माँ शारदा का इकलौता ऐसा मंदिर जहाँ रात के वक़्त रुकना वर्जित माना जाता है !
                     देश भर में यूँ तो देवी माँ के बहुत से ऐसे मंदिर हैं जो उनकी महिमा और चमत्कारों के लिए ख़ासा मशहूर है। चूँकि शारदीय नवरात्रि की शुरुआत हो चुकी है और इस दौरान देवी माँ के विभिन्न मंदिरों में भक्तों की भीड़ नजर आती है। आज हम आपको माँ शारदा के एक ऐसी मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं जहाँ नवरात्रि के दौरान तो हज़ारों की संख्या में माता के दर्शन के लिए लोग आते हैं, लेकिन कोई भी इस मंदिर में रात के वक़्त नहीं रुकता। आइए जानते हैं रात के वक़्त इस मंदिर में रुकना क्यों वर्जित माना जाता है।

माता के दर्शन के लिए हज़ारों सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है भक्तों को
                   त्रिकूट पर्वत पर स्थित माँ शारदा का इकलौता मंदिर मध्यप्रदेश के सतना जिले के मैहर में स्थित है। इस मंदिर को माँ शारदा का एकमात्र मंदिर माना जाता है। यहाँ माता के दर्शन के लिए आने वाले भक्तों को करीबन हज़ार सीढ़ियां चढ़कर उनकी दर्शन के लिए जाना पड़ता है। इस मंदिर के बारे में प्रचिलत कथाओं के अनुसार यहाँ रात के वक़्त रुकना वर्जित माना जाता है। इस मंदिर के द्वार सुबह चार बजे से लेकर रात के नौ बजे तक ही भक्तों के लिए खुले रहते हैं, इसके बाद मंदिर के द्वार बंद कर दिए जाते हैं। माँ शारदा के इस मंदिर की एक चमत्कारी विशेषता ये भी है की सुबह जब मंदिर के पुजारी द्वार खोलकर माता की पूजा के लिए जाते हैं तो वहां देवी माँ की पूजा अर्चना पहले से ही की हुई होती है।

अल्लाह और उदल करते हैं सबसे पहले देवी माँ की पूजा
                   मैहर स्थित माँ शारदा के इस एकमात्र मंदिर के बारे में ऐसा कहा जाता है की इस मंदिर की खोज अल्लाह और उदल ने की थी। इसी वजह से आज भी सबसे पहले इस मंदिर में देवी माँ की पूजा अल्लाह और उदल ही करते हैं। माँ शारदा के इस मंदिर में रात के समय रुकना सख्त वर्जित माना जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार रात के वक़्त इस मंदिर में रुकने वालों की मृत्यु हो जाती है, इसलिए नौ बजे के बाद ही मंदिर के द्वार को भक्तों के लिए बंद कर दिया जाता है और जब सुबह पुजारी मंदिर आते हैं तो माँ की पूजा पहले से ही की हुई होती है। इस चमत्कार के पीछे क्या राज है इसका पता आज तक किसी को नहीं चल पाया। कहते हैं की, अल्लाह और उदल आज भी सबसे पहले माँ की पूजा के लिए मंदिर में उपस्थित रहते हैं।

                         बता दें कि, वैसे तो हर दिन ही यहाँ देवी माँ के दर्शन के लिए भक्तों की भीड़ लगी रहती है, लेकिन विशेष रूप से नवरात्रि के दिनों में देश के विभिन्न हिस्सों से माता की पूजा अर्चना के लिए लोग आते हैं। माँ शारदा के इस मंदिर परिसर में शिव, पार्वती, हनुमान, ब्रह्मदेव और अन्य देवी देवताओं की भी पूजा की जाती है।

मैहर की माँ शारदा।
                       मध्यप्रदेश के चित्रकूट से लगे सतना जिले में मैहर शहर की लगभग ६०० फुट की ऊंचाई वाली त्रिकुटा पहाड़ी पर मां दुर्गा के शारदीय रूप श्रद्धेय देवी माँ शारदा का मंदिर स्थित है, जो मैहर देवी माता के नाम से सुप्रसिद्ध हैं। यहाँ श्रद्धालु माता का दर्शन कर आशीर्वाद लेने उसी तरह पहुंचते हैं जैसे जम्मू में मां वैष्णो देवी का दर्शन करने जाते हैंमहा वीर आला-उदल को वरदान देने वाली मां शारदा देवी को पूरे देश में मैहर की शारदा माता के नाम से जाना जाता है। तीर्थस्थल के सन्दर्भ में पौराणिक कहानियां और दन्तकथाए - इनकी उत्पत्ति के पीछे एक पौराणिक कहानी है जिसमें कहा गया है कि सम्राटदक्ष प्रजापति की पुत्री सती भगवान शिव से विवाह करना चाहती थी लेकिन राजा दक्ष शिव को भगवान नहीं, भूतों और अघोरियों का साथी मानते थे और इस विवाह के पक्ष में नहीं थे फिर भी सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर भगवान शिव से विवाह कर लिया एक बार राजा दक्ष ने 'बृहस्पति सर्व' नामक यज्ञ रचाया, उस यज्ञ में ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्यदेवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन जान-बूझकर अपने जमाता भगवान महादेव को नहीं बुलाया दक्ष की पुत्री सती इससे बहुत दुखी हुई और यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से भगवान शिव को आमंत्रित न करने का कारण पूछा, इस पर दक्ष प्रजापति ने भरे समाज में भगवान शिव के बारे में अपशब्द कहा
                           तब इस अपमान से निराश होकर सती मौन हो उत्तर दिशा की ओर मुँह करके बैठ गयी और भगवान शंकर के चरणों में अपना ध्यान लगा कर योगमार्ग के द्वारा वायु तथा अग्नि तत्व को धारण करके अपने शरीर को अपने ही तेज से भस्म कर दिया भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया और यज्ञ का नाश हो गयाभगवान शंकर ने मातासती के पार्थिव शरीर को कंधे पर उठा लिया और गुस्से में तांडव करने लगे ब्रह्मांड की भलाई के लिए भगवान विष्णु ने ही सती के अंग को बावन भागों में विभाजित कर दिया जहाँ-जहाँ सती के शव के विभिन्न अंग और आभूषण गिरे,वहां-वहां शक्ति पीठों का निर्माण हुआ उन्हीं में से एक शक्ति पीठ है मैहर देवी का मंदिर, जहां मां सती का हार गिरा था मैहर का मतलब है,मां का हार, इसी वजह से इस स्थल का नाम मैहर पड़ा
                        अगले जन्म में सती ने हिमाचल राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिवजी को फिर से पति रूप में प्राप्त किया

इस तीर्थस्थल के सन्दर्भ में दूसरी भी दन्तकथा प्रचलित है।
                      कहते हैं आज से २०० साल पहले मैहर में महाराज दुर्जन सिंह जुदेव राज्य करते थे। उन्हीं कें राज्य का एक ग्वाला गाय चराने के लिए जंगल में आया करता था। इस घनघोर भयावह जंगल में दिन में भी रात जैसा अंधेरा छाया रहता था। तरह-तरह की डरावनी आवाजें आया करती थीं। एक दिन उसने देखा कि उन्हीं गायों के साथ एक सुनहरी गाय कहां से आ गई और शाम होते ही वह गाय अचानक कहीं चली गई। दूसरे दिन जब वह इस पहाड़ी पर गायें लेकर आया तो देखता है कि फिर वही गाय इन गायों के साथ मिलकर घास चर रही है। तब उसने निश्चय किया कि शाम को जब यह गाय वापस जाएगी, तब उसके पीछे-पीछे जाएगा। गाय का पीछा करते हुए उसने देखा कि वह ऊपर पहाड़ी की चोटी में स्थित एक गुफा में चली गई और उसके अंदर जाते ही गुफा का द्वार बंद हो गया। वह वहीं गुफा द्वार पर बैठ गया। उसे पता नहीं कि कितनी देर कें बाद गुफा का द्वार खुला। लेकिन उसे वहां एक बूढ़ी मां के दर्शन हुए। तब ग्वाले ने उस बूढ़ी महिला से कहा, ‘माई मैं आपकी गाय को चराता हूं, इसलिए मुझे पेट के वास्ते कुछ मिल जाए। मैं इसी इच्छा से आपके द्वार आया हूं।’ बूढ़ी माता अंदर गई और लकड़ी के सूप में जौ के दाने उस ग्वाले को दिए और कहा, ‘अब तू इस भयानक जंगल में अकेले न आया कर।’ वह बोला, ‘माता मेरा तो जंगल-जंगल गाय चराना ही काम है। लेकिन मां आप इस भयानक जंगल में अकेली रहती हैं? आपको डर नहीं लगता।’ तो बूढ़ी माता ने उस ग्वाले से हंसकर कहा- बेटा यह जंगल, ऊंचे पर्वत-पहाड़ ही मेरा घर हैं, में यही निवास करती हूं। इतना कह कर वह गायब हो गई। ग्वाले ने घर वापस आकर जब उस जौ के दाने वाली गठरी खोली, तो वह हैरान हो गया। जौ की जगह हीरे-मोती चमक रहे थे। उसने सोचा- मैं इसका क्या करूंगा।
                     सुबह होते ही महाराजा के दरबार में पेश करूंगा और उन्हें आप बीती कहानी सुनाऊंगा। दूसरे दिन भरे दरबार में वह ग्वाला अपनी फरियाद लेकर पहुंचा और महाराजा के सामने पूरी आपबीती सुनाई। उस ग्वाले की कहानी सुन राजा ने दूसरे दिन वहां जाने का ऐलान कर, अपने महल में सोने चला गया। रात में राजा को स्वप्न में ग्वाले द्वारा बताई बूढ़ी माता के दर्शन हुए और आभास हुआ कि आदि शक्ति मां शारदा है। स्वप्न में माता ने राजा को वहां मूर्ति स्थापित करने की आज्ञा दी और कहा कि मेरे दर्शन मात्र से सभी की मनोकामनाएं पूरी होंगी। सुबह होते ही राजा ने माता के आदेशानुसार सारे कर्म पूरे करवा दिए। शीघ्र ही इस स्थान की महिमा चारों ओर फैल गई। माता के दर्शनों के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से यहां पर आने लगे और उनकी मनोवांछित मनोकामना पूरी होती गई।
                      इसके पश्चात माता के भक्तों ने मां शारदा को सुंदर भव्य तथा विशाल मंदिर बनवा दिया। स्थानीय परंपरा के मुताबिक दो वीर भाई आल्हा और उदल जिन्होंने पृथ्वीराजचौहान के साथ भी युद्ध किया था,वो भी शारदा माता के बड़े भक्त हुआ करतेथे इन्हीं दोनों ने सबसे पहले जंगलों के बीच शारदा देवी के इस मंदिर कीखोज की थी इसके बाद आल्हा ने इस मंदिर में बारह सालों तक तपस्या कर देवीको प्रसन्न किया था माता ने उन्हें अमरत्व का आशीर्वाद दिया था कहतेहै कि दोनों भाइयों ने भक्ति-भाव से अपनी जीभ शारदा को अर्पण कर दी थी, जिसे मां शारदा ने उसी क्षण वापस कर दिया था। आल्हामाता को शारदा माई कह कर पुकारा करता था और तभी से ये मंदिर भी माता शारदामाई के नाम से प्रसिद्ध हो गया आज भी ये मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा और उदल ही करते हैं मंदिर के पीछे पहाड़ों के नीचे एक तालाब है जिसे आल्हा तालाब कहा जाता है यही नहीं तालाब से दो किलोमीटर और आगे जाने पर एक अखाड़ा मिलता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां आल्हा और उदल कुश्ती लड़ा करते थे। मंदिर के इतिहास की बात करें तो मां शारदा की प्रतिष्ठापित मूर्ति चरण के नीचे अंकित एक प्राचीन शिलालेख से मूर्ति की प्राचीन प्रामाणिकता की पुष्टि होती है।
                        मैहर नगर के पश्चिम दिशा में चित्रकूट पर्वत में श्री आद्य शारदा देवी तथा उनके बायीं ओर प्रतिष्ठापित श्री नरसिंह भगवान की पाषाण मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा आज से लगभग १९९४ वर्ष पूर्व विक्रमी संवत् ५५९ शक ४२४ चैत्र कृष्ण पक्ष चतुर्दशी, दिन मंगलवार, ईसवी सन् ५०२ में तोर मान हूण के शासन काल में श्री नुपुल देव द्वारा कराई गई थी। इस मंदिर में बलि देने की प्रथा प्राचीन काल से ही चली आ रही थी.. जिसे १९२२ ई. में सतना के राजा ब्रजनाथ जूदेव ने पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया।