अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।। व्यवहार तो अनेक से होता है लेकिन अनेक में जो छुपा है उस एक पर दृष्टि जमी रहनी चाहिये। घड़े अनेक लेकिन अनेक घड़ों में आकाश एक, तरंग अनेक लेकिन पानी एक, श्वास अनेक लेकिन श्वास का आधार एक, सृष्टियाँ अनेक लेकिन चैतन्य एक। इस प्रकार एक ही पर दृष्टि रखकर अनन्य भाव से जो मेरा चिन्तन करता है उस अनन्य भक्त का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ, भगवान ऐसा वचन देते हैं। योग माने अप्राप्त की प्राप्ति और क्षेम माने प्राप्त का रक्षण। भक्त के उत्थान के लिए जिन चीजों की आवश्यकता है, खान-पान की, किताबों की, इत्यादि सब आवश्यकताएँ भगवान पूर्ण कर देते हैं। मिली हुई चीजों का संरक्षण भी भगवान ही करते हैं। सेठ को अपनी आवश्यकताओं के लिए पैसे कमाने पड़ते हैं, बाजार से चीजें खरीदनी पड़ती है। ये चीजें नष्ट न हो जायें इसलिए रखवाली करनी पड़ती है। लेकिन जो अनन्य भाव से भगवान का भजन-चिन्तन करता है उसे पैसे कमाने कि चिन्ता नहीं करनी पड़ती, चीजें लेने बाजार में नहीं जाना पड़ता, चीजें सँभालने के लिए समय भी नहीं देना पड़ता। यह सब व्यवस्था ईश्वर की प्रेरणा से अन्य लोग कर लेते हैं। अनन्य भक्त को जिन चीजों की आवश्यकता होती वे चीजें पहले आ जाती हैं और बाद में उसकी आवश्यकता पडती है। श्रीधर स्वामी ने भगवद् गीता पर अनूठी टीका लिखी है, बड़ी प्रसिद्ध हुई है। लिखते-लिखते जब यह श्लोक आया तब उनकोयोगक्षेमं वहाम्यहम्शब्द प्रयोग ठीक नहीं लगा। भगवान कहते हैं कि मैं अनन्य भक्त का योगक्षेम वहन करता हूँ माने ढोता हूँ। भगवान मजदूर थोड़े ही हैं कि वहन करें? भगवान ने शब्द-प्रयोग करने में थोड़ी जल्दबाजी की है। यहावहाम्यहम्के बदलेददाम्यहम्शब्द चाहिए। भगवान ‘योगक्षेम देते हैं’ यह कहना उचित रहेगा। ऐसा सोचकर श्रीधर स्वामी नेवहाम्यहम्शब्द को काटकरददाम्यहम्शब्द लिख दिया। भगवद् गीता में यह सुधारा करके वे समुद्रस्नान करने चले गये। इधर एक छोटा-सा राजकुमार बालक सिर पर दाल-चावल की गठरी सिर पर उठाकर उनके घर पहुँचा और आवाज लगाई। श्रीधर स्वामी की पत्नी ने देखा तो अदभुत व्यक्तित्ववाला सुकुमार बालक ! सिर पर एक गठरी और उसके होठों से खून बह रहा है ! तुरन्त पूछाः “अरे बेटे ! किस बदतमीज ने तेरे जैसे प्यारे बालक को मारा है? यह खून बह रहा है !” बालक ने दाल-चावल की गठरी देते हुए कहाः “माताजी ! अभी-अभी श्रीधर स्वामी ने मेरे मुँह पर मारा है और बाहर गये हैं।” माताजी बड़ी दुःखी हुई। सोचाः ‘पण्डित जी को घर आने दो, खबर लेती हूँ।’ बालक तो गठरी देकर चला गया। पण्डित जी घर लौटे तो पत्नी बोलती हैः “आप में जरा भी रहम नहीं है? आज अपने घर में दाल-चावल का दाना भी नहीं है। एक छोटा-सा सुकुमार फूल जैसा बच्चा सिर पर गठरी उठाकर देने आ रहा था तो उसे आपने मुँह पर तमाचा मारा? बेचारे को होठों से खून बह रहा था।” श्रीधर स्वामी ने कहाः “नहीं नहीं….. मैंने किसी को नहीं मारा। किसका बच्चा था? कैसा था? कहाँ गया?” पत्नी बोलीः “किसका बच्चा था, यह मैं नहीं जानती लेकिन था बड़ा प्यारा। कोमल नन्हा-मुन्ना, ओजस्वी-तेजस्वी वह लाल बड़ा सुहावना लग रहा था। जैसे आया था वैसे चला गया। पता नहीं कौन था…. कहाँ गया? श्रीधर स्वामी समझ गये किः “अरे ! वही निराकार सच्चिदानन्द परमात्मा चैतन्य का साकार स्वरूप कृष्ण-कण्हैया स्वयं थे। घर में अन्न नहीं थे तो गठरी उठाकर खुद देने आये, मेरे योगक्षेम का वहन किया। मैंने उनके शब्द को काटा, उनके वचन को काटा माने उनके मुख पर प्रहार ही किया।” उन्हेँ अन्तरातमा मेँ लगा कि हाँ….। भगवान सचमुच अनन्य भक्त के योगक्षेम का वहन करते हैं। ‘ददामि’ शब्दप्रयोग करें तो देने वाला दाता हो जाता है और लेने वाला भिखारी हो जाता है। भगवान का भक्त भिखारी नहीं होता। वह स्वयं सम्राट होता है। भगवान उसके आगे भिखारी होने में अपना सौभाग्य मानते हैं। अपने प्यारे बच्चे के आगे बाप अपने को सेवक मानता है, उसको कन्धे पर चढ़ाकर वहन कर लेता है। ऐसे ही भगवान अपने अनन्य भक्त को अपने से ऊँचे देखकर खुश होते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ