गोवध ; मीडिया की भ्रष्ट बुद्धि। भारत में सदियों से गाय अवध्य (हत्या करने योग्य नहीं) रही है। लेकिन अंगरेजों ने गोवध को लेकर कई तर्क प्रस्तुत किए थे। आज भी अंगरेजों के मानस पुत्र उसी तर्क को प्रस्तुत कर रहे हैं। पिछले दिनों भारत के एक सबसे बड़े समाचार पत्र समूह ने अपने संपादकीय में लिखा है कि ‘‘चरक संहिता में गोमांस खाने को लिखा है’’। तरस आती है ऐसे संपादकों की बुद्धि पर। अंगरेज चले गए – ६८ वर्ष हो गए लेकिन अभी तक हम अपनी बुद्धि पर नहीं जी रहे हैं। चरक संहिता आयुर्वेद का अभिन्न अंग है। आयुर्वेद प्रकृति का संपूर्ण विज्ञान है। उसमें सृष्टि जगत का सभी कुछ है। जैसे मिट्टी में क्या – क्या है से लेकर मनुष्य के शरीर तक का विवरण। इन्हीं में गाय के शरीर का भी विवरण है। गाय के मांस में क्या – क्या है ? उसकी हड्डियों में क्या – क्या है ? उसके रक्त में क्या – क्या है ? उसी अध्याय में मनुष्य के शरीर का भी विवरण है कि मनुष्य के मांस में क्या – क्या है ? मनुष्य के रक्त में क्या क्या है ? मनुष्य की हड्डियों में क्या – क्या है ? इसी प्रकार सारे जीव जगत का वर्णन है। लेकिन आयुर्वेद में कहीं यह नहीं लिखा है कि गाय का मांस खाने योग्य है। मनुष्य का मांस खाने योग्य है। आयुर्वेद संपूर्ण विज्ञान है अत: उसमें सभी का सभी कुछ वर्णन है। भक्ष्य पदार्थों का भी और अभक्ष्य पदार्थों का भी। मैं उन संपादकों से पूछना चाहता हूं कि आयुर्वेद में मनुष्य के मांस का भी विवरण है, फिर मनुष्य के मांस खाने की दलील क्यों नहीं लिखते ? अंगरेजों ने इसी को कुतर्क बनाया था। कहा था कि आयुर्वेद में गोमांस के बारे में जानकारी है यानि गोमांस खाने के लिए कहा है। आयुर्वेद ही नहीं, बल्कि ईस्लाम का अह-हदीस (कुरआन-शरीफ के बाद का पवित्र ग्रंथ) भी कहता है कि वैसे मांस से बचो जिसमें रक्त रहता/बहता हो। गाय के मांस को कितनी बार भी धोया जाए तो उसमें से रक्त बाहर नहीं निकलता। वह खून से लाल ही रहता है जबकि बकरी या अन्य जीव के मांस को एक या दो बार धो दिया जाए तो मांस में बहने/रहने वाले खून के अंश बाहर निकल आते हैं। इसीलिए अह-हदीस ने गाय के मांस को मनुष्य शरीर के लिए जहर बतलाया है। कड़ाई के साथ गोमांस खाने का विरोध किया है और गाय के दूध को अमृत बतलाया है। लेखक काटजू जैसे विनाशकारी विचारधारा के लागों को गाय ‘‘मॉ’’ नहीं, बल्कि एक सामान्य जानवर दिखलाई देती है क्योंकि उन्होंने गाय और उसके विज्ञान को नहीं समझा है। बुद्धि पर रसायन थोप ली है। कई संत चोला धारण करने वाले भी हैं, जिन्हें गाय केवल एक उपयोगी जानवर दिखलाई देती है। उसमें ‘‘माँ’’ दिखलाई नहीं देती। जबकि गऊ को हम भारत के लोग सदियों से ‘‘माँ’’ कहते आए हैं क्योंकि वह हमारी माँ से भी अधिक वात्सल्य, स्नेह और प्रेम देती है। ठीक वैसी ही, जैसी हमारी माँ हमें देती है। अब जिन लोगों को ‘‘माँ’’ का वात्सल्य नहीं मिला, केवल डब्बे के दूध पर पले – बढ़े हों, उन्हें क्या पता, माँ का वात्सल्य क्या होता है ? गऊमॉ हमें किस प्रकार का वात्सल्य देती है ? आज विज्ञान की कसौटी पर भी प्रमाणित हो चुका है कि गाय एक सामान्य जीव नहीं, बल्कि सृष्टि को संतुलित रखने वाला प्राण है। गउमाँ मात्र प्राणी नहीं, भारत का प्राण है। गऊमाँ मात्र एक जीव नहीं, भारत की जान है। यह तो हमारी कायरता है कि अभी तक हम उनकी हो रही हत्या को मात्र तमाशा के रूप में देखते रहे हैं। हमारे पुराणों में तो स्पष्ट है कि ‘‘अवध्य गाय की कोई हत्या करे तो उसकी हत्या कर देने में कोई पाप नहीं लगता।’’ किसी भी कीमत पर गाय को बचाना, हमारा धर्म है और राजा का भी राजधर्म है। लेकिन अंगरेजों के जाने के बाद हमारे देश में उन्हीं के निर्मित संविधान लाए गए, जिसमें अंगरेजों के हित सधते हैं। संविधान का भारतीयकरण या स्वदेशीकरण नहीं हो पाया। इसी कारण भारत में जितने भी प्रधानमंत्री हुए, उन सभी ने गाय की रक्षा को अपना राजधर्म नहीं माना। वर्तमान की सरकार से भी गऊमाँ को लेकर बड़ी आशा थी लेकिन उस पर भी पानी फिर रहा है। गऊहत्या बंदी का राष्ट्रीय कानून बनाने से बचने के लिए केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों को ढाल बना रही है। राज्य की सरकारों के पास गऊहत्य रोकने के लिए प्रयाप्त बल नहीं है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र के लोगों को यदि गऊमांस चाहिए तो वह कर्नाटक से आ रहा है। पहले गऊमाँ को काटने के लिए महाराष्ट्र से कर्नाटक लेकर जाते हैं और फिर गऊमाँ के मांस को महाराष्ट्र में बाजार देते हैं। यही हाल गोवा का भी है। यही कारण है कि जिन – जिन प्रदेशों में गऊहत्या बंदी का कानून लग गया है वहां भी समूल गोहत्या बंदी लागू नहीं हो पाया है। भारत में गोमांस भक्षण पर प्रतिबंध लगना चाहिए और गोमांस खाने वालों को सजा होनी चाहिए। तभी भारत में संपूण हत्याबंदी हो पाएगा। भारत की मीडिया के पास आंखें कम है और कान ज्यादा है। इसीलिए मीडिया सुनी हुई बात को ज्यादा लिखता है और देखी हुई बात को कम। हमारा संविधान भी ऐसा ही है। कही हुई बात प्रमाणिक होती है और देखी हुई घटना के लिए प्रमाण इकट्ठे करने होते हैं। यहां पर समझने के लिए सबसे अह्म तथ्य यह है कि अंगरेजों ने योजनाबद्ध रूप से हमारे सभी ग्रंथों को भ्रष्ट किया था। अर्थात्äा् पौराणिक ग्रंथों में छेड़ – छाड़ किया था। उनके तथ्यों को बदला था। जर्मनी के संस्कृत विद्वान मैक्समूलर से भारतीय ग्रंथों का अनुवाद करवाकर उनके तथ्यों को तोड़ – मरोड़ कर उल्टा करवाया था। आज भारत के बाजार में ज्यादातर ग्रंथ वैसे ही हैं। मनुस्मृति जो समाजशास्त्र का सबसे बड़ा विज्ञान है उसे भी नहीं छोड़ था अंगरेजों ने। आज हम उसी मनुस्मृति को पढ़ रहे हैं और कोस रहे हैं कि मनुस्मृति के तथ्य असमाजिक हैं। आज अंगरेजों से ज्यादा दोष हमारा है। वे लूटने और गुलाम बनाने आए थे और चले गए। लेकिन हम भारत के लोग अभी तक उनकी गुलामी में जीने को भूल नहीं पाये हैं। हम अपने ग्रंथों में किए गए तोड़ – मरोड़ को सुधारकर पुन:प्रकाशन नहीं कर पा रहे हैं। उनके कहे को ब्रह्म लकीर मान बैठे हैं। उनकी व्यवस्था लूट के लिए खड़ी की गई थी, आज के भारत में गोरे अंगरेजों के काले कानून क्यों ? उठो ! भारत के युवाओं, आज का भारत क्रांति मांग रहा है।