जैसी दॄष्टि - वैसी सृष्टि एक वृक्ष के नीचे पांच-सात व्यक्ति विश्राम कर रहे थे, कोई नृत्यकार थे, कोई संगीतकार थे, कोई उदासीन संत थे, कोई नौजवान था, जो अभी अभी घर से लड़कर आया था, बड़ा दुःखी और बहुत बेचैन था। आराम कर रहे इन्हीं मनुष्यों में एक लकड़ी का व्यापारी भी था। देखते ही देखते मौसम में बदलाव आया, हवा के तेज झोंके से डालीयाँ-पत्ते झूमने व हिलोरे लेने लगे। ये सब देखकर जो नृत्यकार था वह नृत्य की दुनिया में खो जाता है। और सोचने लगता है की मेरे से भी ज्यादा सुन्दर तो यह वृक्ष नृत्य कर रहा है। इसकी डालियाँ में कितनी लचक है, इसके पत्ते कितने सुन्दर ढंग से झूम रहे है। पेड़ का नृत्य देखकर नृत्यकार विस्माद् की दुनिया में खो जाता है। उसको वृक्ष नाचता हुआ प्रतीत होता है। दूसरा संगीतकार, जब हवा के तेज झोंके पेड़ से स्पर्श करते है, सायं-सायं की आवाज़ बुलन्द होती है, तब वह संगीतकार सुर व संगीत की दुनिया में खो जाता है। और सोचता है सिर्फ मैं ही नहीं गा रहा हूँ यह वृक्ष भी गा रहा है। गीत, संगीत इस वृक्ष से भी निकल रहा है। नृत्यकार को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे वृक्ष नृत्य कर रहा है, संगीतकार को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे पत्ते-पत्ते से संगीत का जन्म हो रहा है। तीसरा, उदासनी महात्मा क्या देखता है, एक सुखा पत्ता हवा के झौके से डाली से टूट कर जमीन पर आ गिरता है। आँखों में आँसू आ गये सन्त के। मुख से शब्द निकला, एक दिन संसार रूपी वृक्ष से ऐसे ही टूटकर गिरना होगा, जैसे पत्ता टूटकर गिर गया। जैसे गिरे हुए पत्ते को पुनः वृक्ष व डालियाँ से जुड़ना असंभव है, वैसे ही मरे हुए मनुष्य को अपने कुटुम्ब सम्बन्धियों से तथा संसार से जुड़ना बहुत असंभव है। और वैराग की दुनिया में खो गया, स्वयं उपराम हो गया कि यहाँ तो सारे पत्ते को झड़ना ही है। चौथा, मनुष्य जो आराम कर रहा था वह लकड़ी का व्यापारी था, वह सोचता है कि अगर यह पेड़ मैं खरीद लूँ तो इस में इमरती लकड़ी कितनी, जलाऊँ लकड़ी कितनी और उस में से बाकी मालवा जो है वह कोपला बना सकेगा कि नहीं ? मैं कितने का यह वृक्ष खरीदूँ, कितने का बेचूँ, क्या मुझे बचेगा ? सोचकर वह व्यापार की दुनिया में खो गया। अब पाँचवा, जो आराम कर रहा था वह एक नौजवान था, अभी-अभी घर से लड़कर आया था, हवा के तेज झौको से जब शाखा-शाखा से टकराती है, पत्ते-पत्तों से टकराते है, वह सोचता है झगड़ा तो यहाँ भी है, शाखा-शाखा से लड़ रही है, पत्ते-पत्तों से लड़ रहे है सिर्फ मेरे घर में ही लड़ाई नहीं है, यहाँ वृक्ष में भी बहुत बड़ी लड़ाई है। सीख-जैसी-जैसी दॄष्टि है मनुष्य की वैसी ही सृष्टि दिखाई देती है अथार्त जैसी नज़र है वैसे ही नज़ारे देखने को मिलते है। वृक्ष एक ही है लेकिन सब के अलग-अलग दॄष्टिकोण से दिखता है। इन्ही अलग-अलग दॄष्टिकोण से ही परमात्मा के अनेक नाम रूप प्रचलित हुए है।