वीर बालक छत्रसाल (छत्रसाल जयंती : २० मई)। वीर छत्रसाल पन्ना नरेश चंपतराय के पुत्र थे । ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया वि. सं. १७०६ को उनका जन्म मोर पहाडी के जंगल में हुआ था । क्योंकि उस समय मुगल शासक शाहजहाँ की सेनाएँ चारों ओर से घेरा डालने के प्रयत्न में थीं, इसलिए धर्मनिष्ठ चंपतराय ने छिपे रहना आवश्यक समझकर पुत्र के जन्म पर भी कोई उत्सव नहीं मनाया । एक बार तो शत्रु इतने निकट आ गये कि चंपतराय और अन्य लोगों को प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भागना पडा । इस भाग-दौड में शिशु छत्रसाल मैदान में अकेले ही छूट गये, कितूूूू शिशु पर शत्रुओं की दृष्टि नहीं पडी । चार वर्ष की अवस्था तक उन्हें ननिहाल में रहना पडा । पाँच वर्ष की अवस्था में इन्होंने श्रीरामजी के मंदिर में भगवान राम और लक्ष्मण की मूर्तियों को अपने जैसा बालक समझकर उनके साथ खेलना चाहा और कहते हैं- सचमुच भगवान इनके साथ खेले । छत्रसाल को शौर्य अपने पिता से पैतृक सम्पत्ति के रूप में मिला था । जब छत्रसाल १३-१४ वर्ष के हुए तब तक औरंगजेब दिल्ली के सिंहासन पर बैठ चुका था । उसका अन्याय-अत्याचारका दौर सारे देश को आतंकित कर रहा था । एक बार विंध्यवासिनी देवी के मंदिर में मेला था । चारों ओर खूब चहल-पहल थी । दूर-दूर से लोग भगवती के दर्शन के लिए आ रहे थे । नरेश चंपतराय बुंदेले सरदारों के साथ मंत्रणा कर रहे थे । युवराज छत्रसाल ने अपनी पादुका उतारी, हाथ-पैर धोये और एक डलिया लेकर देवी की पूजा करने के लिए पुष्प चुनने हेतु वाटिका में पहुँचे । उनके साथ उसी अवस्था के दूसरे राजपूत बालक भी थे । पुष्प चुनते हुए वे कुछ दूर निकल गये । कुमार छत्रसाल ने देखा कि कुछ मुसलमान सैनिक हाथों में नंगी तलवारें लिये आ रहे हैं । जब वे लोग समीप आये, तो उनके सरदार ने आगे बढकर पूछा : ‘‘विंध्यवासिनी का मंदिर किधर है ? छत्रसाल बोले : ‘‘क्यों, तुम्हें भी देवी की पूजा करनी है क्या ? मुसलमान सरदार ने कडककर कहा : ‘‘बकवास मत करो । हम तो मंदिर को तोडने आये हैं । छत्रसाल ने फूलों की डलिया दूसरे बालक को पकडायी और गरज उठे : ‘‘मुह सँभालकर बोल ! फिर ऐसी बात कही तो जीभ खींच लूँगा । सरदार हँसा और बोला : ‘‘तू भला क्या कर सकता है ? तेरी देवी भी... लेकिन बेचारे का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ कि छत्रसाल की तलवार उसकी छाती के पीछे तक निकल गयी । उस पुष्प-वाटिका में मुसलमान सैनिकों और युवराज के साथियों के बीच युद्ध छिड गया । जिन बालकों के पास तलवारें नहीं थीं, वे तलवारें लेने दौड पडे । मंदिर में इस युद्ध का समाचार पहुँचा । राजपूतों ने कवच पहने और तलवारें सँभालीं, किंतु उन्होंने देखा कि युवराज छत्रसाल एक हाथ में रक्त से सनी तलवार तथा दूसरे में फूलों की डलिया लिये ‘माता विंध्यवासिनी की जय गुंजाते हुए चले आ रहे हैं । युवराज ने अपने साथियों का अकेले नेतृत्व करते हुए शत्रु-सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया । चंपतराय ने पुत्र का स्वागत किया । लोगों ने युवराज छत्रसाल की जय-जयकार से आकाश गुंजा दिया । पन्ना राज्य छत्रसाल को पाकर धन्य हुआ । जो कमजोर दिल के हैं वे ही हताश-निराश होते हैं, जुल्मियों का जुल्म सहते हैं । छत्रसाल जैसे वीर जुल्मियों का जुल्म क्यों सहें ? समाज का शोषण करनेवाले लोगों से एकजुट होकर, बुद्धिपूर्वक लोहा ले सकते हैं । (लोक कल्याण सेतु, दिसम्बर २००२)