वेदान्तिक जीवन। मगध के राजा के सौ पुत्र थे। परम्परा ऐसी थी कि जो सबसे बड़ा कुमार होता उसको राजगद्दी मिलती। उस परम्परा को मगधनरेश तोड़ना चाहते थे। सौ पुत्रों में सबसे बड़े को नहीं बल्कि जो सबमें विशेष योग्यतावाला हो उसे राज्य देना चाहते थे। जैसे, भगवान जिसकी विशेष योग्यता समझते हैं ऐसे प्रीतिपूर्वक भजन करने वाले के आगे भगवान अपना रहस्य खोल देते है। प्रीतिपूर्वक भजने वाले को भगवान सत्संग में भेज देते हैं। प्रीति पूर्वक भगवान की आकांक्षा करने वाले को भगवान ब्रह्मवेत्ता गुरू की मुलाकात करा देते हैं ऐसे ही मगध नरेश ने सोचा कि ‘सबसे उत्तम अधिकारी बेटे को ही राज्य देना चाहिए। सबसे बड़े बेटे को राज्य देना अनिवार्य नहीं है। जिसकी योग्यता हो वह राज्य का अधिकारी हो। अब परीक्षा करें।’ सौ बेटों को आदेश दिया कि कल भोजन शाला में सब लोग भोजन करने को एक साथ बैठोगे। भोजने के व्यंजन तैयार हुए। मंत्रियों को जो कुछ करना था सब समझा दिया गया। सौ के सौ राजकुमार भोजन करने बैठे। विशाल खण्ड में सुहावने आसन पर पंगत लग गई। भोजन के थाल परोसे गये। घण्ट बजा। ‘नमः पार्वती हर हर महादेव….’ नारे के साथ ज्यों ही भोजन शुरू हुआ तो भोजनालय में शिकारी कुत्ते छोड़ दिये गये। खुँखार कुत्ते आये तो सब राजकुमार मारे भय के भाग खड़े हुए। थाल छोड़-छोड़कर छू…. हो गये। सब भाग गये लेकिन श्रेणिक नाम का सबसे छोटा राजकुमार बैठा रहा। बराबर भोजन करके तृप्त होकर बाहर निकला। राजा ने छिपकर यह सब देखा। दूसरे दिन राजा ने सभा भरी। राजकुमारों से कहाः “मैं राज्याभिषेक करना चाहता हूँ अधिकारी कुमार का। कल मैंने परीक्षा कर ली। मेरा उत्तराधिकारी वही होगा जो परीक्षा में पास हुआ है। तुम लोगों ने कल अच्छी तरह से भोजन किया ?” सब राजकुमार कहने लगेः “भोजन कैसे करें महाराज ! व्यवस्थापकों में अपना कार्य करने की कुशलता ही नहीं है। वे अपना फर्ज नहीं निभाते, अपनी डयूटी नहीं सँभालते। हम ज्यों भोजन करने लगे। त्यों एकाएक खूँखार शिकारी कुत्ते आ गये। दरवाजा खुला रह गया, क्या हुआ, सब गड़बड़ी हो गई।” “अच्छा ! तो किसी ने भोजन नहीं किया ?” श्रेणिक खड़ा हुआ। हाथ जोड़कर बोलाः “पिता जी ! मैंने भोजन किया।” “तूने भोजन किया ? बड़ा मूर्ख है। ये कितने चतुर लड़के हैं ! हिंसक कुत्तों से बच निकले। तू बैठा रहा ? कुत्ते काट लेते तो क्या करता ? पागल कहीं का !” अनजान होते हुए पिता ने कहा। तब श्रेणिक कहता हैः “पिता जी ! मुझे कुत्ते नहीं काट सकते। मैंने भर पेट भोजन कर लिया।” सब राजकुमार सोच रहे थे कि यह छोटा कैसा नासमझ है। खाने के लिए बैठा रहा नादान। पिता जी हमें ही पसन्द करेंगे। हरेक कुमार मान रहा है कि मेरे सिर पर ही पिता जी मुकुट पहनाएँगे। मेरे हिस्से मे ही राज्य आयेगा। मैं ही सबसे चतुर हूँ। मगध नरेश ने चतुराई देख ली थी श्रेणिक की। बोलेः “बेटे ! खड़े हो जाओ। सबको बताओ कि तुमने कैसे भोजन कर लिया ? कुत्तों से क्यों नहीं डरा ?” “महाराज ! भूखा कुत्ता ज्यों ही मेरे नजदीक आता था उसे मैं टुकड़ा फैंक देता था, वह शान्त हो जाता और खाने लगता। जो दूसरों को खिलाता है वह भूखा कैसे रह सकता है ?” राजा ने श्रेणिक को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। समाज में हम लोग दुःखी क्यों होते हैं ? हम चाहते हैं कि मान मिले तो मुझे मिले, दूसरे का जो होना हो वह हो….. सुख मिले तो मुझे मिले, दूसरे का जो होना वह हो। इसी में हम उलझे रहते हैं। अरे ! दूसरों में भी अपना आपा ही छुपा है। मान मिले तो सबको दो, खाना मिले तो बाँटकर खाओ। वास्तव में मान लेने की चीज नही है, मान तो देने की चीज है। श्रेणिक सफल हो गया इसमें वेदान्त छुपा है। जो अनजाने में भी वेदान्तिक जीवन जीते हैं उतने अंश में समाज में सफल हो जाते हैं, उन्नत हो जाते हं। श्रेणिक भयभीत हो जाता तो वेदान्त से च्युत हो जाता। ‘कुत्ते ऐसे हैं….. वैसे हैं…’ ऐसा द्वेष करता तो भी भाग जाता। कुत्तों को खिलाया और साथ ही साथ खुद ने भी खा लिया। अर्थात् व्यवहार में समता आ गई। ‘कुत्तों में भी मैं ही हूँ’ ऐसा समझे चाहे न समझे लेकिन वैसा आचरण हो गया। जो-जो आदमी जितना-जितना उन्नत है उसके पीछे उतना-उतना वेदान्त काम कर रहा है। आदमी जितना-जितना भीतर से सरल और साहसी होता है उतना-उतना ही परमात्मा-सामर्थ्य उसमें निखरता है। केवल सरलता के बल से सब काम नहीं हो जाते। मूर्खों के आगे, पामर आदमियों के आगे अति सरल बन जाओ तो वे तुम्हारी सरलता का दुरूपयोग करने लग जाएँगे। कहाँ सरल बनना और कहाँ कठोर बनना, कहाँ दान करना और कहाँ संग्रह करना, किससे विनम्र होकर काम करवाना और किसको आँख दिखाकर उसकी उन्नति करना यह वेदान्त के रहस्य को जानने वाले लोग ठीक से जानते हैं। वेदान्त का रहस्य जानने वाले लोग वे ही होते हैं जिनको भगवान बुद्धियोग देते हैं। श्रीरामचन्द्रजी जानते थे कि टेक्स (कर) कितना और कैसे लेना चाहिए, संग्रह कब करना चाहिए। किसको कड़ा दण्ड देना चाहिए और किसको केवल लाल आँख दिखानी चाहिए, किसके आगे नतमस्तक हो जाना चाहिए और किसके केवल मुस्कान से काम चलाना चाहिए। रामचन्द्रजी जानते थे, श्रीकृष्ण जानते थे, जनक जानते थे और जो भी ब्रह्मवेत्ता संत हैं वे जानते हैं। इसीलिए उनके द्वारा हम लोग उन्नत होते हैं। जिनको बुद्धियोग मिला है उनके संपर्क में आने से भी हमें बुद्धियोग का कुछ प्रसाद मिल जाता है, हमारा कल्याण हो जाता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ