श्री रामचन्द्र जी: गुरुदेव, पुरुषार्थ क्या है? ब्रह्म ऋषि श्री वशिष्ठ जी बोले.... पुरुषार्थ यह है कि संत का संग करे और सतशास्त्रों का विचार करके उसके अनुसार विचरे। जो उनको त्यागकर अपनी इच्छा के अनुसार विचरते है सो सुख और सिद्धता न पावेगें और जो शास्त्र के अनुसार विचरते है वे इस लोक और परलोक मे सुख और सिद्धता पावेगें। इससे संसार रूपी जाल मे नही गिरना चाहिये। पुरुषार्थ वही है कि संतजनो को संग करना और बोधरूपी कमल और विचाररूपी स्याही से सतशास्त्रों के अर्थ को हृदयरूपी पत्र पर लिखना। जब ऐसे पुरुषार्थ करके लिखोगे तब संसाररूपी जाल मे न गिरोगे। हे रामजी! जैसे यह पहले नियत हुआ है कि जो पट है सो पट है ; जो घट है सो घट है ; जो घट है सो पट नही और जो पट है सो घट नही वैसे ही यह भी नियत हुआ है कि अपने पुरुषार्थ बिना परमपद की प्राप्ति नही होती। हे रामजी! जो संतों की संगति करता है और सतशास्त्र को भी विचारता है पर उनके अर्थ मे पुरुषार्थ नही करता तो उसको सिद्धता नही प्राप्त होती। जैसे कोई अमृत के निकट बैठा हो तो भी पान किये बिना अमर नही होता और सिद्धता भी प्राप्त नही होती। हे रामजी अज्ञानी जीव अपना जन्म व्यर्थ खोते है । जब बालक होते है तो मूढ़ - अवस्था मे लीन रहते है युवा अवस्था मे विकार को सेवते है और बुढ़ापे मे जर्जरीभूत होते है। इसी प्रकार जीवन व्यर्थ खोते है और जो अपना पुरुषार्थ त्याग करके दैव का आश्रय लेते है सो अपने हन्ता होते है वह सुख न पावेगें। हे रामजी! जो पुरुष व्यवहार और परमार्थ मे आलसी होकर और परमार्थ को त्यागकर मूढ़ हो रहे है सो दीन होकर पशुओं के सदृश दुःख को प्राप्त हुये है। यह मैने विचार करके देखा है इससे तुम पुरुषार्थ का आश्रय करो और सत्संग और सतशास्त्ररूपी आदर्श के द्वारा अपने गुण और दोष को देखकर दोष का त्याग करो और शास्त्रों के सिद्धांत पर अभ्यास करो। जब दृढ़ अभ्यास करोगे तो शीघ्र ही आनंदवान होगे। ॐ..ॐ..ॐ.