बाबा रामदेव के स्वदेशी मॉडल से पेट में मरोड़ क्यों?
बाबा
रामदेव की पतंजलि आयुर्वेद ने वित्त वर्ष 2015-16 के
दौरान अपनी बिक्री 5,000 करोड़ रुपये के पार जाने तथा इस वर्ष
का लक्ष्य 10,000 करने की घोषणा क्या की कुछ लोगों के
पेट में मरोड़ उठने लगी। आश्चर्य की बात यह है कि बाबा रामदेव की इस उपलब्धि पर
कपड़े फाडऩे वालों में कुछ बड़े राजनीतिज्ञ, पत्रकार
और तथाकथित बुद्धिजीवी भी देखे जा रहे हैं।
आश्चर्य
इस कारण से क्योंकि जो लोग स्वदेशी मॉडल पर आधारित पतंजलि आयुर्वेद की इस बड़ी
उपलब्धि पर निंदा का बिगुल बजाते देखे जा रहे हैं वह लोग कभी भी नेस्ले, हिन्दुस्तान
यूनिलीवर, कोलगेट, पामोलिव
जैसी विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के नुकसानदायक व महंगे उत्पादों पर कभी भी
मुंह खोलते दिखाई नहीं देते।
साफ
है इनको चिढ़ इस बात की है कि कैसे एक राष्ट्रवादी, भगवाधारी
संत के नेतृत्व में भारत के स्वदेशी मॉडल पर आधारित एक कंपनी ने पूरी दुनिया में
सफलता के झंडे कैसे गाड़ दिए? ऐसा नहीं कि इस तरह का विरोध कोई पहली
बार देखने को मिल रहा है। यह वही जमात है जो प्रत्येक उस बात को स्वीकार करने में
परहेज करती है जिसमें भारत और भारत माता का मस्तक ऊंचा होता है।
योग
का विरोध, वंदेमातरम् का विरोध, भारत
माता की जय का विरोध, भारत की महान भगवा परंपरा का विरोध, हिन्दू
संस्कृति का विरोध और तो और जिस देश में रहते हैं उस देश का विरोध। अब स्वदेशी
मॉडल और आयुर्वेद के सिद्धांतों पर ऊंची उड़ान भरने वाली कंपनी के मार्गदर्शक की
निंदा।
कैसे-कैसे
तर्क दिए जा रहे हैं, कहा जा रहा है कि एक भगवा व धारी
योगाचार्य का व्यापार से क्या लेना-देना? आटा, मंजन, तेल
बेचने की आखिर क्या जरुरत? तरस आता है इनकी बुद्धि पर इन्होंने
यदि भारतीय भगवा परम्परा और साधु-संतों के राष्ट्रजागरण का अध्याय पढ़ा होता तो
शायद ऐसी बात कदापि नहीं करते।
वशिष्ठ
भी साधु थे, गुरु द्रोणाचार्य भी संत परम्परा के
वाहक थे, स्वामी समर्थ रामदास भी भगवाधारी संत
ही थे और रामकृष्ण परमहंस की गिनती भी संन्यासियों में ही होती थी। आखिर क्या
जरुरत थी गुरु वशिष्ठ को कि वह राजा दशरथ से भगवान राम को मांगने गए थे, क्या
जरुरत थी गुरु द्रोण को कि उन्होंने अर्जुन जैसे धनुर्धर को तैयार किया, वे
समर्थ रामदास ही तो थे जिन्होंने शिवाजी के मन में प्रबल राष्ट्रवाद के बीज रोपित
किए, स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानंद को
जाग्रत किया था।
यदि
यह सारे भगवाधारी सिर्फ पूजा-पाठ और योग साधना तक ही सिमटे रहते तो न इस धरा से
राक्षसी वृत्तियों का नाश होता न हिन्दू पदपादशाही की स्थापना और स्वामी विवेकानंद
जैसे हिन्दुत्व के महानायक द्वारा शिकागो धर्म सभा में भारत का मस्तक ऊंचा होता।
इन
सबके पीछे भारत की महान भगवा संन्यासी परम्परा का ही योगदान रहा है। यदि भारत के
लंबे गुलामी कालखंड को याद किया जाए तो भारत को इस दुर्दशा तक पहुंचाने के पीछे एक
विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनी ईस्ट इंडिया कंपनी का ही हाथ था। अंग्रेज हमारे देश में
इस कंपनी के सहारे व्यापारी बनकर आए थे और बाद में हमें गुलामी की बेडिय़ों में जकड़ लिया था।
आज
भले ही वैश्विक परिदृश्य बदल गया है, कोई
किसी को गुलाम नहीं बना सकता यह कहा जा सकता है। लेकिन तमाम देशों की आर्थिक
बदहाली और इसके बाद उनकी बर्बादी के पीछे मूल कारण यही रहा है कि उन्होंने अपना
स्वदेशी मॉडल ठुकराकर विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को गले लगाया। भारत की बात
करें तो स्वतंत्रता आंदोलन में गांधीजी को भी स्वदेशी का नारा ही बुलंद करना पड़ा
था।
आज
भारत विश्व के सबसे बड़े बाजार के रूप में देखा जा रहा है। तमाम विदेशी कंपनियां
हमारे बाजार का उपयोग कर यहां से कमाया धन और समृद्धि विदेशों में ले जाती हैं। आज
हम भले ही अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति पा चुके हैं लेकिन विदेशी कंपनियों ने
मानसिक रूप से हमें गुलाम बना रखा है।
मंजन, तेल, आलू
के चिप्स, बड़ी, पापड़, अचार, नमकीन
से लेकर छोटी-छोटी चीजें हमें सिर्फ पसंद आती हैं तो केवल विदेशी कंपनियों की। ऐसी
विषम परिस्थिति में मानसिक गुलामी के इस दौर में एक भगवाधारी योग गुरु ने हमारे
सामने स्वदेशी मॉडल की एक कंपनी का सफल विकल्प प्रस्तुत करके पूरे देश के स्वदेशी
भाव को जगाने का काम किया है। बाबा रामदेव ने एक वर्ष में 5,000 करोड़
का व्यापार करके तथा आगामी वर्ष में 10,000 करोड़
का लक्ष्य लेकर भारत के बाजार का उपयोग करने वाली विदेशी कंपनियों की चूलें हिलाकर रख दी हैं। जो लोग
बाबा रामदेव की निंदा कर रहे हैं वह अपरोक्ष रूप से उन विदेशी कंपनियों के समर्थक
कहे जा सकते हैं जो देश की समृद्धि को लूट रही हैं।
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