भगवान विशेष कृपा करके जीव को मनुष्य-शरीर देते हैँ, पर नसबंदी, आपरेशन, गर्भपात, लूप, गर्भनिरोधक दवाओँ आदि के द्वारा उस जीव को मनुष्य-शरीरमेँ न आने देना, उस परवश जीवको जन्म ही न लेने देना, जन्मसे पहले ही उसको नष्ट कर देना बड़ा भारी पाप है। उसने कोई अपराध भी नहीँ किया, फिर भी उस निर्बल जीव की हत्या कर देना उसके साथ कितना बड़ा अन्याय है। वह जीव मनुष्य-शरीरमेँ आकर न जाने क्या-क्या अच्छे काम करता, समाज की सेवा करता, अपना उद्धार करता, पर जन्म लेनेसे पहले ही उसकी हत्या कर देना घोर अन्याय है, बड़ा भारी पाप है। अपना उद्धार, कल्याण न करना भी दोष, पाप है, फिर दूसरोँ को भी उद्धारका मौका प्राप्त न होने देना कितना बड़ा पाप है! ऐसा महापाप करनेवाले स्त्री-पुरुषके अगले जन्मोँमेँ कोई सन्तान नहीँ होगी। वे सन्तान के बिना जन्म-जन्मान्तर तक रोते रहेँगे।
                      यह प्रत्यक्ष बात है कि जो मालिक अच्छे नौकरोँ का तिरस्कार करता है, उसको फिर अच्छे नौकर नहीँ मिलेंगे; और जो नौकर अच्छे मालिक का तिरस्कार करता है, उसको फिर अच्छा मालिक नहीँ मिलेगा। अच्छे संत-महात्माओँका संग पाकर जो अपना उद्धार नहीँ करता, उसको फिर वैसा संग नहीँ मिलेगा। जिनसे लाभ हुआ है, ऐसे अच्छे संतो का जो त्याग करता है, उनकी निँदा, तिरस्कार करता है, उसको फिर वैसे संत नहीँ मिलेँगे। जैसे माता-पिता प्रसन्न होकर बालक को मिठाई देते हैँ, पर बालक उस मिठाई को न खाकर गन्दी नालीमेँ फेँक देता है तो फिर माता-पिता उसको मिठाई नहीँ देते। ऐसे ही भगवान विशेष कृपा करके मनुष्य-शरीर देते हैँ, पर मनुष्य उस शरीरसे पाप करता है, उस शरीरका दुरुपयोग करता है तो फिर उसको मनुष्य-शरीर नहीँ मिलेगा। माता-पिता तो फिर भी बालकको मिठाई दे देते हैँ; क्योँकि बालक नासमझ होता है, पर जो समझपूर्वक, जानकर पाप करता है, उसको भगवान फिर मनुष्य-शरीर नहीँ देँगे। इसी तरह जो गर्भपात करते हैँ, उनकी फिर अगले जन्मोँमेँ सन्तान नहीँ होगी।...(पृ॰सं॰ ७ से)

*.  जो स्त्रियाँ नसबंदी आपरेशन करा लेती हैँ, उनका स्त्रीत्व अर्थात गर्भ-धारण करने की शक्ति नष्ट हो जाती है। ऐसी स्त्रियोँ का दर्शन भी अशुभ है, अपशकुन है। भगवानकी दी हुई शक्तिका नाश करनेका किसीको भी अधिकार नहीँ है। उसका नाश करना अनधिकार चेष्टा है, अपराध है। जिन्होँने आपरेशन के द्वारा अपना स्त्रीत्व नष्ट किया है, वे तो पाप की भागिनी हैँ ही, पर जो दूसरोँको आपरेशन करवानेकी प्रेरणा करती हैँ, आग्रह करती हैँ, वे नया पाप करती हैँ। जैसे गीताके अध्ययनका बड़ा माहात्म्य है, पर उससे भी अधिक गीताके प्रचारका माहात्म्य है (गीता १८ । ६९), ऐसे ही जो दूसरोँमेँ आपरेशन का प्रचार करती हैँ, वे बड़ा भारी पाप करती हैँ और गोघातकोँकी संख्या बढ़ानेमेँ सहायक होनेसे गोहत्याके पापमेँ भागीदार होती हैँ। भोली बहनोँ को इस बात का पता नहीँ है, इसलिए वे अनजान मेँ बड़ा भारी अपराध, पाप कर बैठती हैँ। उन्हे इस पाप से बचना चाहिए। (पृ॰सं॰ २०)

*.  नसबंदी आपरेशन कराना व्यभिचारको खुला अवसर देना है, जो बड़ा भारी पाप है। पशुओँकी बलि देने, वध करनेको 'अभिचार' कहते हैँ। उससे भी जो विशेष अभिचार होता है, उसको 'व्यभिचार' कहते हैँ। इससे मनुष्यकी धार्मिक, पारमार्थिक रुचि (भावना) नष्ट हो जाती है और उसका महान पतन हो जाता है।

*.  मनुष्य शरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिए ही मिला है, पर उसको परमात्माकी तरफ न लगाकर केवल भोग भोगनेमेँ ही लगाना और इतना ही नहीँ,केवल भोग भोगने के लिए बड़े-बड़े पाप करना, गर्भपात करना, नसबंदी करना, आपरेशन करना कितने भारी अनर्थ की बात है!
                गर्भपात, नसबन्दी आदि करने से सिवाय भोग भोगने के और क्या सिद्ध होता है? नसबंदी से क्या किसी को कोई धार्मिक-पारमार्थिक लाभ हुआ है, होगा और हो सकता है? नसबंदी करनेसे केवल भोगपरायणता ही बढ़ रही है। जितनी भोगपरायणता आज मनुष्योँमेँ हो रही है, उतनी पशुओँमेँ भी नहीँ है। यदि आप संतान नहीँ चाहते तो संयम रखो, जिससे आपके शरीर मे बल रहेगा, उत्साह रहेगा और आपमेँ धर्म-परायणता, ईश्वर-परायणता आयेगी। आपका मनुष्य जन्म सफल हो जायगा। संतो ने कहा है-
के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि। तान्येव मित्राणि जितानि यानि॥ (प्रश्नोत्तरी ४)
                   अर्थात मनुष्य इन्द्रियोँके वशमेँ हो जाता है तो वे इन्द्रियाँ उसकी शत्रु बन जाती हैँ, जिससे उसके लोक-परलोक बिगड़ जाते हैँ। परंतु वह इन्द्रियोँको जीत लेता है तो वे इन्द्रियाँ उसकी मित्र बन जाती हैँ, जिससे उसके लोक-परलोक सुधर जाते हैँ। इसलिए गीता ने कहा है- उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥ (६ । ५) 'अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे, क्योँकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।'....[पृ॰सं॰ २३]

*. परिवार नियोजन नारी-जाति का घोर अपमान है; क्योँकि इससे नारी-जाति केवल भोग्या बनकर रह जाती है। कोई आदमी वेश्याके पास जाता है तो क्या वह संतान-प्राप्ति के लिए जाता है? अगर कोई आदमी संतान नहीँ चाहता, प्रत्युत केवल भोग करता है तो उसने स्त्रीको वेश्या ही तो बनाया! यह क्या नारी-जातिका सम्मान है? नारी-जातिका सम्मान तो माँ बनने से ही है, भोग्या बनने से कभी नहीँ। अगर स्त्री आपरेशन आदिके द्वारा अपनी मातृशक्तिको नष्ट कर देती है तो वह पैरकी जूतीकी तरह केवल भोग्य वस्तु रह जाती है। यह नारी-जातिका कितना बड़ा अपमान है, निरादर है!...[पृ॰सं॰ २५]
*. जीव मनुष्य शरीर मेँ आकर परमात्माको प्राप्त कर सकता है; अपना और दूसरोँका भी उद्धार कर सकता है; परंतु अपनी भोगेच्छाके वशीभूत होकर उस जीवको ऐसा मौका न आने देना पाप है ही। गीता मेँ भी भगवानने कामना-भोगेच्छा,सुखेच्छाको ही संपूर्ण पापोँ की जड़ बताया है (३ । ३७)। परिवार-नियोजनका मतलब केवल भोगेच्छा ही है। अतः गोलियाँ खाकर संतति-निरोध करना पाप ही है।....(पृ॰सं॰ २६)
*. गर्भपात करना महान पाप है और पतिसे छिपाव करना अपराध है। छिपकर किये गये पापका दण्ड बहुत भयंकर होता है। अगर संतानकी इच्छा न हो तो संयम रखना चाहिए। संयम रखना पाप, अन्याय नहीँ है, प्रत्युत बड़ा भारी पुण्य है, बड़ा त्याग है, बड़ी तपस्या है।...[पृ॰सं॰ २७]
*. ऐसा देखा भी जाता है और वैज्ञानिकोँका भी कहना है कि जहाँ वृक्ष अधिक होते हैँ, वहाँ वर्षा अधिक होती है। जहाँ वृक्ष नहीँ होते, वहाँ वर्षा कम होती है। ऐसे ही मनुष्य अधिक होँगे तो अन्न भी अधिक पैदा होगा। अन्नमेँ कमी कैसे आयेगी? क्या मनुष्य वृक्षोँ से भी नीचे हैँ?....[पृ॰सं॰ ३७]
*. विचारपूर्वक देखेँ कि जबसे परिवार-नियोजन होता गया, तबसे अन्न भी महँगा होता गया, कम पैदा होता गया। जब मनुष्योँकी संख्या कम होगी तो फिर अन्न अधिक क्योँ पैदा होगा? तात्पर्य है कि परिवार-नियोजनकी प्रथा चलनेसे ही यह दशा हुई है। आज 'माँस खाओ, मछली खाओ, अण्डा खाओ'-ऐसा प्रचार किया जाता है, तो फिर वर्षा और खेती क्योँ हो? कारण कि माँस खाने से पशु नहीँ रहेँगे तो उनके लिए घासकी जरुरत नहीँ और मनुष्य माँस खायेँगे तो उनके लिए अन्न की जरुरत नहीँ,फिर निरर्थक घास और अन्न पैदा क्योँ हो!....[पृ॰सं॰ ३८]
*. आप विचार करेँ कि आवश्यकता ही आविष्कारकी जननी है; अतः जनसंख्या बढ़ेगी, संतान अधिक होगी तो उसके पालन-पोषणकी व्यवस्था भी जरुर होगी। पहले जमानेमेँ हमारी यह देखी हुई बात है कि जिस वर्ष टिड्डियाँ अधिक आती थीँ, उस वर्ष खेती अच्छी होती थी, अकाल नहीँ पड़ता था। टिड्डियोँके आनेपर लोग उत्साहसे कहते थे कि इस बार वर्षा अधिक होगी; क्योँकि इतने जन्तु आये हैँ तो उनके भोजनकी व्यवस्था (खेती) भी अधिक होगी। भगवानकी जो व्यवस्था पहले थी, वह आज भी जरुर होगी। आप परिवार-नियोजन करते हैँ और व्यवस्थाका भार अपनेपर लेते हैँ, इसीका यह परिणाम है कि आज व्यवस्था करनेमेँ मुश्किल हो रही है। अतः आप अपनेपर भार मत लो और अपने कर्तव्यमेँ तत्पर रहो तो आपके और परिवारके पालन-पोषणकी व्यवस्था भगवानकी तरफसे जरुर होगी।....[पृ॰सं॰४०]
*. आप थोड़ा विचार करेँ; जो मुसलमान भाई हैँ, वे चार-चार विवाह करते हैँ। हमने सुना है कि एक भाईकी डेढ़ सौ संतानेँ हुईँ; और एक भाई के उन्नीस बालक हुए, उनमेँसे दो मर गये और सत्रह मौजूद हैँ। इस प्रकार वे प्रायः परिवार-नियोजन नहीँ करते, फिर भी उनकी संतानका पालन-पोषण हो रहा है। क्या केवल हिँदू ही अन्न खाते हैँ, कपड़े पहनते हैँ, पढ़ाई करते हैँ? दूसरे लोग क्या अन्न नहीँ खाते, कपड़े नहीँ पहनते, पढ़ाई नहीँ करते? मुसलमान भाई तो कहते है कि संतान होना खुदा का विधान है, उसको बदलनेका अधिकार मनुष्यको नहीँ है। जो उसके विधानको बदलते हैँ, वे अनधिकार चेष्टा करते हैँ।
                     वास्तव मेँ परिवार-नियोजन करनेवालोँ की जनसंख्या कम हो जाती है। अतः मुसलमानोँ ने यह सोचा कि परिवार-नियोजन नहीँ करेँगे तो अपनी जनसंख्या बढ़ेगी और जनसंख्या बढ़ने से अपना ही राज्य हो जायगा; क्योँकि वोटोँका जमाना है। इसलिए वे केवल अपनी संख्या बढ़ाने की धुनमेँ हैँ। परंतु हिँदू केवल अपनी थोड़ी-सी सुख-सुविधाके लिए नसबंदी, गर्भपात आदि महापाप करनेमेँ लगे हुए हैँ। अपनी संख्या तेजीसे कम हो रही है-इस तरफ भी उनकी दृष्टि नहीँ है और परलोकमेँ इस महापापका भयंकर दण्ड भोगना पड़ेगा-इस तरफ भी उनकी दृष्टि नहीँ है। केवल खाने-पीने, सुख भोगनेकी तरफ तो पशुओँकी भी दृष्टि रहती है। अगर यही दृष्टि मनुष्यकी भी है तो यह मनुष्यता नहीँ है। हिन्दू-धर्ममेँ मनुष्य-जन्मको दुर्लभ बताया गया है और कल्याणको सुगम बताया गया है। अतः कोई जीव मनुष्य-जन्ममेँ, हिन्दू-धर्ममेँ आ रहा हो तो उसको रोकना नहीँ चाहिए। अगर आप उसको रोक दोगे तो वह जीव विधर्मियोँके यहाँ पैदा होगा और आपके धर्मका, हिन्दुओँका नाश करेगा; क्योँकि जीवका ऋणानुबंध केवल एक के साथ नहीँ होता, प्रत्युत कइयोँ के साथ होता है। कौरव और पाण्डव-दोनोँकी नौ-नौ अक्षौहिणी सेनाएँ थीँ। परंतु एक अक्षौहिणी नारायणी सेना और एक अक्षौहिणी शल्य की सेना कौरवोँकी तरफ चली जाने से कौरवोँकी सेना पाण्डवोँकी सेना से चार अक्षौहिणी और कौरवोँकी सेना ग्यारह अक्षौहिणी हो गयी! इसी प्रकार हिन्दूलोग नसबंदी, आपरेशन आदिके द्वारा संतति-निरोध करेँगे तो जो संतान उनके यहाँ पैदा होनेवाली थी, वह विधर्मियोँके यहाँ पैदा हो जायगी। जैसे, अबतक हिन्दुओँके यहाँ लगभग बारह करोड़ शिशुओँका जन्म रोका गया है। अतः वे बारह करोड़ शिशु विधर्मियोँके यहाँ जन्म लेँगे तो विधर्मियोँकी संख्या हिन्दुओँकी संख्या से चौबीस करोड़ बढ़ जायगी। विधर्मियोँकी संख्या बढ़ेगी तो फिर वे हिन्दुओँका ही नाश करेँगे। अतः हिन्दुओँको अपनी संतान-परंपरा नष्ट नहीँ करनी चाहिए।....[पृ॰सं॰४१]
*. कम संतानसे परिवार सुखी रहेगा-यह बात नहीँ है। जिनकी संतान नहीँ है, वे भी दुःखी हैँ, जिनकी संतान कम है, वे भी दुःखी हैँ; और जिनकी अधिक संतान है, वे भी दुःखी हैँ। हमने बिना संतानवालोँको भी देखा है, थोड़ी संतान वालोँको भी देखा है और अधिक संतानवालोँको भी देखा है तथा उनसे हमारी बातेँ हुई हैँ। वास्तवमेँ संतानका ज्यादा-कम होना सुख-दुःखमेँ कारण नहीँ है। जो कम संतान होनेके कारण सुखी हो, ऐसा आदमी संसारमेँ एक भी हो तो बताओ। संसारमेँ क्या, सृष्टिमेँ भी नहीँ है! दुःखका कारण है-भोगपरायणता-'ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।' (गीता ५ । २२)। भोगपरायण आदमी कभी सुखी हो सकता ही नहीँ, सम्भव ही नहीँ। जो भोगपरायण है उसकी संतान चाहे ज्यादा हो, चाहे कम हो, चाहे बिल्कुल न हो, वह तो दुःखी रहेगा ही।....[पृ॰सं॰४४]
*. हमारा आशय यह नहीँ है कि आप संतान अधिक पैदा करेँ, प्रत्युत हमारा आशय है कि आप कृत्रिम उपायोँसे सन्तति-निरोध करके थोड़ेसे सुखके लिए अपने शरीर, बल, उत्साह आदिका नाश मत करेँ। खेती तो करेँगे, हल तो चलायेँगे, पर बीज नहीँ बोयेँगे-यह कोई बुद्धिमानी है? 'हतं मैथुनमप्रजम्'-संतान पैदा न हो तो स्त्रीका संग करना व्यर्थ है। अतः हमारा आशय यही है कि आप इन्द्रियोँके गुलाम न बनेँ, उनके परवश न रहेँ, प्रत्युत स्वतन्त्र रहेँ।....[पृ॰सं॰४७]
*. एक बात और है कि संयम स्वतःसिद्ध है और असंयम कृत्रिम है, बनावटी है। स्वतःसिद्ध बात कठिन क्योँ लगती है-इसपर थोड़ा ध्यान देँ। जो लोग संयमका त्याग करके अपना जीवन असंयमी बना लेते हैँ, उनके लिए फिर संयम करना कठिन हो जाता है। अगर पहले से ही संयमित जीवन रखा जाय तो दुर्व्यसनोँका, दुर्गुणोँका त्याग होनेसे मनुष्यमेँ शूरवीरता, उत्साह रहता है, शांति रहती है। संयम करनेसे जितनी प्रसन्नता, नीरोगता, बल, धैर्य, उत्साह रहता है, उतना असंयम करनेसे नहीँ रहता। आप कुछ दिनोँके लिए अच्छे संगमेँ रहेँ और संयम करेँ तो आपको इसका अनुभव हो जायगा कि संयमसे कितना लाभ होता है! संसारमेँ जितने रोग हैँ, वे सब प्रायः असंयमसे ही होते हैँ। प्रारब्धजन्य रोग बहुत कम होते है। संयमी पुरुषोँको रोग बहुत कम होते हैँ। संयमी पुरुष बेफिक्र रहता है, जब कि असंयमी पुरुषमेँ चिन्ता, भय आदि बहुत ज्यादा होते हैँ। जैसे, असंयमी रावण जब सीताको लानेके लिए जाता है, तब वह डरके मारे इधर-उधर देखता है-'सो दससीस स्वान की नाईँ।इत उत चितइ चला भड़िहाईँ॥' (मानस, अरण्य॰२८।५)। परंतु संयमी सीता राक्षसोँकी नगरीमेँ और राक्षसोँके बीच बैठकर भी निर्भय है! अकेली और स्त्री-जाति होनेपर भी उसको किसी से भय नहीँ है। यहाँ तक कि वह रावण को भी अधम, निर्लज्ज आदि कहकर फटकार देती हैँ-'सठ सूनेँ हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिँ तोही॥ (मानस,सुंदर॰९।५)।....[पृ॰सं॰५१]
*. ब्रह्मचर्यका पालन करनेसे बड़े-बड़े रोग आक्रमण नहीँ करते। ब्रह्मचर्यका पालन करनेवालोँकी संतान तेजस्वी और नीरोग होती है। परंतु ब्रह्मचर्य पालन न करनेवालोँकी संतान तेजस्वी और नीरोग नहीँ होती; क्योँकि बार-बार संग करनेसे रज-वीर्यमेँ वह शक्ति नहीँ रहती। भोगासक्तिसे जो संतान पैदा होती है, वह भोगी और रोगी ही होती है। अतः धर्मको प्रधानता देकर ही संतान उत्पन्न करनी चाहिए, जिससे संतान धर्मात्मा, नीरोग पैदा हो। भगवानने भी धर्मपूर्वक कामको अपना स्वरुप बताया है-'धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ॥' (गीता ७।११)।
*. जो केवल शास्त्रमर्यादाके अनुसार संतान-उत्पत्तिके लिए ऋतुकालमेँ अपनी स्त्रीका संग करता है, वह गृहस्थमेँ रहता हुआ भी ब्रह्मचारी माना जाता है। परंतु जो केवल भोगेच्छा, सुखेच्छासे अपनी स्त्रीका संग करता है, वह पाप करता है। गीताने विषय-भोगोँके चिन्तनमात्र से पतन होना बताया है (२ । ६२-६३) और कामको संपूर्ण पापोँका मूल तथा नरकोँका दरवाजा बताया है (३।३६, १६।२१)। तात्पर्य है कि भोगेच्छासे अपनी स्त्रीका संग करना नरकोँका दरवाजा है; पापोँका, अनर्थोँका कारण है। पक्का विचार होनेपर ब्रह्मचर्यका पालन करना कठीन नहीँ है। ब्रह्मचर्यका पालन मनुष्यके लिए खास बात है। अगर मनुष्य संयम नहीँ करता तो वह पशुओँ से भी गया-बीता है। पशुओँमेँ गधा, कुत्ता नीच माना जाता है। परंतु वर्षमेँ एक महीना ही उनकी ऋतु होती है। उस महीनेमेँ उनकी रक्षा की जाय तो उनका संयम हो जाता है। परंतु मनुष्यके लिए बारह महीने खुले हैँ, अतः दूसरा कोई उनकी रक्षा नहीँ कर सकता, वह खुद ही चाहे तो अपनी रक्षा कर सकता है। इसीलिए शास्त्रोँमेँ मनुष्यको ब्रह्मचर्य-पालनकी आज्ञा दी गयी है। ब्रह्मचर्यका पालन करनेसे ब्रह्मविद्याकी प्राप्ति हो जाती है, महान आनंदकी प्राप्ति हो जाती है।....[पृ॰सं॰५३]
*. मनुष संयम तो सदा रख सकता है, पर भोग सदा नहीँ कर सकता-यह स्वतःसिद्ध बात है। अतः संयमके विषयमेँ हिम्मत नहीँ हारनी चाहिए और गर्भपात, नसबंदी-जैसे महापाप से बचना चाहिए। जबतक यह हिन्दू समाज गर्भपात जैसे महापापसे नहीँ बचेगा, तबतक इसका उद्धार मुश्किल है; क्योँकि अपना पाप ही अपने-आपको खा जाता है। अगर यह समुदाय अपनी उन्नति और वृद्धि चाहता है तो इस घोर महापापसे, ब्रह्महत्या से दुगुने पापसे बचना चाहिए। एक भाई ने हमेँ बताया कि गत वर्ष भारत मेँ लगभग इक्कीस लाख गर्भपात किये गये! ऐसी लोक-परलोकको नष्ट करनेवाली महान हत्यासे समाजकी क्या गति होगी, इसे भगवान ही जाने! धर्मपरायण भारत मेँ कितना धर्मविरुद्ध काम हो रहा है, इसका कोई पारावार नहीँ है। इसका परिणाम बड़ा भयंकर निकलेगा, इसलिए समय रहते चेत जाना चाहिए- 'का बरषा सब कृषी सुखानेँ।समय चुकेँ पुनि का पछितानेँ॥'
*. हमारा उद्देश्य किसी की निन्दा करना, किसीको नीचा दिखाना है ही नहीँ। हमारा यह कहना है कि मनुष्य शरीर मेँ आकर कम-से-कम गर्भपात जैसे महापापोँसे तो बचेँ।....[पृ॰सं॰५६] -श्रद्धेय स्वामीरामसुखदासजी 'महापाप से बचो' पुस्तक से