये मेरा मत्स्यावतार है। 'राजन! मैं दुष्टों का नाश और जगत की रक्षा करने के लिए अवतीर्ण हुआ हूँ। आज से सातवे दिन समुद्र सम्पूर्ण जगत को डुबो देगा। उस समय तुम्हारे पास एक नौका होगी। तुम उस पर सब प्रकार के बीज आदि रखकर बैठ जाना। सप्तर्षिभी तुम्हारे साथ रहेंगे। जबतक ब्रह्मा की रात रहेगी, तब तक तुम उसी नाव पर विचरते रहोगे। नाव आने के बाद मैं भी इसी रूप में उपस्थित होऊंगा। उस समय तुम मेरे सींग में महासर्पमयी रस्सी से उस नाव को बांध देना।' ऐसा कहकर भगवान मत्स्य अन्तर्धान हो गए और राजा उनके बताये हुए समय की प्रतीक्षा करते हुए वहीँ रहने लगे। जब नियत समय पर समुद्र अपनी सीमा लाँघ कर बढ़ने लगा, तब वे पूर्वोक्त नौका पर बैठ गए। उसी समय एक सींग धारण करने वाले सुवर्णमय मत्स्यभगवान् का प्रादुर्भाव हुआ। उनका विशाल शरीर दस लाख योजन लम्बा था। उनके सींग में नाव बांध कर राजा ने उनसे 'मत्स्य' नामक पूरण का श्रवण किया, जो सब पापों का नाश करने वाला है। उसको मत्स्यसंहिता का नाम दिया गया। प्रेम से बोलो श्री भागवतपुराण की जय।