अंतःकरण की शुद्धि का, अहंकार से मुक्ति का सीधा सरल उपाय है कि आप निःस्वार्थभाव से सेवा में जुट जाइये। जो समझदार है व कहीं-न-कहीं से सेवा का अवसर ढूँढकर अपना काम बना लेते हैं। आपने यदि सत्संग-सेवा का लाभ नहीं लिया तो कोई खास घाटा नहीं पड़ेगा। बस, सत्संग से वंचित रहे तो मनुष्य जन्म का महत्त्व नहीं समझ पायेंगे और सेवा से वंचित रहे तो जन्म-जन्मान्तर से आपके मन में ʹमेरे-तेरेʹ का जो मैल जमा है उसे कभी धो नहीं पायेंगे। आप भी करोड़ों लोगों की तरह दुःखी, चिन्तित रहेंगे। सब कुछ होते हुए भी आप सुख के लिए हाथ फैलाते रहेंगे। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ गुरु साक्षात भगवान है, जो साधकों के पथ प्रदर्शन के लिए साकार रूप में प्रकट होते हैं। गुरु का दर्शन भगवददर्शन है। गुरु का भगवान के साथ योग होता है तथा वे अन्य लोगों में भक्ति अनुप्राणित करते हैं। उनकी उपस्थितिमात्र सबके लिए पावनकारी है। जिस प्रकार एक दीपक को जलाने के लिए आपको दूसरे प्रज्जवलित दीपक की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार एक प्रबुद्ध आत्मा दूसरी आत्मा को प्रबुद्ध कर सकती है। सभी महापुरुषों के गुरु थे। सभी ऋषियों, मुनियों, पैगम्बरों, जगदगुरुओं, अवतारों, महापुरुषों के चाहे वे कितनि ही महान क्यों न रहे हों, अपने निजी गुरु थे। श्वेतकेतु ने उद्दालक से, मैत्रेयी ने याज्ञवाल्क्य से, भृगु न वरूण से, शुकदेव जी ने सनत्कुमार से, नचिकेता ने यम से, इन्द्र ने प्रजापति से सत्य के स्वरूप की शिक्षा प्राप्त की तथा अन्य अनेक लोग ज्ञानी जनों के पास विनम्रतापूर्वक गये, ब्रह्मचर्यव्रत का अति नियमनिष्ठा से पालन किया, कठोर अनुशासनों की साधना की तथा उनसे ब्रह्मविद्या सीखी। देवताओं के भी बृहस्पति गुरु हैं। दिव्य आत्माओं में महान सनत्कुमार भी गुरु दक्षिणामूर्ति के चरणों में बैठे थे। गुरु किसे बनायें ? यदि आप किन्हीं महात्मा के सान्निध्य में शांति पाते हैं, उनके सत्संग से अनुप्राणित होते हैं, यदि वे आपकी शंकाओं का समाधान कर सकते हैं, यदि वे काम, क्रोध तथा लोभ से मुक्त हैं, यदि वे निःस्वार्थ, स्नेही तथा अस्मितारहित हैं तो आप उन्हें अपना गुरु बना सकते हैं। जो आपके संदेहों का निवारण कर सकते हैं, जो आपकी साधना में सहानुभूतिशील हैं, जो आपकी आस्था में बाधा नहीं डालते वरन् जहाँ आप हैं वहाँ से आगे आपकी सहायता करते हैं, जिनकी उपस्थिति में आप आध्यात्मिक रूप से अपने को उत्थित अनुभव करते हैं, वे आपके गुरु हैं। यदि आपने गुरु का चयन कर लिया तो निर्विवाद रूप से उनका अनुसरण करें। भगवान गुरु के माध्यम से आपका पथ-प्रदर्शन करेंगे। एक चिकित्सक से आपको औषधि-निर्देश तथा पथ्यापथ्य का विवेक मिलता है, दो चिकित्सकों से आपको परामर्श प्राप्त होता है और यदि तीन चिकित्सक हुए तो आपका अपना दाह संस्कार होता है। इसी भाँति यदि आपके अनेक गुरु होंगे तो आप किंकर्तव्यविमूढ़ हो जायेंगे। क्या कारण है, यह आपको ज्ञात न होगा। एक गुरु आपसे कहेगा - ' सोऽहम् ' का जप करो। ' दूसरा कहेगा - ' श्रीराम का जप करो ' । तीसरा कहेगा - ' अनाहत नाद को सुनो। ' आप उलझन में पड़ जायेंगे। एक गुरु से, जो श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ हों, संलग्न रहें और उनके उपदेशों का पालन करें। वहीं आपकी यात्रा पूरी होगी। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ हमारे मन में अदभुत शक्ति है। मन की कल्पनाओं से ही हम संसार में उलझते हैं। जीव सदा चिन्तित-भयभीत रहता है कि मेरा यह हो जायगा तो क्या होगा… वह हो जायगा तो क्या होगा….? ऐसी कल्पना करके दुःखी क्यों होना ? सदा निश्चिन्त रहना चाहिए और ऐसा सोचना चाहिए कि मेरा कभी कुछ बिगड़ नहीं सकता। आदमी जैसा भीतर सोचता है, वैसी ही आभा उसके शरीर के इर्द-गिर्द बनती है, फैलती है। बाह्य वातावरण से ही सजातीय संस्कारों को भी आकर्षित करती है। आप मुक्ति के विचार करते हो तो मुक्ति का आन्दोलन और आभा बनती है। मुक्त पुरूषों के विचार आपको सहयोग करते हैं। आप भय और बन्धन के विचार करते हो तो आपकी आभा वैसी ही बनती है। अगर आप घृणा के विचार करते हो, चोरी और डकैती के विचार करते हो ‘कि कहीं चोरी न हो जाए….डाका न डाला जाए…..!’ तो आपकी वही आभा चोरों और डकैतों को चोरी डकैती के लिए आमंत्रित करती है। आपकी आभा सुन्दर और सुहावनी है तो उसी प्रकार की आभा और विचार आपकी ओर खिंच जाते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ भगवान व भगवान को पाये हुए संत करूणा से अवतरित होते हैं इसलिए उनका जन्म दिव्य होता है। सामान्य आदमी स्वार्थ से कर्म करता है और भगवान व संत लोगों के मंगल की, हित की भावना से कर्म करते हैं। वे कर्म करने की ऐसी कला सिखाते हैं कि कर्म करने का राम मिट जाय, भगवदरस आ जाय, मुक्ति मिल जाय। अपने कर्म और जन्म को दिव्य बनाने के लिए ही भगवान व महापुरुषों का जन्मदिवस मनाया जाता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ मानवमात्र आत्मिक शांति हेतु प्रयत्नशील है। जो मनुष्य-जीवन के परम लक्ष्य परमात्मप्राप्तितक पहुँच जाते हैं, वे परमात्मा में रमण करते हैं। जिनका अब कोई कर्तव्य शेष नहीं रह गया है, जिनका अस्तित्वमात्र लोक-कल्याणकारी बना हुआ है, वे संत-महापुरुष कहलाते हैं। महान इसलिए क्योंकि वे सदैव महान तत्त्व ‘आत्मा’ में अर्थात् अपने आत्मस्वरूप में स्थित होते हैं। यही महान तत्त्व, आत्मतत्त्व जिस मानव-शरीर में खिल उठता है वह फिर सामान्य शरीर नहीं कहलाता। फिर उन्हें कोई भगवान व्यास, आद्य शंकराचार्य, स्वामी रामतीर्थ, संत कबीर तो कोई भगवत्पाद पूज्य लीलाशाहजी महाराज कहता है। फिर उनका शरीर तो क्या, उनके सम्पर्क में रहनेवाली जड़ वस्तुएँ वस्त्र, पादुकाएँ आदि भी पूज्य बन जाती हैं! ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ईश्वर के पाँच महाभूत भी भेदभाव नहीं करते। दुराचारी से दुराचारी आदमी को भी रहने के लिए पृथ्वी जगह देती है। गंगा कभी ऐसा नहीं सोचती कि जो सज्जन है उसे मैं शीतल जल दूँ और दुर्जन को गरम जल दूँ अथवा गाय पीती है तो अमृत जैसा जल दूँ और सिंह आये तो जहरीला जल दूँ। सूर्य सबको समान रूप से प्रकाश देता है, चंद्रमा सभी को समान रूप से चाँदनी देता है। हवाएँ बहने में कभी विषमता नहीं करतीं, सूर्य-चंद्रमा कभी विषमता का व्यवहार नहीं करते, पृथ्वी कभी विषमता का व्यवहार नहीं करती। जब ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि में, ईश्वर के बनाये हुए भूतों में समता है तो ईश्वर में विषमता कैसे हो सकती है ? अतः तुम भी ईश्वरत्व को पाना चाहते हो तो किसी से भी विषमता का व्यवहार मत करो। सबके प्रति समता रखो। किन्तु समता का मतलव कायरता नहीं, समता का मतलव पलायनवादिता नही। समता का मतलब है सब में एक ही परमात्मा को निहारना, सबका कल्याण चाहना। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ निष्काम भाव से साधन, भजन, त्याग, तपस्या, जप, तप, व्रत, आदि करने से अन्तःकरण में ऐसा सात्त्विक विचार उठता है कि 'यह सब व्यवहार करने से आखिर क्या ? हम कौन हैँ और यह सब क्यों कर रहे हैं ?' संसार का मिथ्यापन समझ में आ जाने से शाश्वत सत्य परमात्मा की ओर हमारी वृत्ति जाती है। प्रकृति के प्रभाव से मुक्त होकर आत्माभिमुख होना ही सब साधनाओं का लक्ष्य है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ