महापुरुषों की महिमा एक बार महात्मा बुद्ध पंचसाल नामक गाँव में गये। वहाँ संत-निंदकों ने गाँववालों को ऐसा उकसाया की बुद्ध जब भिक्षा के लिए निकले तो लोगों ने अपने दरवाजे बंद कर लिये। बुद्ध खाली भिक्षापात्र लेकर लौट आये पर उनके हृदय में कोई विषाद नहीं हुआ। भिक्षु संघ के समक्ष बुद्ध प्रवचन कर रहे थे। विचार-धाराओं में कोई शिष्य बहा जा रहा था, यह प्रश्न बार-बार उसे परेशान किये हुए था कि'हम इतनी तितिक्षा सहते हैं फिर भी हमारा इतना विरोध, कुप्रचार, इतनी निंदा क्यों?' महात्मा बुद्ध के अंतःचक्षुओं ने उसके चेहरे को पढ़ लिया। वे समझाते हुए बोलेः"निंदा से कौन बचा है भला!यदि यह निंदा झूठी है तो उसे झूठ समझकर मन से दूर कर देना चाहिए और यदि अपने में सचमुच खोट है तो उसे प्रयत्नपूर्वक दूर करना चाहिए। निंदा करने वाले पर कुपित होने से अपना ही मन मैला होता है और मन मैला हुआ तो साधना में सफलता कैसे मिलेगी!" महात्मा बुद्ध की ज्ञानमयी वाणी से शिष्य के उद्विग्न चित्त को शांति मिली परंतु उसके चित्त में एक नयी शंका उत्पन्न हुई कि'जो तथागत अपनी कृपा से दूसरों के कष्टों का निवारण करते रहते हैं, क्या वे अपने किसी कष्ट का निवारण करने में निर्बल हैं?' बुद्ध उसके मन की बात जान गये परंतु इस बार मौन रहे। एक बार बुद्ध द्रोण नामक गाँव से गुजरे, जिसे कुप्रचारकों व निंदकों ने बुद्ध का विरोधी बना दिया था। उन्हें जब सूचना मिली की बुद्ध अपने संघसहित यहाँ से गुजरने वाले हैं, तब उन्होंने वहाँ के एकमात्र कुएँ को घास-फूस इत्यादि से भर दिया ताकि बुद्ध और उनके शिष्य प्यासे ही रह जायें। बुद्ध एक वृक्ष की छाया में विश्राम कर रहे थे। उन्होंने पीने के लिए पानी माँगा तो शिष्यों ने सारी हकीकत बतायी। बुद्ध ने उन्हें वापस कुएँ पर जाने के लिए कहा। शिष्यों ने जाकर देखा कि कुएँ का जलस्तर बढ़ा हुआ है, घास-फूस सब बाहर निकल आया है और स्वच्छ जल से कुआँ लबालब भर गया है। सभी शिष्य यह लीला देखकर गदगद हो गये। बुद्ध अपने उस शिष्य की तरफ देखकर मुस्कराये। अब उसका मन निःशंक हो गया था। वह समझ गया था किजीवन्मुक्त संतमहापुरुषों की लीलाओं को अपनी मान्यताओं की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता। स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जून 2010, पृष्ठ संख्या 18, अंक 156 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ