कर्मकुशलता।

                               एक बार श्री रामकृष्ण परमहंस का एक शिष्य बाजार से जो सब्जी खरीदकर लाया उसमें दो पैसे ज्यादा दे आया। रामकृष्ण परमहंस जब समाधि से उठे तब उन्होंने शिष्य से पूछाः बैंगन क्या भाव लाया?” “ठाकुर ! दो आने सेर लाया।” “मूर्ख ! डेढ़ आने सेर की चीज के इतने ज्यादा पैसे दे आया? जब तू इतनी सी सब्जी खरीदना नहीं जानता तो परमात्मा को कैसे जान सकेगा?” महत्त्व पैसों का नहीं है किंतु फिर कभी किसी काम में गलती न करे, इसीलिए करूणा करके श्री रामकृष्ण परमहंस ने शिष्य को डाँटा। बुहारी करते-करते किसी से कहीं कोई कचरा रह जाता तो उसे भी ऐसे ही डाँटते कि ठीक से बुहारी करके आँगन साफ नहीं कर सकता तो अपना हृदय कैसे शुद्ध करेगा? कैसे पवित्र करेगा?” कुशलतापूर्वक कर्म करना भी योग है। जिस समय जो कर्म करो वह पूरी समझदारी व तत्परता से करो। सिपाही हो तो सिपाही की डयूटी पूरी तत्परता से निभाओ और साहब हो तो उस पद का सदुपयोग करके सबका हित हो ऐसे कर्म करो। श्रोता बनो तो ऐसे बनो कि सुनी हुई सब बातें तुम्हारी बन जायें और वक्ता बनो तो ऐसे बनो कि परमात्मा से जुड़कर निकलनेवाली वाणी से अपना और दूसरों का कल्याण हो जाय। पुजारी बनो तो ऐसी पूजा करो कि पूजा करते-करते अपने-आपको भूल जाओ और पूजा ही बाकी रह जाय। आजकल लोग पुजारी, साधु या भक्त का लिबास तो पहन लेते हैं और मानते हैं कि हम पूजा करते हैं, भक्ति करते हैं। ऐसा करके वे अपने स्वाभाविक कर्तव्यकर्म से भागना चाहते हैं व पलायनवादी हो जाते हैं। जबकि सच्चा भक्त आलसी-प्रमादी नहीं होता, बुद्धु या पलायनवादी नहीं होता। वह तो कर्म को भी पूजा मानकर ऐसे भाव से कर्म करता है कि उसका कर्म करना भक्ति हो जाता है। जो भक्ति के बहाने काम से जी चुराता है, वह तो मूढ़ है। ऐसे लोगों के लिए ही भगवान श्री कृष्ण ने कहा हैः
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥

जो मूढ़बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है।