पांडुरंग नामक एक बालक गुजरात में रहता था। एक बार वह बीमार हो गया। दिनों दिन बुखार बढ़ने लगा। दवाएँ लीं, नजर उतरवायी, सब किया किंतु सुधार नहीं हुआ। बीमारी इतनी बढ़ी कि डाक्टर वैद्यों ने आशा छोड़ दी। एक दिन पांडुरंग को लगा कि उसका आखिरी समय आ गया है। उसने माँ व छोटे भाई को बाहर भेजकर दरवाजा बाहर से बंद करवा दिया और अंतर्मुख होकर मनोमंथन करने लगा कि 'मेरा जन्म निरर्थक चला गया। यह मानव-शरीर मलिन, क्षणभंगुर होने के बावजूद भी मोक्षप्राप्ति का साधन है। गुरुदेव ! मैं आपका अपराधी हूँ, मुझे क्षमा करें। कृपा करके मुझे बचा लीजिये। अब एक पल भी नहीं बिगाड़ूँगा।' प्रार्थना करते-करते पांडुरंग शांत हो गया। अवधूत जी दत्तात्रेयी प्रकट हुए और आशीर्वाद देकर अदृश्य हो गये। गुरुकृपा से पांडुरंग को नया जीवन मिला। देखते-देखते पांडुरंग का स्वास्थ्य सुधरने लगा।
                 गुरुदेव को दिये वचन के अनुसार अब वह समय बिगाड़ना नहीं चाहता था। प्रभु-मिलन की उत्कंठा वेग पकड़ रही थी। पांडुरंग एक दिन ध्यान में बैठा था तबगुरुदेव ने आज्ञा दीः "पांडु ! अब तेरा नया जन्म हुआ है। समय व्यर्थ नहीं जाने देना। जल्दी घर छोड़ दे।" पांडुरंग ध्यान से उठा और माँ के पास गया। रूकमा सब्जी काट रही थीं। पांडुरंग हिम्मत करके बोलाः "माँ ! मैं तुमसे आज्ञा लेने आया हूँ।" "आज्ञा ?" "हाँ माँ ! आज गुरुदेव ने ध्यान में आ के मुझे स्पष्ट कहा कि पांडु ! उठ, संसार छोड़ के अलख की आराधना में लग जा !" माँ की आँखों से अश्रुधाराएँ बहने लगीं। "बेटे ! साधना करने की कौन मना करता है ? घर में रह के जितनी करनी हो, कर लेना।" "माँ ! घर में रह के साधना नहीं हो सकती। आसक्ति हो जायेगी। अनजाने में ही संसार में प्रवेश हो जाता है।" रूकमा फूट-फूट कर रोने लगीं और बोलीं- "मेरा भाग्य ही फूटा है। हे भगवान ! अब मैं क्या करूँ ?" माँ ने जोर-जोर से सिर पटका, जिससे सिर से खून बहने लगा और वे मूर्च्छित हो गयीं। माँ की दयनीय स्थिति देख पांडुरंग गुरुदेव से प्रार्थना करने लगाः "गुरुदेव !
                 अब और परीक्षा न लीजिये, मार्गदर्शन दीजिये।" कुछ क्षण बाद माँ की मूर्च्छा खुली। पांडुरंग ने कहाः "माँ ! ममता छोड़ो, जाये बिना मेरा छुटकारा नहीं है। इतिहास साक्षी है कि जगत के कल्याण के लिए माताओं का त्याग हमेशा महान रहा है। माँ कौसल्या ने रामचन्द्रजी को वन में न जाने दिया होता तो जगत को त्रास देने वाले रावण का संहार कौन करता ? विश्व को रामायण की भेंट कैसे मिलती ? श्रीकृष्ण जन्म के बाद माँ देवकी ने महान त्याग नहीं किया होता तो जगत को गीता-ज्ञान कौन सुनाता ? महान कार्य महान त्याग की माँग करते हैं। माँ ! मुझे आज्ञा दो।" माँ कुछ ही क्षणों में स्वस्थ हो गयीं। उनका कमजोर हृदय वज्र समान हो गया। वे पांडुरंग के सिर पर हाथ घुमाते हुए बोलीं- "बेटा ! तू स्वयं जाग व दूसरों को जगा। जा, मेरा आशीष है।" "माँ ! तुम्हारी जैसी माताओं के त्याग के आगे पूरे विश्व के वैभव का त्याग भी नन्हा होगा।" माँ को प्रणाम करके वह घर से निकल पड़ा। संसार को छोड़ 'सार' (परमात्मा) की प्राप्ति के लिए पांडुरंग लग गया। आगे चलकर यही पांडुरंग श्री रंग अवधूत महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ