एक घना जंगल था। जिसमेँ एक ब्रह्मज्ञानी संत का आश्रम था जिसमेँ कई साधक ध्यान भजन के लिए रहते थे और वो आश्रम संचालको के द्वारा संचालित होता था वो संत समय समय पर उस आश्रम आया करते थे। एक बार की बात है, सुबह की भोर मेँ वो टहलने और थोडा व्यायाम करने के लिए निकले उनके साथ मेँ एक साधक शिष्य भी था जो ध्यान भजन करने के लिए आश्रम मेँ रहा करता था। वे सुबह के ठण्डे वातावरण मेँ टहलते हुए अच्छा महसूस कर रहे थे की तभी वो शिष्य बोला - "गुरुजी ये जो छोटा पौधा दिख रहा है इसका भविष्य क्या होगा? " गुरुजी को पता चल गया की इसके मन मेँ पलायनवाद के विचार आ रहे हैँ। फिर भी वे बोले - " बेटा ये छोटा पौधा आने वाले दिनोँ मेँ एक विशाल वृक्ष बनेगा और घनी छाया होगी जिसमेँ आते जाते हुए पथिक विश्राम करेँगे , ये पेड असंख्य जीव जंतुओँ का आश्रयदाता होगा और मीठे मीठे फल भी लगेँगे जिससे बुहुत से लोग तृप्त होँगे। " फिर गुरुजी चल दिए और वो शिष्य नित्य कर्म करने के बहाने वापस लौटा और उस पौधे को उखाड कर फेँक दिया और मन ही मन खुश हुआ की ये पेड तो मैने उखाड दिया अब ये नष्ट हो जाएगा और गुरुजी की बात रह जाएगी फिर वापस गुरुजी के साथ साथ आश्रम लौट आया। अब वो छोटा पौधा इस मूर्ख शिष्य को कैसे बताए की उसके भविष्य को गुरुजी द्वारा सुरक्षित कर दिया गया है। उसका विशाल छायादार और मीठा फलवाला वृक्ष बनना तय है। अब प्रकृति देवी से रहा न गया वो गुरुवचन को पुरा करने और ब्रह्मज्ञानी संत के चरणोँ की सेवा करने के लिए अपने कार्य को शुरु किया और बडी जोरो की आँधी चली और मूसलाधार वर्षा हुई जिससे उस छोटे पेड की जड मिट्टी से ढक गयी और पानी भी पर्याप्त मात्रा मेँ मिल गया और समय के साथ वो छोटा पेड एक विशाल वृक्ष बना और गुरु वचन के अनुसार छायादार वृक्ष बना और मीठे फल भी लगे। साल भर बाद संत का फिर उस आश्रम मेँ आगमन हुआ और साधकोँ का उन्होँने मार्गदर्शन किया। वहाँ आश्रम से किसी कारणवश कहीँ जाना हुआ तो वो शिष्य भी साथ चला। लेकिन कुछ समय चलने पर तपते सूरज की गर्मी से बेचैन होने लगा और गुरुजी से बोला - "गुरुजी! सूरज बहुत तप रहा है गर्मी बहुत बढ रही है इसलिए किसी पेड के नीचे रुक कर थोडा विश्राम कर लेते हैँ।" गुरुजी बिना कुछ बोले चलते रहे और वो दो तीन बार वही बात दोहराया। लेकिन गुरुजी बिना कुछ चलते रहे और कुछ समय चलने के बाद के बडे पेड के नीचे रुके। तभी वो शिष्य बोला - "गुरुजी ये वृक्ष कितना बडा और घनी छाया वाला है और ठंडी ठंडी हवा चल रही जिसमेँ बहुत से पथिक विश्राम कर रहे हैँ और इस पेड पर मीठे फल भी लगे हुए हैँ अब इतना चलने के बाद भूख भी लगी है क्या मेँ कुछ फल तोड लूँ? गुरुजी कुछ नहीँ बोले और वो उठ कर गया और कुछ फल तोड लाया और बोला - "गुरुजी इन फलोँ को खाने से भूख मिट जाएगी।" तब गुरुजी बोले - "बेटा ये वही पेड है जो तुमने पिछली यात्रा के समय उखाड कर फेँक दिया था, तुम्हारे जाने के बाद जोरोँ की आँधी चली और मूसलाधार बारिस हुई जिससे पेड को मिट्टी पानी दोनोँ मिल गया और आज ये असंख्य लोगोँ के विश्रामस्थल बन गया। तुम इस वृक्ष की छाया के हकदार नहीँ हो और इसके फल के तो बिल्कुल अधिकारी नहीँ हो। तुमने इस पेड के साथ बहुत गलत व्यवहार किया है।" ये सुनकर शिष्य अवाक् रह गया और गुरुजी से क्षमा माँगने लगा। तब गुरुजी बोले - "मुझसे क्षमा क्योँ माँग रहे हो अगर क्षमा माँगना ही है तो इस वृक्ष से माँगो जिसको तुमने नष्ट करने की पूरी कोशिश की। . . . (थोडी देर बाद) . . . बेटा इस मानव जीवन का आधार और परम उद्देश्य परोपकार है जिसमेँ हमेँ हर समय अच्छे कार्य करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। कोई भी ऐसा कार्य नहीँ करना चाहिए जिससे किसी का भी अहित या दुःख हो। अच्छे कर्म मानव जीवन की शोभा है और हमारे कर्मोँ के अनुसार ही हमारा समय बीतता है, सुख-दुःख आता है इसलिए हमेशा अच्छे कर्म करना चाहिए।" इतना कह कर गुरुजी चुप हो गये और थोडी देर विश्राम कर के चल दिए। अब उस शिष्य मेँ चंचलता गायब हो चुकी थी और उसकी आँखेँ खुल चुकी थी अब उसके जीवन की राह बदल चुकी थी और अब वो भी अपने परम लक्ष्य की और बढ गया और अब उसने लगन से साधना और गुरु सेवा करने का लक्ष्य बनाया। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ धन्य हैँ वो लोग जिन्हेँ ब्रह्मज्ञानी संत का शिष्य बनने का सुअवसर मिला। धन्य हैँ वो लोग जिन्हेँ ब्रह्मज्ञानी संत की सेवा करने का सुअवसर मिला। प्रकृति भी जिन संतोँ की सेवा करने को हमेशा तैयार रहती है उन ब्रह्मज्ञानी संतोँ को कोटि कोटी प्रणाम है।