हंटरबाज थानेदार से संत रणजीतदास। एक बार रणजीतसिंह नाम का सिपाही गश्त लगाते-लगाते किन्हीं संत के द्वार पहुँचा और संत से कहाः “बाबा ! पाय लागूँ।” बाबाः “इतनी देर रात को क्यों आये हो ?” “आपके दर्शन करने।” “नहीं, सच बताओ क्यों आये हो ?” “बाबा ! मैं इंटर पास भटक रहा हूँ और थानेदार मजे से पलंग पर आराम कर रहा है। आपकी कृपा हो जाये तो मैं थानेदार बन जाऊँगा।” “अच्छा समझो, तुम थानेदार बन गये तो मुझे तो भूल जाओगे।” “नहीं बाबा ! रणजीतसिंह आपके चरणों में सिर झुकायेगा। थानेदार बनूँगा तब भी आपकी आज्ञा पालूँगा।” “कब पहुँचोगे थाने पर ?” “बाबा ! गश्त लगाते-लगाते तीसरे दिन मेरी डयूटी वहाँ लगेगी।” “तो जाओ, जाकर थानेदार बनो। तुम्हें वहीं थानेदारी का हुक्म आया मिलेगा।” “बाबा ! आप लेख को मेख कर सकते हो, बेमुकद्दरवाले को मुकद्दरवाला बना सकते हो। आप काल के मुँह में पड़े हुए को अकाल ईश्वर की तरफ लगा सकते हो और नरक में जाने वाले जीव को दीक्षा देकर उसके नरक के बँधन काटकर स्वर्ग की यात्रा करा सकते हो। संतों के हाथ में भगवान ने गजब की ताकत दी है ! हे बाबा ! मेरा प्रणाम स्वीकार करो।” रणजीतसिंह बाबा को दण्डवत प्रणाम कर विदा हुआ। तीसरे दिन थाने पहुँचकर जब उसने थानेदार को सलाम किया तो थानेदार कुर्सी से उठा और बोलाः “रणजीतसिंह ! अब तुम सिपाही नहीं रहे, थानेदार हो गये हो। यह लो सरकारी हुक्मनामा। मेरी बदली दूसरे थाने में हो गयी है।” रणजीतसिंह ने मन-ही-मन बाबा को प्रणाम किया व थानेदार का दायित्व संभाला। कोई छोटा आदमी मुफ्त में बड़ा बन जाये, बिना मेहनत के ऊँचे पद को पा ले तो अपना असली स्वभाव थोड़े ही छोड़ देता है। रणजीतसिंह ने भी अपना असली स्वभाव दिखाना शुरू कर दिया। वह बड़ा रोबीला, हंटरबाज थानेदार हो गया। लोग ‘त्राहिमाम्’ पुकार उठे कि ‘यह थानेदार है या कोई जालिम ! झूठे केस बना देता है, अमलदारी का उपयोग प्रजा की सेवा के बदले प्रजा के शोषण में करता है।’ एकाध वर्ष बीता-न-बीता सारा इलाका उसके जुल्म से थरथराने लगा। बाबा ने ध्यान लगाकर देखा कि ‘रणजीत सिंह कर्म को योग बना रहा है या बंधन बना रहा है अथवा कर्मों के द्वारा खुद को नारकीय योनियों की तरफ ले जा रहा है।’ वास्तविकता जानकर हृदय को बहुत पीड़ा हुई। बाबा पहुँच गये थाने पर। उस समय रणजीतसिंह सिगरेट पी रहा था। बाबा को देख सिगरेट फेंक दी और बोलाः “बाबा ! पाय लागूँ। आपकी कृपा से मैं थानेदार बन गया हूँ।” “थानेदार तो बन गये हो लेकिन मुझे कुछ दक्षिणा दोगे कि नहीं ?” “बाबा ! आप हुक्म करो। आपकी बदौलत मैं थानेदार बना हूँ, मुझे याद है। मैं आपको दक्षिणा दूँगा।” “पाँच सेर बिच्छू मँगवा दो।” “पाँच सेर बिच्छू !…. अच्छा बाबा ! मैं मंगवा देता हूँ। सिपाहियो। इधर आओ। अपने-अपने इलाके में जाकर बिच्छू इकट्ठे करो और कल शाम तक पाँच सेर बिच्छू हाजिर करना, नहीं तो पता है…” बाबा ने भी सुन रखा था, हंटरबाज थानेदार है। जिस किसी पर कहर बरसा देता है, पैसे लेकर किसी पर भी झूठे केस कर देता है। जो निर्दोष पर केस करता है अथवा निर्दोष को मारता है, उसे बहुत फल भुगतना पड़ता है। बाबा ने सोचा, ‘इसने मेरे आगे सिर झुकाया फिर यमदूतों की मार खाये, अच्छा नहीं।’ सिपाही बेचारे काँपते-काँपते गये। इधर-उधर खूब भटके और दूसरे दिन पाँच-छः बिच्छू ले आये। रणजीतसिंहः “अरे मूर्खों ! पाँच सेर बिच्छू की जगह केवल पाँच-छः बिच्छू !” “साहब ! नहीं मिलते हैं।” तब तक बाबा भी आ गये और बोलेः “कहाँ हैं पाँच सेर बिच्छू ?” “बाबा नहीं मिल पाये।” “तू अपने को इस इलाके का बड़ा थानेदार, तीसमारखाँ क्यों मानता है रे, चल, मैं तेरे को बिच्छू दिलाता हूँ। इकबाल हुसैन बड़ा रोबीला, हंटरबाज थानेदार था। झूठे केस करने में माहिर था वह बदमाश। चल, उसकी कब्र खोद।” जुल्म करना पाप है, जुल्म सहना दुगना पाप है। आप जुल्म करना नहीं, जुल्म सहना नहीं। कोई जुल्म करता है तो संगठित होकर अपने साथियों की, अपने मुहल्ले की, अपने बच्चों की रक्षा करना आपका कर्तव्य है। आप सच्चे हृदय से भगवान को पुकारो और ओंकार का जप करो। मजाल है कि दुश्मन अथवा जुल्मी, आततायी आप पर जुल्म करे, हरगिज नहीं ! थानेदार इकबाल हुसैन की कब्र खोदी गयी। देखा कि लाश के ऊपर-नीचे हजारों बिच्छू घूम रहे हैं। यह घटित घटना है। बाबाः “भर ले बिच्छू। दो-तीन मटके ले जा।” “बाबा ! यह क्या, इतने सारे बिच्छू !” “रणजीतसिंह ! जो जुल्म करता है, उसका मांस बिच्छू ही खाते हैं और वह बिच्छू योनि में ही भटकता है। देख ले, तू उसी रास्ते जा रहा है।” “राम-राम-राम ! क्या हंटरबाज थानेदार होने का फल यही है ?” “यह नहीं तो और क्या है !” जिथ साईं दा हक तुराड़ा दोह सवाबां तुले उथां सभु हिसाब भरेसीं क्या पतशाह क्या गोले सिर कामल उत वेदें कंबदै कल क्या करसी मोले लेखो कंहंदा जोर न चले अगऊं आदा बोले। अर्थात् जहाँ ईश्वर के न्याय की तराजू पापों और पुण्यों का तकाजा करती है, वहाँ राजा ह या प्रजा प्रत्येक को हिसाब देना है। वहाँ तो कामिल पुरुष (परमात्मा के प्यारे) भी कुछ नहीं कह सकेंगे। कर्म की गति बड़ी गहन है। शुभ-अशुभ कर्म का फल मनुष्य को अवश्य भुगतना पड़ता है। “बाबा ! फिर…..?” “फिर क्या, पहले के कर्म काट ले, अभी से ईश्वर के रास्ते चल। हंटरबाज बनकर, रिश्वत लेकर, झूठे केस बनाकर देख लिया, अब सच्चा केस बना, ईश्वर को पाने के रास्ते चल। रणजीतसिंह !सुमति कुमति सब उर रहहिं। सज्जनता-दुर्जनता सबके अंदर रहती है। तुमने दुर्जनता जगाकर देख ली, अब सज्जनता को अपना ले। ले दीक्षा और गंगा-किनारे जा। दे दे इस्तीफा !” राजा भर्तृहरि राजपाट छोड़कर गुरु गोरखनाथ के चरणों में चले गये, दीक्षा लेकर साधना की और महापुरुष हो गये। वह बहादुर थानेदार भी गुरु की आज्ञा मानकर बारह साल हरिद्वार में रहा और रणजीतसिंह सिपाही से संत रणजीतदास बन गया, भगवान की भक्ति करते हुए अमर पद को पा लिया, बिल्कुल पक्की बात है। मैं तो रणजीतसिंह सिपाही को शाबाशी दूँगा, जो गुरूकृपा से एक साधारण सिपाही में से थानेदार बना और गुरु की आज्ञा का पालन किया तो संतों की जिह्वा तक उसका नाम पहुँच गया। कितना भाग्यशाली रहा होगा वह ! मानना पड़ता है, अच्छाइयाँ-बुराइयाँ सबके अंदर होती हैं, बुद्धिमान वह है जो सत्संग करके अच्छाइयाँ बढ़ाता जाये और बुराईयाँ छोड़ता जाये।