धर्मस्य मूलम अर्थम् , अर्थस्य मूलम परिश्रमम्
आज कल फेसबुक के हिन्दू ह्रदय सम्राट चिल्लाते हुए दिखेंगे कि देश की अर्थ व्यवस्था जाए भाड़ में, हम तो पहले हिन्दू राष्ट्रीय बनाएंगे। इनमे बच्चों की कोई गलती नहीं, दुश्मन भी जानता है कि कब कैसे किसका माइंड वाश करना है। खैर जो है सो हइये।
हम बात करते हैं की हमारे महर्षि चाणक्य ने इस मुद्दे पर क्या कहा है।
महाऋषि चाणक्य का एक सूत्र है धर्मस्य मूलम अर्थम् , अर्थस्य मूलम कामम ! 
इसका सीधा सा अर्थ है धर्म के मूल मे अर्थ (धन) है ! अर्थात अर्थ कमजोर हुआ तो धर्म अपने आप कमजोर होता है !
अर्थात अर्थव्यवस्था ठीक नहीं है तो धर्म पालन नहीं होता भूखे लोग मंदिर नहीं बनाते और भूखे लोग भजन भी नहीं करते ! पेट भरा हुआ होना चाहिए समृद्धि होनी चाहिए तब मंदिर बनते है तब मठ बनते है तब संस्थाएं बनती है और धार्मिक कार्य होते है !
अतिरिक्त धन अगर आपके पास होगा तब ही गौशालाएँ बनती है मंदिर बनते है जागरण आदि होते है,रथयात्राएं निकलती है, जिनको खुद को खाने के लाले पड़े हो वो बेचारे क्या आर्थिक दान देंगे ? और बिना अर्थ के क्या धर्म टिकेगा ??
तो अर्थ जितना मजबूत होगा धर्म उतना फैलेगा अर्थ जितना कमज़ोर होगा धर्म उतना कमजोर होगा ! भारत जब जब आर्थिक रूप से मजबूत था भारत की धर्म ध्वजा पूरी दुनिया मे फैलती थी भारत जब सोने की चिड़िया था तो भारत का धर्म पूरी दुनिया मे फैला बोध धर्म गया, जैन धर्म गया ,सनातन धर्म गया !
और यही पूरी दुनिया मे देखा जाता है जिन देशो की अर्थव्यवस्था कमजोर है उनका धर्म भी कमजोर होता है और जिन देशो की अर्थव्यवस्था मजबूत है उनका धर्म भी मजबूत होता है ! आप देख लो यूरोप और अमेरिका की अर्थव्यवस्था बहुत मजबूत है तो ईसाईयत पूरी ताकत से लगी हुई है पूरी दुनिया मे !!
अरब देशो की अर्थव्यवस्था पट्रोल और डीजल की बिक्री के कारण पिछले 40 वर्षो मे मजबूत हुई है ! 40 साल पहले तो इनको कोई जानता पहचानता नहीं था तो इस्लाम को देख लो आप कैसे पूरी ताकत से दुनिया के सामने खड़ा हो रहा है !