पर हित के लिए थोड़ा कार्य करने से भी भीतरी शक्तियाँ जागृत होती हैं। दूसरों के कल्याण के मात्र विचार से हृदय में सिंह के समान बल आता है। ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ परिस्थिति कैसी भी आयें, उनमें डूबो मत। उनका उपयोग करो। समझदार लोग संतों से, सत्संग से सीख लेते हैं और सुख–दुःख का सदुपयोग करके बहुतों के लिए सुख, ज्ञान व प्रकाश फैलाने में भागीदार होते हैं और मूर्ख लोग सुख आता है तो अहंकार में तथा दुःख आता है तो विषाद में डूब के स्वयं का तो सुख, ज्ञान और शांति नष्ट कर लेते हैं, औरों को भी परेशान करके संसार से हारकर चले जाते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ दु:ख और चिन्ता, हताशा और परेशानी, असफलता और दरिद्रता भीतर की चीजें होती हैं, बाहर की नहीं। जब भीतर तुम अपने को असफल मानते हो तब बाहर तुम्हें असफलता दिखती है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ साधक वह है कि जो हजार विघ्न आयें तो भी न रुके , लाख प्रलोभन आएँ तो भी न फँसे । हजार भय के प्रसंग आएँ तो भी भयभीत न हो और लाख धन्यवाद मिले तो भी अहंकारी न हो । उसका नाम साधक है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ आत्म-धन पाने का, आत्म-सुख जगाने का उद्देश्य बनाओ। आत्म-धन और आत्म-सुख शाश्वत है। वह धन पाओगे तो यहाँ का धन दास की तरह सेवा में रहेगा। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को धनंजय कहते है। लोग बोलते हैं कि मैं धनवान हूँ लेकिन उन बेचारों को पता नहीं कि वे धन के मात्र चौकीदार हैं। धन सँभालते सँभालते चले जाते हैं। धन का सदुपयोग नहीं कर पाते तो वे धन के स्वामी कैसे हुए ? स्वामी तो उसको कहा जाता है जो स्वतन्त्र हो। धनवान तो धन से बँधे हुए हैं, धन के दास हैं, गुलाम हैं, धन के चौकीदार हैं। बैंक के द्वार पर चौकीदार बंदूक लेकर खड़ा रहता है। वह धन का चौकीदार है, स्वामी थोड़े ही है ! कई लोग तन के, मन के, धन के दास होते हैं। तन से बीमार रहते हैं, मन से उद्विग्न रहते हैं और धन को सँभालते सँभालते सारा जीवन खपा देते हैं। कुछ लोग तन के, मन के, धन के स्वामी होते हैं। तन को यथायोग्य आहार-विहार से तन्दुरूस्त रखते हैं, मन को विकारी आकर्षणों से हटाकर आत्म-सुख में डुबाते हैं और धन का बहुजन हिताय सदुपयोग करते हैं। ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ त्याग से, प्रसन्नता से एकान्त से अदभुत विकास होता है। ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ जिस तरह भूखा मनुष्य भोजन के सिवाय अन्य किसी बात पर ध्यान नहीं देता है, प्यासा मनुष्य जिस तरह पानी की उत्कंठा रखता है, ऐसे ही विवेकवान साधक परमात्मशांतिरूपी पानी की उत्कंठा रखता है। जहाँ हरि की चर्चा नहीं, जहाँ आत्मा की बात नहीं वहाँ साधक व्यर्थ का समय नहीं गँवाता। जिन कार्यों को करने से चित्त परमात्मा की तरफ जावे ही नहीं, जो कर्म चित्त को परमात्मा से विमुख करता हो, सच्चा जिज्ञासु व सच्चा भक्त वह कर्म नहीं करता। जिस मित्रता से भगवद् प्राप्ति न हो, उस मित्रता को वह शूल की शैया समझता है। सो संगति जल जाय, जिसमें कथा नहीं राम की। बिन खेती, बिन बाड़ी के, बाढ़ भला किस काम की।। वे नूर बेनूर भले, जिस नूर में पिया की प्यास नहीं। वह जीवन नरक है, जिस जीवन में प्रभुमिलन की आस नहीं।। वह मति दुर्मति है, जिसमें परमात्मा की तड़प नहीं। वह जीवन व्यर्थ है जिस जीवन में ईश्वर के गीत गूँज न पाए। वह धन बोझा है जो आत्मधन कमाने के काम न आए। वह मन तुम्हारा शत्रु है जिस मन से तुम अपने आपसे मिल न पाओ। वह तन तुम्हारा शत्रु है जिस तन से तुम परमात्मा की ओर न चल पाओ। ऐसा जिनका अनुभव होता है वे साधक ज्ञान के अधिकारी होते हैं। ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ भीतर से तुम दीन हीन मत होना । घबराहट पैदा करनेवाली परिस्थितियों के आगे भीतर से झुकना मत । ॐकार का सहारा लेना । मौत भी आ जाए तो एक बार मौत के सिर पर भी पैर रखने की ताकत पैदा करना । कब तक डरते रहोगे ? ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ जब घर-बार सम्बन्धी कोई कठिन समस्या व्याकुल करे तब उसे मदारी का खेल समझकर, स्वयं को निःसंग जानकर उस बोझ को हल्का कर दो। ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ भय मात्र हमारी कल्पना की उपज है। वेदान्त के अनुसार समस्त संसार आपकी ही रचना, आप का ही संकल्प है तो भय किससे? सदा सिंहवत निर्भय रहो। ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ एकाग्रता के साथ-साथ भगवद्ज्ञान, भगवत्प्रेम, भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य बना लो। ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ जो कुछ है उसी का है, जो कुछ है उसी के लिए है। हम सब अपना और अपने लिए मान लेते हैं तब ईश्वरीय विधान का अनादर करते हैं। इसी से परेशानी और कठिनाईयाँ आ घेरती हैं। इसी से जन्म-मरण की सजा मिलती रहती है। ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ हम एक सेकेण्ड भी ईश्वर से अलग नहीं रह सकते, उसकी चीजों से अलग नहीं रह सकते। आपके शरीर में से पूरी हवा निकाल दें तो कुछ मिनटों के लिए कैसा रहेगा ? आप नहीं जी सकते। आप ईश्वर से तनिक भी दूर नहीं हैं फिर भी उसके साथ आपकी सुरता नहीं मिली है तो दूरी का अनुभव करके आप दुःखी हो रहे हैं। ईश्वर के सान्निध्य का अनुभव हो जाता तो हमारी दुर्दशा थोड़े ही होती ! सदा साथ में रहने वाले अन्तर्यामी का अनुभव नहीं हो रहा है इसीलिए दुःख सह रहे हैं, पीड़ा सह रहे हैं, चिन्ताएँ कर रहे हैं, परेशानियाँ उठा रहे हैं। ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ हमारी बुद्धि का दुर्भाग्य तो यह है कि जो सदा साथ में है उसी साथी से मिलने के लिए तत्परता नहीं आती। जो हाजरा-हजूर है उससे मिलने की तत्परता नहीं आती। वह सदा हमारे साथ होने पर भी हम अपने को अकेला मानते हैं कि दुनियाँ में हमारा कोई नहीं। हम कितना अनादर करते हैं अपने ईश्वर का ! ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ 'हे धन ! तू मेरी रक्षा कर। हे मेरे पति ! तू मेरी रक्षा कर। पत्नी ! तू मेरी रक्षा कर। हे मेरे बेटे ! बुढ़ापे में तू मेरी रक्षा कर।' हम ईश्वरीय विधान का कितना अनादर कर रहे हैं !! बेटा रक्षा करेगा ? पति रक्षा करेगा ? पत्नी रक्षा करेगी ? धन रक्षा करेगा ? लाखों-लाखों पति होते हुए भी पत्नियाँ मर गईं। लाखों-लाखों बेटे होते हुए भी बाप परेशान रहे। लाखों-लाखों बाप होते हुए भी बेटे परेशान रहे क्योंकि बापों में बाप, बेटों में बेटा, पतियों में पति, पत्नियों में पत्नी बन कर जो बैठा है उस प्यारे के तरफ हमारी निगाह नहीं जाती। भूल्या जभी रबनू तभी व्यापा रोग। जब उस सत्य को भूले हैं, ईश्वरीय विधान को भूले हैं तभी जन्म-मरण के रोग, भय, शोक, दुःख चिन्ता आदि सब घेरे रहते हैं। अतः बार-बार मन को इन विचारों से भरकर, अन्तर्यामी को साक्षी समझकर प्रार्थना करते जाएँ, प्रेरणा लेते जाएँ और जीवन की शाम होने से पहले तदाकार हो जाएँ। ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐॐ शांति...... ॐ आनन्द...... ॐ....ॐ.....ॐ....। शांति.... शांति.....। वाह प्रभु ! तेरी जय हो ! ईश्वरीय विधान। तुझे नमस्कार ! हे ईश्वर ! तू ही अपनी भक्ति दे और अपनी ओर खींच ले। ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ विधान का स्मरण करके साधना करेंगे तो आपकी सहज साधना हो जायगी। गिरि गुफा में तप करने, समाधि लगाने नहीं जाना पड़ेगा। सतत सावधान रहें तो सहज साधना हो जाएगी। ईश्वरीय विधान को समझकर जीवन जिएं, उसके साथ जुड़े रहें तो सहज साधना हो जाएगी। ૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐૐ