ऐसा
कहा जाता है कि काशी के ब्राह्मणों ने रविदास जी की भगवद आराधना को धर्म के
विरुद्ध समझकर राजा के पास शिकायत की। राजा ने इसका
निर्णय भगवान पर ही छोड़ दिया । राज-दरबार में
एक भगवान की मूर्ति रखी गयी । राजा ने कहा कि
जो अपनी प्रार्थना द्वारा मूर्ति को अपने पास बुला लेगा , उसी
की भक्ति सच्ची समझी जायेगी । पंडितों ने
रविदास जी को समाज में नीचा दिखने के लिए एक यह शर्त भी जोड़ दी कि इस परीक्षा में
जिस वर्ग की हार होगी, वह विजयी व्यक्ति को पालकी में बिठाकर
अपने कन्धों पर काशी शहर में घुमायेगा । कहा जाता है कि
ब्राह्मणों ने वैदिक विधि से ज़ोरदार प्रार्थना की परन्तु मूर्ति तनिक भी न हिली । तब
रविदास जी ने अत्यन्त भाव- विभोर होकर यह प्रार्थना की: आयो आयो हौं देवाधिदेव !
तुम सरन आयौ, जनि किरपा कीजौ अपनौ जना ।। सकल सुख की मूल
जाकी नाहीं समतूल, सो चरण मूल पायो । (समतूल - समता, तुल्यता
या बराबरी करना ) लियो विविध जोनि बास, जम की अगम त्रास, तुम्हरे
भजन बिन भ्रमत फिरयो । ममता
अहं विषै मद मातो, (ममता - अपनापन का मोह; विषै - विषय, विकार
) इस दुःख कबहूँ न दुतर तिरयो ।। (दुतर तिरयो -
दुस्तर, जिसे पार करना कठिन हो उसे पार करना ) तुम्हरे नांव बिसास छांडी आन
आस, संसारी धरम मेरो मन न धरीजै । (आन - अन्य)
रविदास दास की सेवा मानहु देवा । पतित पावन नाम
प्रगट करीजै ।। (संत
गुरु रविदास-वाणी, पद -९ ) हे देवाधिदेव ! मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ । अपना
सेवक समझ कर मेरे पर कृपा करो । तुम्हारे उस आदि
चरण को मैंने ग्रहण किया है जो समस्त सुखों का मूल है तथा जिसकी कोई बराबरी नहीं
है । मैंने
अनेक योनियों मैं जन्म लिया, यमराज का भीषण भय मुझे सताता रहा है, तथा
तुम्हारा भजन न करने के कारण मैं जन्म-मरण के चक्र में भटकता फिर रहा हूँ । अपनेपन
का मोह, अहंकार तथा विषय-विकारों के नशे में मैं मतवाला बना फिरता रहाँ हूँ
तथा इस दुःख के कारण कभी भी मैं इस दुस्तर संसार-सागर को पार नहीं मर सका हूँ । सांसारिक
धर्म-कर्म में या बाहरी पूजा-पथ में मेरे मन की कोई आस्था नहीं है । हे
प्रभु ! अपने सेवक रविदास की सेवा स्वीकार कर अब अपने 'पतित-पावन' नाम
को प्रगट करो । इस
भजन के बाद भगवान की मूर्ती रविदास जी की गोद में जा विराजी । ब्राह्मण और
राजा इस को देखकर भौंच्चके रह गए । रविदास जी प्रभु
की कृपा देखकर द्रवित हो गए और आभारस्वरूप में ये पंक्तिया लिखीं: ऐसी लाल तुझ
बिनु कउनु करै ॥ गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्रु धरै ॥१॥ रहाउ ॥ जा की छोति जगत
कउ लागै ता पर तुहीं ढरै ॥ नीचह ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै ॥१॥ नामदेव
कबीरु तिलोचनु सधना सैनु तरै ॥ कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरि जीउ ते सभै सरै
॥२॥१॥ हे प्यारे ! तेरे बिना ऐसा कौन कर सकता है ? मेरा प्रभु
गरीबों पर दया करने वाला है । उसने परे माथे
पर (विजय-वैभव सूचक) छत्र रख दिया है । संसार को जिसकी
छूत लगती है, वैसे अछूत जन पर तू ही अनुग्रह कर सकता है । मेरा प्रभु नीच
को ऊँचा करने वाला है और उसे किसी का भय नहीं है । नामदेव जी, कबीर
साहिब जी, त्रिलोचन जी, सदना जी और सैन जी - ये सभी उसी की
कृपा से तर गए । रविदास
जी कहतें हैं: ऐ संतो ! मेरी बात सुनो, मेरा प्रभु ही
सब कार्यों को पूरा करने वाला है । संत और फकीर जो
भी इनके द्वार पर आते उन्हें बिना पैसे लिये अपने हाथों से बने जूते पहनाते। इनके
इस स्वभाव के कारण घर का खर्च चलाना कठिन हो रहा था। इसलिए इनके पिता ने इन्हें घर
से बाहर अलग रहने के लिए जमीन दे दिया। जमीन के छोटे से टुकड़े में रविदास जी ने
एक कुटिया बना लिया। जूते बनाकर जो कमाई होती उससे संतों की सेवा करते इसके बाद जो
कुछ बच जाता उससे अपना गुजारा कर लेते थे। एक दिन एक ब्राह्मण इनके द्वार आये और
कहा कि गंगा स्नान करने जा रहे हैं एक जूता चाहिए। इन्होंने बिना पैसे लिया
ब्राह्मण को एक जूता दे दिया । इसके बाद एक सुपारी ब्राह्मण को देकर कहा कि, इसे
मेरी ओर से गंगा मैया को दे देना। ब्राह्मण रविदास जी द्वारा दिया गया सुपारी लेकर
गंगा स्नान करने चल पड़ा। गंगा स्नान करने के बाद गंगा मैया की पूजा की और जब चलने
लगा तो अनमने मन से रविदास जी द्वारा दिया सुपारी गंगा में उछाल दिया। तभी एक
चमत्कार हुआ गंगा मैया प्रकट हो गयीं और रविदास जी द्वारा दिया गया सुपारी अपने
हाथ में ले लिया। गंगा मैया ने एक सोने का कंगन ब्राह्मण को दिया और कहा कि इसे ले
जाकर रविदास को दे देना। ब्राह्मण भाव विभोर होकर रविदास जी के पास आया और बोला कि
आज तक गंगा मैया की पूजा मैने की लेकिन गंगा मैया के दर्शन कभी प्राप्त नहीं हुए। लेकिन
आपकी भक्ति का प्रताप ऐसा है कि गंगा मैया ने स्वयं प्रकट होकर आपकी दी हुई सुपारी
को स्वीकार किया और आपको सोने का कंगन दिया है। आपकी कृपा से मुझे भी गंगा मैया के
दर्शन हुए। इस बात की ख़बर पूरे काशी में फैल गयी। रविदास जी के विरोधियों ने इसे
पाखंड बताया और कहा कि अगर रविदास जी सच्चे भक्त हैं तो दूसरा कंगन लाकर दिखाएं।
विरोधियों के कटु वचनों को सुनकर रविदास जी भक्ति में लीन होकर भजन गाने लगे।
रविदास जी चमड़ा साफ करने के लिए एक बर्तन में जल भरकर रखते थे। इस बर्तन में रखे
जल से गंगा मैया प्रकट हुई और दूसरा कंगन रविदास जी को भेंट किया। रविदास जी के
विरोधियों का सिर नीचा हुआ और संत रविदास जी की जय-जयकार होने लगी। इसी समय से यह
दोहा प्रसिद्ध हो गया। "मन चंगा तो कठौती में गंगा।"
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