साधना के रास्ते पर हजार हजार विघ्न होंगे, लाख लाख काँटे होंगे । उन सबके ऊपर निर्भयतापूर्वक पैर रखेंगे । वे काँटे फूल न बन जाँए तो हमारा नाम ‘साधक’ कैसे ? ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ तुम्हारे जिस चित्त में सुखाकार-दुखाकार-द्वेषाकार वृत्तियाँ उठ रही है, वह चित्त प्रकृति का है और उसका प्रेरक परमात्मा साक्षी उससे परे है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ शिष्य यदि दृढ़ता और तत्परता से गुरु आज्ञापालन में लग जाये तो प्रकृति भी उसके लिए अनुकूल हो जाती है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जो खिलाड़ी खेल को कठिन मानता है वह खिलाड़ी नहीं अनाड़ी है। जो कारीगर कहता है कि यह काम कठिन है, वह कारीगर नहीं अनाड़ी है। जो कहता है कि आत्मज्ञान पाना कठिन है, आत्म विश्रान्ति पाना कठिन है, आत्मा में आराम पाना कठिन है, परमात्मा का ध्यान करना कठिन है, प्रभु का अमृत पीना कठिन है, वह प्रभु के मार्ग में अनाड़ी है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ राजा खटवांग ने एक मुहूर्त में प्रभु का साक्षात्कार कर लिया। राजा जनक ने घोड़े की रकाब में पैर डालते डालते प्रभु का अनुभव कर लिया। शुकदेवजी महाराज ने इक्कीस दिन में आत्म-साक्षात्कार कर लिया। राजा परीक्षित को कथा-श्रवण करते-करते पाँच दिन हुए, शुकदेव जी की नूरानी निगाह पड़ी तो परीक्षित को तसल्ली मिल गयी। सातवें दिन पूर्णता प्राप्त हो गई। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अधिकारी जीव को पाँच, सात, दस दिन में, महीने दो महीने में, साल दो साल में, दस साल में भी, अरे पचास साल तो क्या पचास जन्म दाँव पर लगाने के बाद भी अनन्त ब्रह्मण्ड के नायक प्रभु का अनुभव होता है तो सौदा सस्ता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ तू लगा रह। थक मत। लगा रह.... लगा रह.....। माप-तौल मत कर। पीछे कितना अन्तर काट कर आया इसकी चिन्ता मत कर। आगे कितना बाकी है यह देख ले। जितना चल लिया वह तेरा हो गया। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ तुम्हारे पास कितने ही रूपये आये और चले गये। तुम रूपयों से बँधे नहीं हो। कई जन्मों में कितने ही बेटे आये और चले गये। तुम बेटों से बँधे नहीं हो। हम किसी वस्तु से, व्यक्ति से, परिस्थिति से बँधे हैं यह मानना भ्रम है। सुखद परिस्थितियों में लट्टू हो जाने की मन की आदत है। मन के साथ हम जुड़ जाते हैं। मन में होता है कि यह मिले.... वह मिले....। मन के इस आकर्षण से हमारा अन्तःकरण मलिन हो जाता है। भय की बात का हम चिन्तन करते हैं। इससे हमारी योग्यता क्षीण हो जाती है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ परिस्थितियाँ तो सदा बदलती रहती हैं। जो कैदी है वे राजा हो जाते हैं और जो राजा हैं वे कैदी हो जाते हैं। जो कंगाल हैं वे धनवान हो जाते हैं और जो धनवान हैं वे कंगाल हो जाते हैं। प्रसिद्ध व्यक्ति अप्रसिद्ध हो जाते हैं और अप्रसिद्ध लोग प्रसिद्ध हो जाते हैं। छोटे बड़े हो जाते हैं और बड़े छोटे हो जाते हैं। सुखी दुःखी हो जाते हैं। और दुःखी सुखी हो जाते है। ये परिस्थितियाँ तो आती ही रहेंगी। इन परिस्थितियों का ठीक उपयोग करने की कला आ जाय तो अपना साक्षी चैतन्य आँखमिचौली पूरी करके प्रकट हो जाता है। 'बापू....! वह प्रकट हो जाय इसलिए हममें व्याकुलता जग जाए.... कुछ आशीर्वाद दो.... तब प्रकट होगा....।' अभी वह प्रकट है भैया। उसे देखने की कला सीख। यह कला सीखेगा तो तेरा स्नेह... तेरा भीतर का रस जागेगा। भीतर का रस जागेगा तो प्राप्त परिस्थितियों का सदुपयोग करने की कला अपने आप आयेगी। जब तू सबमें उसको देखेगा, नहीं जानता है फिर भी वह सबमें है ऐसा तू विश्वास करेगा तो तेरे द्वारा अन्याय का व्यवहार कम हो जायेगा, तेरे द्वारा पक्षपात दूर होने लगेगा। तू बिलकुल आसानी से अपने चालू व्यवहार में परम पद का अनुभव करने में सफल हो जाएगा। प्रारंभ में वह चैतन्य परमात्मा सर्वत्र नहीं दिखेगा। इसलिए उसको किसी मूर्ति में अथवा अपने शरीर के किसी केन्द्र में ध्यान करके अथवा उपासना के द्वारा एक जगह प्रकट करके देखो। जब परमात्मा एक जगह प्रकट हो गया फिर.... फिर वह रस, वह आनन्द, वह चेतना और वह 'मैं' सर्वत्र प्रकट दिखेगा। फिर भी तुम सर्वत्र प्राकट्य की स्थिति में नहीं पहुँच सकते हो तो एक जगह तक तो पहुँचो। जैसे गीता में विभूति योग आता है। भगवान कहते हैं 'सब ऋषियों में कपिल मैं हूँ, सब गायों में कामधेनु गाय मैं हूँ, शब्दों में प्रणव मैं हूँ, वृक्षों में पीपल मैं हूँ.....' आदि आदि। भगवान सर्वत्र हैं फिर वृक्षों में पीपल में ही क्यों ? भगवान सबमें है तो एक कपिल मुनि में ही क्यों ? भगवान सर्वत्र हैं यह ज्ञान पचाने की क्षमता नहीं है इसलिए भगवद प्रसाद जहाँ विशेष रूप से प्रकट हुआ है वहाँ तो कम से कम भगवान को देखो। इससे क्रमशः दृष्टि व्यापक हो जायेगी। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ कामनाये जितनी अधिक उतना ही हमारा चित्त मलिन होता है।इच्छा, कामना कम होते ही प्रारब्ध में जो होगा अच्छी ढंग से होगा।लेकिन इच्छा करते -करते अगर कुछ मिल भी जाता है तो उसमे आसक्ति रहती है और चला जाने का भय लगा रहता है,आदमी अपनी आंतरिक शांति से, अपनी असलियत से दूर चला जाता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जीवन में यदि उन्नति व प्रगति के पथ पर,अग्रसर होना हो तो आलस्य, प्रमाद, भोग, दुर्व्यसन, दुर्गुण और दुराचार को विष के समान समझकर त्याग दो।सद्गुण,सदाचार का सेवन,विद्याभ्यास,ब्रम्हचर्य पालन,माता-पिता व गुरुजनों एवं दुःखी अनाथ प्राणियों की निस्वार्थ सेवा तथा ईश्वर की भक्ति को अमृत के समान समझकर उनका श्रद्धा पूर्वक सेवन करो।यदि इनमे से एक का भी निष्काम भाव से पालन किया जाय तो भी कल्याण हो सकता है,फिर सबका पालन करने से तो कल्याण होने में सन्देह ही क्या है? ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ धर्म का अनुष्ठान करने से अंतःकरण निर्भार होता है ,हृदय में खुशी होती है और अधर्माचरण करने से हृदय बोझीला होता है, दिल की खुशी मारी जाती है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ हमें जो धन, यश और भोग मिलता है वह जितना प्रारब्ध में होता है उतना ही मिलता है। अथवा यहाँ जैसा उद्योग होता है उसी प्रकार का मिलता है। उद्योग अगर अधर्म से करें तो दुःख, चिन्ता और मुसीबत आती है। धर्म के अनुकूल उद्योग करें तो सुख, शान्ति और स्थिरता आती है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ अनुग्रह से भी धन, यश और भोग मिल सकता है। लेकिन देखना यह है कि अनुग्रह किसका है। सज्जन सेठ का, धर्मात्मा साहूकार का अनुग्रह है कि दुरात्मा का है ? साधु का अनुग्रह है कि असाधु का ? सज्जनों का अनुग्रह, देवताओं का अनुग्रह, सदगुरू और भगवान का अनुग्रह तो वांछनीय है, अच्छा है, स्वीकार्य है। लेकिन दुर्जन का अनुग्रह ठीक नहीं होता। जैसे पक्षियों को फँसाने के लिए शिकारी दाने डालता है। पक्षी दाने चुगने उतर आते हैं और जाल में फँस जाते हैं। फिर छटपटाने लगते हैं। स्वार्थी आदमी कोई अनुग्रह करे तो खतरा है। कोई बदचलन स्त्री, कोई नटी बहुत प्यारे करने लगे, नखरे करने लगे तो खतरा है। वह आदमी की जेब भी खाली कर देगी और नसों की शक्ति भी खाली कर देगी। घड़ीभर का सुख देगी लेकिन जिन्दगी भर फिर रोते रहो, तुच्छ विकारी आकर्षणों में मरते रहो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ तुमको जो धन, यश, भोग और सुख देने वाले हैं वे कैसे हैं यह देखो। वे सज्जन हैं, संत हैं, देव हैं, भगवान हैं कि विकारी आदमी हैं ? विकारी और दुर्जन लोगों के द्वारा मिला हुआ धन, सुख, भोग, भोक्ता को बरबाद कर देता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ