एकान्त में शुभ-अशुभ सब संकल्पों का त्याग करके अपने सच्चिदानंद परमात्मस्वरूप में स्थिर होना चाहिए। घोड़े के रकाब में पैर डाल दिया तो दूसरा पैर भी जमीन से उठा लेना पड़ता है। ऐसे ही सुख की लालच मिटाने के लिए यथायोग्य निष्काम कर्म करने के बाद निष्काम कर्मों से भी समय बचाकर एकान्तवास, लघु भोजन, देखना, सुनना आदि इन्द्रियों के अल्प आहार करते हुए साधक को कठोर साधना में उत्साहपूर्वक संलग्न हो जाना चाहिए। कुछ महीने बंद कमरे में एकाकी रहने से धारणा तथा ध्यान की शक्ति बढ़ जाती है। आन्तर आराम, आन्तर सुख, आन्तरिक प्रकट होने लगता है। धारणा ध्यान में परिणत होती है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ तुलसी हरि के भजन में, ये पाँचो न सुहात। विषय भोग निद्रा हँसी, जगतप्रीति बहुबात॥ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ संसार में केवल एक ही रोग है। ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या - इस वेदांतिक नियम का भंग ही सर्व व्याधियों का मूल है। वह कभी एक दुख का रूप लेता है तो कभी दूसरे दुख का। इन सर्व व्याधियों की एक ही दवा है : अपने वास्तविक स्वरूप ब्रह्मत्व में जाग जाना। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जब आपने व्यक्तित्व विषयक विचारों का सर्वथा त्याग कर दिया जाता है तब उसके समान अन्य कोई सुख नहीं, उसके समान श्रेष्ठ अन्य कोई अवस्था नहीं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जो लोग आपको सबसे अधिक हानि पहुँचाने का प्रयास करते हैं, उन पर कृपापूर्ण होकर प्रेममय चिंतन करें। वे आपके ही आत्मस्वरूप हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ज्ञानी, महात्मा और भक्त कहलाने तथा बनने के लिए तो प्राय: सभी इच्छा करते है, परन्तु उसके लिए सच्चे ह्रदय से साधन करने वाले लोग बहुत कम है। साधन करने वालों में भी परमात्मा के निकट कोई ही पहुचता है; क्योकि राह में ऐसी बहुत सी विपद-जनक घाटियाँ आती है जिनमे फसकर साधक गिर जाते है। उन घाटियों में 'कन्चन; और 'कामिनी' ये दो घाटियाँ बहुत ही कठिन है, परन्तु इनसे भी कठिन तीसरी घाटी मान-बड़ाई और ईर्ष्या की है। किसी कवि ने कहा है कंचन तजना सहज है, सहज त्रिया का नेह। मान बड़ाई ईर्ष्या, दुर्लभ तजना येह॥ इन तीनो में सबसे कठिन है बड़ाई। इसी को कीर्ति, प्रसंसा, लोकेष्णा आदि कहते है। शास्त्र में जो तीन प्रकार की त्रष्णा (पुत्रेष्णा, लोकेष्णा और वितेश्ना) बताई गयी है। उन तीनो में लोकेष्णा ही सबसे बलवान है। इसी लोकेष्णा के लिए मनुष्य धन, धाम, पुत्र, स्त्री और प्राणों का भी त्याग करने के लिए तैयार हो जाता है। जिस मनुष्य ने संसार में मान-बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग कर दिया, वही महात्मा है और वही देवता और ऋषियों द्वारा भी पूजनीय है। साधू और महात्मा तो बहुत लोग कहलाते है किन्तु उनमे मान-बड़ाई और प्रतिष्ठा का त्याग करने वाला कोई विरला ही होता है। ऐसे महात्माओं की खोज करने वाले भाइयों को इस विषय का कुछ अनुभव भी होगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सब कुछ खोना पड़े तो खो देना, लेकिन इश्वर के अस्तित्व के प्रति श्रद्धा कभी मत खोना। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ मन के शिकंजे से छूटने का सबसे सरल और श्रेष्ठ उपाय यह है कि आप किसी समर्थ सदगुरु के सान्निध्य में पहुँच जायें । उनकी सेवा तन-मन-धन से करें । संसारियों की सेवा करना कठीन है क्योंकि उनकी इच्छाओं और वासनाओं का कोई पार नहीं, जबकि सद्गुरु तो अल्प सेवा से ही संतुष्ट हो जायेंगे क्यों कि उनकी तो कोई इच्छा ही नहीं रही । ऎसे सद्गुरु का संग करें, उनके उपदेशों का श्रवण करें, मनन करें, निदिध्यासन करें । उनके पास रहकर आध्यात्मिक शास्त्रों का अभ्यास करें, ब्रह्मविद्या के रहस्य जानें और आत्मसात करें । पक्की खोज करें कि आप कौन हैं ? यह जगत क्या है ? ईश्वर क्या है ? सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? इन समस्याओं का सच्चा भेद ह्रदय में खुलेगा तब पता चलेगा कि जगत जैसा तो कुछ है ही नहीं । सर्वत्र आप स्वयं ही ब्रह्मस्वरुप में व्याप्त हैं । आप ही वृत्ति को बहिर्मुख करके अलग-अलग रुप धारण करके खेल खेलते हैं, लीला करते हैं । जीवन के समस्त दुःखों से मुक्ति पाने का एकमात्र सच्चा उपाय है ब्रह्मविद्या । ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ पूर्ण समर्थ सद्गुरु के समागम से ब्रह्मविद्या मिलेगी । ब्रह्मविद्या से आपका मन शुद्ध, स्वच्छ, निर्मल होकर अंत में अमन बन जायेगा । सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि पक्की हो जायेगी । समग्र जगत मरुभूमि के जल के समान भासित होगा । ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ पूजा-उपासना का लक्ष्य यदि परमात्म-प्राप्ति नहीं है और पुजारी होकर तीन सौ रूपये की नौकरी करते रहे, मूर्ति की सेवा-पूजा करते रहे तो भी जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मूर्ति की सेवा-पूजा-उपासना में यदि प्रेम है, भावना है, लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति का है तो वह उपासना खण्ड की होते हुए भी हृदय में अखण्ड चैतन्य की धारा का स्वाद दे देगी। मूर्ति में भी अखण्ड चैतन्य की चमक देखते हैं तो जीवन उपासनामय बन जाता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जिनको मनुष्य जन्म की महत्ता का पता नहीं, वे लोग देह के मान में, देह के सुख में, देह की सुविधा में अपनी अक्ल, अपना धन, अपना सर्वस्व लुटा देते हैं। जिनको अपने जीवन की महत्ता का पता है, जिन्हें वृद्धावस्था दिखती है, मौत दिखती है, बाल्यावस्था का, गर्भावास का दुःख जिन्हें दिखता है, विवेक से जिन्हें संसार की नश्वरता दिखती है एवं संसार के सब संबंध स्वप्नवत दिखते हैं, ऐसे साधक मोह के आडंबर और विलास के जाल में न फँसकर परमात्मा की गहराई में जाने की कोशिश करते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जिस तरह भूखा मनुष्य भोजन के सिवाय अन्य किसी बात पर ध्यान नहीं देता है, प्यासा मनुष्य जिस तरह पानी की उत्कंठा रखता है, ऐसे ही विवेकवान साधक परमात्मशांतिरूपी पानी की उत्कंठा रखता है। जहाँ हरि की चर्चा नहीं, जहाँ आत्मा की बात नहीं वहाँ साधक व्यर्थ का समय नहीं गँवाता। जिन कार्यों को करने से चित्त परमात्मा की तरफ जावे ही नहीं, जो कर्म चित्त को परमात्मा से विमुख करता हो, सच्चा जिज्ञासु व सच्चा भक्त वह कर्म नहीं करता। जिस मित्रता से भगवद् प्राप्ति न हो, उस मित्रता को वह शूल की शैया समझता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ