टांगीनाथ धाम।

             हिन्दू धर्म में मंदिरों का बहुत महत्व बताया गया है।  मंदिर वैसे तो अपने आप में बहुत पावन और पवित्र होते हैं लेकिन उनकी महत्वता तब और बढ़ जाती है जब उन मंदिरों से जुड़ी कोई बेहद ख़ास बात लोगों को पता चलती है। देश के कुछ मंदिरों के बारे में तो यहाँ तक कहा जाता है कि उनमें साक्षात भगवान का वास होता है। आज एक और ऐसे ही मंदिर के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि यहाँ स्वयं भगवान शिव जी साक्षात वास करते हैं।
            त्रेता युग में जब भगवान श्रीराम ने जनकपुर में आयोजित सीता माता के स्वयंवर में शिव जी का धनुष तोड़ा तो वहां पहुंचे भगवान परशुराम काफी क्रोधित हो गए। इस दौरान लक्ष्मण से उनकी लंबी बहस हुई। बहस के बीच में ही जब परशुराम को पता चला कि भगवान श्रीराम स्वयं नारायण ही हैं तो उन्हें बड़ी आत्मग्लानि हुई। शर्म के मारे वे वहां से निकल गए और पश्चाताप करने के लिए घने जंगलों के बीच एक पर्वत श्रृंखला में आ गए। यहां वे भगवान शिव की स्थापना कर आराधना करने लगे। बगल में उन्होंने अपना परशु अर्थात फरसे को गाड़ दिया। परशुराम ने जिस जगह फरसे को गाड़ कर शिव जी की अराधना की वह झारखंड प्रांत के गुमला जिले में स्थित डुमरी प्रखंड के मझगांव में स्थित है। झारखंड में फरसा को टांगी कहा जाता है, इसलिए इस स्थान का नाम टांगीनाथ धाम पड़ गया। धाम में आज भी भगवान परशुराम के पद चिह्न मौजूद हैं। कहा जाता है कि इस स्थान पर भगवान परशुराम ने लंबा समय बिताया। टांगीनाथ धाम, इसका पश्चिम भाग छत्तीसगढ़ राज्य के रायगढ़ जिला व सरगुजा से सटा हुआ है। वहीं उत्तरी भाग पलामू जिले व नेतरहाट की तराई से घिरा हुआ है। छोटानागपुर के पठार का यह उच्चतम भाग है, जो सखुवा के हरे भरे वनों से आच्छादित है। जमीन में 17 फीट धंसे इस फरसे की ऊपरी आकृति कुछ त्रिशूल से मिलती-जुलती है। इसलिए स्थानीय लोग इसे त्रिशूल भी कहते हैं। सबसे आश्चर्य की बात कि इसमें कभी जंग नहीं लगता। खुले आसमान के नीचे धूप, छांव, बरसात, ठंड का कोई असर इस त्रिशूल पर नहीं पड़ता है। अपने इसी चमत्कार के कारण यह विश्वविख्यात है।
                 1989 ई. में पुरातत्व विभाग ने टांगीनाथ धाम के रहस्यों से पर्दा हटाने के लिए अध्ययन किया था। यहां जमीन की भी खुदाई की गई थी। उस समय भारी मात्रा में सोने व चांदी के आभूषण सहित कई बहुमूल्य वस्तुएं मिली थीं। लेकिन कतिपय कारणों से खुदाई पर रोक लगा दिया गया। इसके बाद टांगीनाथ धाम के पुरातात्विक धरोहर को खंगालने के लिए किसी ने पहल नहीं की। खुदाई से हीरा जड़ा मुकुट, चांदी का सिक्का (अद्र्ध गोलाकार), सोना का कड़ा, कान की बाली सोना का, तांबा का टिफिन जिसमें काला तिल व चावल मिला था, जो आज भी डुमरी थाना के मालखाना में रखे हुए हैं। टांगीनाथ धामों में यत्र तत्र सैकंडों की संख्या में शिवलिंग है। बताया जाता है कि यह मंदिर शाश्वत है। स्वयं विश्वकर्मा भगवान ने टांगीनाथ धाम की रचना की थी। वर्तमान में यह खंडहर में तब्दील हो गया है। यहां की बनावट, शिवलिंग व अन्य स्रोतों को देखने से ऐसा लगता भी है कि इसे आम आदमी नहीं बना सकता है। त्रिशूल के अग्र भाग को मझगांव के लोहरा जाति के लोगों ने काटने का प्रयास किया था। त्रिशूल कटा नहीं, पर कुछ निशान हो गए। इसकी कीमत लोहरा जाति को उठानी पड़ी। आज भी इस इलाके में 10 से 15 किमी की परिधि में इस जाति का कोई व्यक्ति निवास नहीं करता। अगर कोई निवास करने का प्रयास करता है, तो उसकी मृत्यु हो जाती है।

कहाँ स्थित है ये मंदिर
                    झारखंड के गुमला जिले में भगवान परशुराम का तप स्थल मौजूद है। यह जगह रांची से तकरीबन 150 किमी की दूरी पर स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार ऐसा बताया जाता है कि यहाँ भगवान परशुराम ने भगवान शिव की घोर उपासना की थी और यही वो स्थान है जहाँ उन्होंने अपने परशु यानी की फरसे को जमीन में गाड़ दिया था। इस फरसे के ऊपर की आकृति कुछ-कुछ त्रिशूल से मिलती-जुलती है। यही वजह है कि यहां श्रद्धालु इस फरसे की पूजा के लिए आते हैं।
                    वहीं भगवान शिव शंकर के इस मंदिर को टांगीनाथ धाम के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि टांगीनाथ धाम में साक्षात भगवान शिव निवास करते हैं। इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि ये जंगल में स्थ‍ित है। झारखंड के इस बियावान और जंगली इलाके में शिवरात्रि के मौके पर ही श्रद्धालु टांगीनाथ के दर्शन के लिए आते हैं। बताया जाता है कि यहां स्थ‍ित एक मंदिर में भगवान शिव शाश्वत रूप में मौजूद हैं। इस मंदिर के पुजारी स्थानीय आदिवासी ही हैं और ये लोग ऐसा मानते और बताते हैं कि ये मंदिर बेहद ही प्राचीन है।

आश्चर्यजनक है ये त्रिशूल
                    यहाँ जिस परशु की उपासना की जाती है उसे भी बड़ा चमत्कारी और आश्चर्यजनक माना जाता है। इसकी वजह यह है कि इस त्रिशूल या परशु में कभी भी जंग नहीं लगता है। ये बात हैरान कर देने वाली इसलिए भी है क्योंकि ये त्रिशूल खुले आसमान के नीचे धूप, छांव, बरसात हर मौसम में यूँ ही पड़ा रहता है लेकिन बावजूद इसके इसमें कभी जंग नहीं लगता है। आदिवासी बाहुल्य वाला ये इलाक़ा पूरी तरह से उग्रवाद से प्रभावित है। ऐसे में यहां अधिकतर सावन और महाशिवरात्रि के दिन ही शिवभक्तों की भीड़ उमड़ती है।

                    इस मंदिर के बारे में प्रचलित कथा के अनुसार बताया जाता है कि जब भगवान श्रीराम ने जनकपुर में आयोजित सीता माता के स्वयंवर में शिव जी का धनुष तोड़ा तो वहां पहुंचे भगवान परशुराम इस बात से काफी क्रोधित हो गए।  जिसके बाद लक्ष्मण से उनकी काफी लंबी बहस चली लेकिन इसी बीच परशुराम को ये पता चला कि भगवान श्रीराम स्वयं ही नारायण हैं तो उन्हें बड़ी शर्मिंदगी महसूस होने लग गयी।
                    शर्म से उन्होंने वो सभा छोड़ दी और आत्म-ग्लानि का भाव लिए हुए वो घने जंगलों के बीच एक पर्वत श्रृंखला पर आ पहुंचे। यहाँ पर उन्होंने भगवान शिव की स्थापना की और उनकी आराधना में जुट गए।  यहीं पर उन्होंने अपना परशु ज़मीन में गाड़ दिया था।
                    इसी मंदिर से जुड़ी एक और कहानी है जिसके अनुसार कहा जाता है कि भगवान शिव इस क्षेत्र के पुरातन जातियों से संबंधित थे। आजतक कोई इस बात को नहीं जानता कि त्रिशूल जमीन के कितना नीचे तक गड़ा है।