बर्ट्रेंड रसेल पहली बार भारत के एक आदिवासी समाज में गया। पूरे चांद की रात और जब आदिवासी नाचने लगे और ढोल बजे और मंजीरे बजे तो रसेल के मन में उठा कि सभ्य आदमी ने कितना खो दिया है!
सभ्यता के नाम पर हमारे पास है क्या?
न ढोल बजते हैं, न मंजीरा बजता है, न कोई नाचने की क्षमता रह गयी है; पैर ही नाचना भूल गये हैं।
रसेल ने लिखा है कि उस रात पूरे चांद के नीचे, वृक्षों के नीचे नाचते हुए नंगे आदिवासियों को देखकर मेरे मन में यह सवाल उठा कि हमने पाया क्या है प्रगति के नाम पर?
हम रूखे सूखे हो चुके हैं, नोटों में, नशे में डूब गये हैं ......उसने यह भी लिखा कि अगर लंदन में लौटकर मैं ट्रेफिलगर क्मायर में खड़े होकर नाचने लग तो तल्लण पकड़ लिया जाऊंगा। लोग समझेंगे पागल हो गये।
लोग दुख को तो समझते हैं स्वास्थ्य और आनंद को समझते हैं विक्षिप्तता।
हालतें इतनी बिगड़ गयीहैं कि इस दुनिया में केवल पागल ही हंसते हैं, बाकी समझदारों को तो हंसने की फुर्सत कहां है?समझदारों के हृदय तो सूख गये हैं। समझदार रुपये गिनने में उलझे हैं। समझदार महत्वाकांक्षा की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। समझदार तो कहते हैं कमा लो जोड़ लो !!
फुर्सत कहौ है हंसने की, दो गीत गाने की, इकतारा बजाने की, तारों के नीचे वृक्षों की छाया में नाचने की, सूरज को देखने की, फूलों से बात करने की, वृक्षों को गले भेंटने की, फुर्सत किसे है? ये तो आखिर की बातें हैं, जब सब पूरा हो जायेगा—धन होगा, पद होगा, प्रतिष्ठा होगी, तब बैठ लेंगे वृक्षों के नीचे।
लेकिन यह दिन कभी आता नहीं, न कभी आया है, न कभी आयेगा। ऐसा जीवन तुम गुजार देते हो रोते—रोते, झींकते—झीकते। ऐसे ही आते हो ऐसे ही चले जाते हो—खाली हाथ आये, खाली हाथ गये।
पश्चिम के बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक आर. डी. लैग ने एक नयी अवधारणा दी है। लैग ने सिद्ध करने की कोशिश की है कि पश्चिम के पागलखानों में ऐसे बहुत से लोग हैं जो अगर अतीत में कभी पूरब के देशों में पैदा हुए होते तो परमहंस समझे जाते; जिनको लोग मस्त फकीर समझते; जिनकी लोग पूजा करते।
जब आर. डी. लैंग जैसा विचारशील मनोवैज्ञानिक कुछ कहता है तो उसमें अर्थ होता है। जीवनभर पागलों का अध्ययन करके उसने ये वक्तव्य दिये हैं कि बहुत से ऐसे लोग बंद हैं, जो अगर पूरब में होते तो रामकृष्ण होते।
और तुम पक्का समझो अगर स्वामी रामकृष्ण परमहंस पश्चिम में होते तो किसी अस्पताल में रखे जाते, हिस्टीरिया के मरीज समझे जाते। वह तो संयोग था कि वे भारत में पैदा हुए और संयोग था कि समय अच्छा था जब पैदा हुए। अगर अब पैदा होते कलकत्ते में तो दक्षिणेश्वर के मंदिर में नहीं होते, बड़े बाजार के अस्पताल में होते। और लाख चिल्लाते, कौन सुनता?
लाख चिल्लाते कि मुझे ज्ञान हो गया है; लोग कहते शांत रहो, सभी पागलों को हो जाता है। लाख कहते कि मुझे काली मइया के दर्शन हो रहे हैं; लोग कहते शांत रहो, तुम्हें भ्रांतियां हो रही हैं।
मनोवैज्ञानिक तो अभी भी कहते हैं किस्वामी रामकृष्ण परमहंस को मिरगी की बीमारी थी, हिस्टीरिया था। यह जो बेहोश होकर गिर जाते थे, यह कोई समाधि इत्यादि नहीं है।
मनोवैज्ञानिक तो यह भी कहते हैं कि जीसस भी विक्षिप्त थे। क्योंकि विक्षिप्त आदमी ही आकाश से बातें करते हैं, कोई समझदार आदमी आकाश से बातें करते हैं? जीसस झुक जाते, घुटने टेक देते, आकश से बोलते—और ऐसे बोलते जैसे आकाश में कोई हो। पुकारते अपने पिता को कि—अब्बा! पागल हो गये हो, कौन अब्बा है वहाँ आकाश में?
मनोवैज्ञानिक कहेंगे hallucination हेत्थूसिनेशन्स, विभ्रम हो रहा है। यह आदमी स्थ्या हो गया, इसको इन्तुलिन के इंजेक्यान दो, कि बिजली के शाक दो। इसको होश में लाओ, इसको रास्ते पर लाओ।वो तो चैतन्य महाप्रभु को भी मानसिक रूप से अस्वस्थ बता देते हैं !!
आप भी घबराओ मत अगर कुछ आपमें घटित हो रहा है तो। …… एक मस्ती आती है आनंद आता है नशा चढ़ता है अगर आप सच में साधना में प्रगतिवान हो, दिव्य अनुभव होते हैं !! डरो मत कि घर में सब पागल समझ रहे हैं। ……। करते जाओ साधना वो सीढ़ी पालो की मीरा की तरह ,चैतन्य महाप्रभु कि तरह नाचते गाते झूमते हुए हरिनाम रस लो !!
आज से अभी से कुछ गाईये, मुस्कुराईये, नाचिये, मिलिए जुलिये सब से व् प्रेम से आनंदित हो कर मस्ती से जीवन गुजारिये। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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