एक बार राजा जनकके यहाँ एक विद्वान आया और उसने अपने आने की खबर राजा को भेजी। वह सोच रहा था कि राजा अब मेरी पूजा करेंगे। उसका यह भाव समझकर राजा जनक ने संदेशा भेजा कि'आप अकेले आते तो अच्छा होता।'विद्वान को राजा जनक के संदेश का रहस्य समझ में आया। वह वहीं से वापस लौटा और अभिमान को, कर्ताभाव को बनाने रखने वाली एवं पुष्ट करने वाली मनमुख साधना छोड़कर किन्हीं ब्रह्मवेत्ता सदगुरू की शरण में गया। उसी प्रकार यदि हमें भी भगवान के निकट जाना हो, सदगुरू के द्वार जाना हो तो हम अपना अभिमान, अपनी सज्जा, अपना आडम्बर आदि पीछे छोड़कर ही जायें। किसी साहूकार के यहाँ किसी के जेवर गिरवी रखे हों तो साहूकार द्वारा उन जेवरों को अपने घर की शादी में उपयोग में लाना अन्याय होगा। उसी प्रकार भगवान की दी अमानत मानकर पुत्रादि की रक्षा करना तो उचित होगा लेकिन उन्हें अपना मानकर सुख-दुःख भोगना जरूर पाप होगा। नारियल में पानी जितना मीठा होता है उतना ही खोपरे में स्वाद कम होता है, वैसे ही जितनी विद्वत्ता अधिक उतनी निष्ठा कम होती है। ज्यादा पढ़ो मत, जो कुछ थोड़ा पढ़ो उस पर चिंतन करो और उसका आशय कृति में उतारो। जैसे पिता जी का पत्र पढ़ने के बाद उसके आशय के अनुसार हम आचरण करते हैं, वैसे ही ग्रंथ पढ़ने के बाद कृति, आचरण करना प्रारंभ करें । ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ