संतों का समागम अज्ञान को करता कम।
                  'श्री रामचरितमानस' के उत्तरकाण्ड में गरूड़जी काकभुशुण्डी जी से 7 प्रश्न पूछते हैं। गरूड़ जी भगवान के वाहन हैं और काकभुशुण्डी जी के सत्शिष्य हैं। गरूड़ जी ने पूछाः सब ते दुर्लभ कवन सरीरा। चौरासी लाख योनियों में सबसे दुर्लभ कौनसा शरीर है ? काकभुशुण्डी जी बोलेः नर तन सम नहिं तवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही।। मनुष्य शरीर के समान दुर्लभ कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी उसकी याचना करते हैं। नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी।। यह नरक और स्वर्ग में जाने का रास्ता देता है, भगवान के धाम में भी जाने का रास्ता देता है और भगवान जिससे भगवान हैं वह आत्मसाक्षात्क ार कराने की भी योग्यता मनुष्य-शरीर में है। मनुष्य- शरीर ज्ञान, विज्ञान और भक्ति देने वाला है। देवता, यक्ष, गंधर्व भोग शरीर हैं और मनुष्य शरीर भगवत्प्राप्ति के काबिल है इसलिए यह सबसे उत्तम है। दूसरा प्रश्न है, सबसे बड़ा दुःख कौन सा है ? बड़ दुःख कवन.. . उत्तर है, नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं। जगत में दरिद्रता के समान दुःख नहीं है। दरिद्रता तीन प्रकार की होती है – वस्तु की कमी, भाव की कमी, ज्ञान की कमी। जिनको सत्संग मिलता है उनका ज्ञान और भाव बढ़ जाते हैं तो वस्तु की दरिद्रता उनको सताती नहीं है। शबरी भीलन दरिद्र होने पर भी बड़ी सुखी थी, राम जी ने उसके जूठे बेर खाये। तीसरा प्रश्न है, कवन सुख भारी। संसार में सबसे बड़ा सुख कौन सा है ? जिस सुख का उपभोग करते समय पाप-नाश हो, अज्ञान नाश हो, अहंकार नाश हो, चिंता का भी नाश हो, बीमारी भी मिटती जाय, भगवान के करीब होते जायें – ऐसा कौन सा सुख है ? बोले, संत मिलन सम सुख जग नाहीं। । चौथा सवाल पूछा गरूड़ जी ने कि संत और असंत में क्या भेद है ? संत असंत मरम तुम्ह जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु।। हे काकभुशुण्डी जी ! संत असंत का भेद आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिये। पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सुभाउ खगराया।। जो परोपकार करते हैं, मन से, वचन से व शरीर से दूसरे का भला करते हैं, वे हैं संत। दूसरा न चाहे तो भी उसका मंगल करें वे संत हैं। संत सहहिं दुख पर हित लागी। पर दुख हेतु असंत अभागी।। संत दूसरे के हित के लिए दुःख सहेंगे लेकिन असंत अपने सुख के लिए दूसरे को दुःख दे देंगे। संत खुद दुःख सह लेंगे पर दूसरे को सुखी करेंगे। जो दूसरों के दुःख का हेतु बनते हैं वे असंत हैं।
                       जो दूसरे को तन-मन-धन से सताते हैं वे असंत हैं, भविष्य में बड़ा दुःख देखेंगे और जो दूसरे को तन-मन- वचन से उन्नत करते हैं वे भविष्य में क्या वर्तमान में भी बापू हो जाते हैं और भविष्य में बापूओं के बापू बन जाते हैं। साँईं लीलाशाहजी, संत कबीर जी बापूओं के बापू हैं। पाँचवाँ प्रश्न है, कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। श्रुति में सबसे महान पुण्य कौनसा है ? बड़े में बड़ा पुण्य क्या है ? यज्ञ धर्म है, तीर्थ धर्म है, पुण्य धर्म है, जप धर्म है लेकिन सबसे बड़ा धर्म क्या है ? शास्त्रों में, वेदों में सबसे ज्यादा पुण्य किसका कहा गया है ? परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा। बोले, वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना गया है। तन-मन-वचन से किसी को दुःख  न दो, दूसरे के दुःख हरो यह परम धर्म है। किसी को चुभने वाला वचन नहीं कहो। ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय।। छठा सवाल है, कहहु वचन अघ परम कराला।। बड़े में बड़ा, महान भयंकर पाप क्या है ? पर निंदा सम अघ न गरीसा।। परायी निंदा के समान कोई बड़ा पाप नहीं है। सातवाँ प्रश्न है, मानस रोग किसको कहते हैं उसे समझाकर कहिये। मानस रोग कहहु समुझाई। बोले, मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।। मोह सभी व्याधियों का बड़े में बड़ा मूल है। मोह बोलते हैं उलटे ज्ञान को। जो आप हैं उसको जानते नहीं और हाड़ मांस के शरीर को मैं मानते हैं तथा जो छूट जाने वाली चीजें है उनको मेरी मानते हैं। जो अछूट आत्मा है उसको मैं नहीं मानते और आत्मा को 'मैं', परमात्मा को मेरा नहीं मानते-जानते। इसी से सारी व्याधियाँ, तनाव और चिंताएँ आती हैं। इस प्रकार काकभुशुण्डी जी ने अनेक प्रकार के मानस रोगों का वर्णन किया है और अंत में उन सभी रोगों के निवारण का उपाय बताते हुए कहाः सदगुरु बैद बचन बिस्वासा। संजम यह न विषय कै आसा।। सदगुरुरूपी वैद्य के वचनों में विश्वास हो, विषय-विकारी सुखों की आशा न करे, यही परहेज हो।........जौं एहि भाँति बने संजोगा।। यदि ईश्वर की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाय तो ये सब रोग नष्ट हो जायें, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी ये रोग नहीं जाते। इसलिए  कहा गया है कि सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा।। संसार में सदगुरु का, संत का पलभर का, लेकिन सत्संग मिल जाय तो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तनाव सब दूर हो जाते हैं और मोह (अज्ञान) भी दूर हो जाता है। स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2014, पृष्ठ संख्या 16,17 अंक 262 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ