मृत्यु
: एक विश्रान्ति-स्थान।
मौत तो एक पड़ाव है, एक विश्रान्ति-स्थान है। उससे भय कैसा? यह तो प्रकृति की एक व्यवस्था है। यह
एक स्थानान्तर मात्र है। उदाहरणार्थ, जैसे
मैं अभी यहाँ हूँ। यहाँ से आबू चला जाऊँ तो यहाँ मेरा अभाव हो गया, परन्तु आबू में मेरी उपस्थिति हो गई।
आबू से हिमालय चला जाऊँ तो आबू में मेरा अभाव हो जायेगा और हिमालय में मेरी हाजिरी
हो जायेगी। इस प्रकार मैं तो हूँ ही, मात्र
स्थान का परिवर्तन हुआ।
तुम्हारी अवस्थाएँ बदलती हैं, तुम नहीं बदलते। पहले तुम सूक्ष्म रूप
में थे। फिर बालक का रूप धारण किया। बाल्यावस्था छूट गई तो किशोर बन गये।
किशोरावस्था छूट गई तो जवान बन गये। जवानी गई तो वृद्धावस्था आ गई। तुम नहीं बदले, परन्तु तुम्हारी अवस्थाएँ बदलती गईं।
हमारी भूल यह है कि अवस्थाएँ बदलने को
हम अपना बदलना मान लेते हैं। वस्तुतः न तो हम जन्मते-मरते हैं और न ही हम बालक, किशोर, युवा और वृद्ध बनते हैं। ये सब हमारी देह के धर्म हैं और हम देह नहीं
हैं। संतो का यह अनुभव है किः
मुझ में न तीनों देह हैं, तीनों अवस्थाएँ नहीं ।
मुझ में नहीं बालकपना, यौवन बुढ़ापा है नहीं ।।
जन्मूँ नहीं मरता नहीं, होता नहीं मैं बेश-कम ।
मैं ब्रह्म हूँ मै ब्रह्म हूँ, तिहूँ काल में हूँ एक सम ।।
मृत्यु नवीनता को जन्म देने में एक
संधिस्थान है। यह एक विश्राम स्थल है। जिस प्रकार दिन भर के परिश्रम से थका मनुष्य
रात्रि को मीठी नींद लेकर दूसरे दिन प्रातः नवीन स्फूर्ति लेकर जागता है उसी
प्रकार यह जीव अपना जीर्ण-शीर्ण स्थूल शरीर छोड़कर आगे की यात्रा के लिए नया शरीर
धारण करता है। पुराने शरीर के साथ लगे हुए टी.बी., दमा, कैन्सर जैसे भयंकर रोग, चिन्ताएँ आदि भी छूट जाते हैं।
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