सत्संगति सदा सेवनीय मति कीरति गति भूति भलाई, जो जेहि जतन जहाँ लगि पाई। सो जानब सत्संग प्रभाऊ, लोक न बेद न आन ऊपाऊ।। जिसने जिस समय, जहाँ कहीं भी, जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सदगति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पायी है, सो सब सत्संग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नही है। सत्संग सिद्धि का प्रथम सोपान है। सत्संगति बुद्धि की जड़ता नष्ट करती है, वाणी को सत्य से सींचती है। पुण्य बढ़ाती है, पाप मिटाती है, चित्त को प्रसन्नता से भर देती है, परम सुख के द्वार खोल देती है। एक दासी पुत्र संतों की संगति पाकर देवर्षि नारद बन गया। एक तुच्छ कीड़ा महर्षि वेदव्यासजी की कृपा से मैत्रेय ऋषि बना। शबरी भीलन मतंग ऋषि की कृपा पाकर महान हो गयी। एक अँधा बालक स्वामी अग्रदास जी की कृपा से भक्तमाल के रचयिता नाभाजी महाराज होकर विख्यात हुआ। गुजरात के बावला ग्राम का एक अंध बालक सदगुरु भाईदास जी से भगवन्नाम की दीक्षा पाकर संत प्रीतमदासजी के नाम से विख्यात हुआ। सत्संगति से महान बनने के ऐसे अनेकों उदाहरण शास्त्रों एवं इतिहास में भरे हुए है। प्रार्थना और पुकार से भावनाओं का विकास होता है, भावबल बढ़ता है। प्राणायाम से प्राणबल बढ़ता है, सेवा से क्रिया बल बढ़ता है और सत्संग से समझ बढ़ती है। मनुष्य अपनी बुद्धि से ही प्रत्येक बात का निश्चय नहीं कर सकता। बहुत सी बातों के लिए उसे श्रेष्ठ मतिसम्पन्न मार्गदर्शक एवं समर्थ आश्रयदाता चाहिए। यह सत्संगति से ही सुलभ है। संत कबीर जी के शब्दों में- बहे बहाये जात थे, लोक वेद के साथ। रस्ता में सदगुरु मिले, दीपक दीन्हा हाथ।। सदगुरु भवसागर के प्रकाश-स्तम्भ होते हैं। उनके सान्निध्य से हमें कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान होता है। कहा भी गया हैःसतां संगो हि भेषजम्।'संतजनों की संगति ही औषधि है।' अनेक मनोव्याधियाँ सत्संग से नष्ट हो जाती हैं। संतजनों के प्रति मन में स्वाभाविक अनुराग-भक्ति होने से मनुष्य में उनके सदगुण स्वाभाविक रूप से आने लगते हैं। साधुपुरुषों की संगति से मानस-मल धुल जाता है, इसलिए संतजनों को चलता फिरता तीर्थ भी कहते हैं। तीर्थभूता हि साधवः। मुदमंगलमय संत समाजू। जिमि जग जंगम तीरथराजू।। 'संतों का समाज आनंद और कल्याणमय है, जो जगत में चलता फिरता तीर्थराज है।' सत्संगति कल्याणका मूल है और कुसंगति पतन का। कुसंगति पहले तो मीठी लगती है पर इसका फल बहुत ही कड़वा होता है। पवन के संग से धूल आकाश में ऊँची चढ़ जाती है और वही नीचे की ओर बहने वाले जल के संग से कीचड़ में मिल जाती है यह संग का प्रभाव ही। दुर्जनों के प्रति आकर्षित होने से मनुष्य को अंत में धोखा ही खाना पड़ता है। कुसंगति से आत्मनाश, बुद्धि-विनाश होना अनिवार्य है। दुर्जनों के बीच में मनुष्य की विवेकशक्ति उसी प्रकार मंद हो जाती है, जैसे अंधकार में दृष्टि। बहुत से अयोग्य व्यक्ति मिलकर भी आत्मोद्धार का मार्ग उसी प्रकार नहीं ढूँढ सकते, जैसे सौ अंधे मिलकर देखने में समर्थ नहीं होते। कुसंगति से व्यक्ति परमार्थ के मार्ग से पतित हो जाता है। अंधे को अंधा मिले, छूटै कौन उपाय। कुसंगति के कारण मनुष्य को समाज में अप्रतिष्ठा और अपकीर्ति मिलती है। दुर्जनों की संगति से सज्जन भी अप्रशंसनीय हो जाते है। अतः कुसंगति का शीघ्रातिशीघ्र परित्याग करके सदा सत्संगति करनी चाहिए। पूज्य बापू जी कहते हैं-"सत्संग से ही मानव को उत्तम मार्ग, उत्तम कार्य और उत्तम जीवन की तरफ जाने का सही मार्ग मिल सकता है। साधुसंग अति पापी को भी पुण्यात्मा बना देता है। अति घृणितको भी श्रेष्ठ बनाने का सामर्थ्य रखता है। श्रेष्ठ पुरुषों की संगति से अज्ञान, अहंकार मिटते हैं। सत्संग से पाप-ताप नष्ट होते जाते हैं और पाप करने की रूचि भी कम हो जाती है। सत्संग से बल बढ़ता है, सारी दुर्बलताएँ दूर होने लगती हैं। परमात्मा सर्वत्र है, सुलभ हैं लेकिन उनका अनुभव करने वाले महात्मा दुर्लभ हैं। ऐसे महात्माओं का संग मिल जाय और उनके रंग में हम रंग जायें तो कहना ही क्या! स्कूल कालेज की पढ़ाई में तो परिश्रम करना पड़ता है और बाद में मिलता है कंकड़-पत्थर, सांसारिक उपलब्धि – नौकरी करो, धंधा करो, पैसे कमाओ, फिर सुखी होने के लिए फर्नीचर लाओ, शादी करो, डिस्को करो, विषय विकारों में उलझो और मरो, मरो और जन्मो, जन्मो और मरो...। गुरु के ज्ञान मे तो परिश्रम भी नहीं और मिलती इतनी ऊँची समझ है कि ओहो!.... सब दुःखों और सुखों के सिर पर पैर रखकर परमात्मा की प्राप्ति!दुनिया के कितने भी प्रमाणपत्र लेकर आदमी इतना सुयोग्य, इतना महान नहीं बनता है जितना सत्संग से बनता है। दुनिया की पदवियाँ मेरे पास होतीं तो इतना नहीं मिलता जितना मेरे को गुरुजी की कृपा से, सत्संग से मिला है।"